योनिरोग (Viginal Diseases) ईसा मसीह से ६०० वर्ष पूर्व महर्षि चरक एवं सुश्रुत ने अपनी संहिताओं में योनरोगों को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए, अलग अध्याय में ही इनका वर्ण किया है, यद्यपि योनि शब्द से उन्होंने दो अर्थ ग्रहण किए हैं। प्रथम अर्थ में योनि से वह मार्ग समझा जाता है जो भग से गर्भशय की ग्रीवा तक होता है, जिसे आँग्ल भाषा में वैजिना (Vagina) कहते हैं। द्वितीय अर्थ में योनि से समस्त प्रजननांगों को समझा जाता है।
योनि की अंत:सीमा गर्भशय की ग्रीवा (cervix uteri) तथा बहि: सीमा योनि का अग्रद्वार है, जो भग (valva) में खुलता है। यानि की पूर्वसीमा मूत्राशय, मूत्रनलिका तथा येनिपथ को विभक्त करनेवाली पेशीयुक्त दीवार है। इस प्रकार यह एक गोल नलिका है, जिसकी लंबाई ३.५ इंच से ४ इंच तथा परिधि लगभग ४ इंच है। इसकी पूर्व-पश्चिम दीवार सदा एक दूसरे से सटी रहती है। इसको चारों ओर से आच्छादित करनेवाली पेशियाँ मृदु एवं सुनभ्य होती हैं, जो आवश्यकता पड़ने पर (जैसे प्रसव के समय) पर्याप्त विस्तरित हो जाती हैं। योनि के बहिर्द्वार पर छिद्रित आच्छादन होता हैं, जिसे योनिच्छद (Hymen vaginae) कहते हैं। इसके छिद्र से प्रति मास रजस्राव के समय रज बाहर निकलता है तथा प्रथम संभोग के समय यह विदीर्ण हो जाता है।
योनिरोगों का वर्णन करते समय उन्हें निम्न वर्गो में विभाजित कर सकते हैं:
(१)�� जन्मजात (Congenital), (२) संक्रामी (Infective), (३) अभिघातज (Traumatic), (४) शल्यज (Foreign body) तथा (५) अर्बुद (Neoplasm)।
(१)�� योनिपथ का अभाव- यदि योनि पथ के अभाव के साथ ही साथ संपूर्ण जननांगों का भी अभाव है, तो इस स्थिति में कोई चिकित्सा नहीं की जा सकती, परंतु यदि केवल योनि पथ का ही अभाव, या कुनिर्माण, हुआ है, तो शल्यचिकित्सा द्वारा कृत्रिम योनिपथ बनाया जा सकता हैं।
(2)� विभाजित योनि- भ्रूण अवस्था में वृद्धि के समय जननांग दो भागों में विभक्त हो जाते है। एक पर्दा योनिपथ को तथा दूसरा गर्भाशय को दो भागों में विभक्त करता है, परंतु प्राय: यह पर्दा जन्म के समय से पहले ही स्वत: विलुप्त हो जाता है। कभी कभी यह जन्मोपरांत भी बना रहता है। उस समय यह योनपथ को उसकी लंबाई में, दो भागों में विभक्त कर देता है। यह अवस्था शल्यचिकित्सासाध्य है।
(3)� योनिपथ का संकीर्ण होना-योनिपथ की परिधि कम होती है। यों तो उसमें अन्य कोई कष्ट नहीं होता है, केवल संभोग के समय अत्यधिक वेदना का अनुभव होता है। इसकी चिकित्सा योनि विस्फारकों (dilators) के द्वारा शनै: शनै: योनि मार्ग को विस्फारित करना है।
(4)� योनिच्छद (hymen vaginae) का छिद्रयुक्त न होना- साधारण स्थिति में योनिच्छद छिद्रयुक्त होता है तथा मासिक रज:स्राव बाहर आता रहता है, परंतु यदि यह छिद्र उपस्थित न हो, तो प्रति मास होनेवाले स्राव का रक्त बाहर नहीं आ सकेगा तथा अंदर ही रज जमा होता रहेगा। योनिपथ के पूर्ण भर जाने पर वह रक्त गर्भाशय, डिंब्बाहिनी और अंत में उदर गुहा में अकट्ठा होना प्रारंभ कर देता है। उदर में भगसंधि के ऊपर गाँठ जैसा फूल जाता है। यह गाँठ मासिक स्राव के समय बढ़ती है तथा रक्त जमने पर घट जाती है। योनिच्छद भी बाहर उभरा एवं फूला रहता है। इन रोगों को रक्तयोनि, रक्त-गर्भाशय एवं रक्त-डिंबबाहनी कहते हैं। धन + के आकार को छेद बनाकर, उसे शनै: शनै: विस्फारित करना होता है।
संक्रामी व्याधियाँ
(१)�� ट्रिकोमोनोस योनिशोध - यह एक प्रकार का फंगस है, जो योनि के ष्लेष्मल स्तर में संक्रमण करता है। यह शोथ किसी समय किसी भी अवस्था में हो सकता है। इसमें योनिकंडु, सिर दर्द, बेचैनी तथा दाह होता है। योनि में शोथ के लाल चकत्ते हो जाते हैं तथा पीला स्राव होता है। संखिया, वायोफार्म, फ्लोरक्विन आदि की गोलियों को योनि में धारण करने से लाभ है तथा सल्फा और सेंटिबायोटिक गोलियों को भी योनि में धारण किया जाता है।
(2)� योनि का ्थ्राश (thrush)-यह रोग बालिकाओं में अधिक होता है। यह मायकोटिक प्रकार का फंगस उपसर्ग है। योनिपथ में एक सफेद पर्त सी जम जाती है, जिसे हटाने पर दाने दिखाई देते हैं। इस कवक का नाम कैंडिडा अल्वीकेंस है। इस व्याधि में दाह, वेदना, कंडु तथा स्राव होता है। मायकोस्टेटिन सपॉज़िटरी से लाभ होता है।
इसी प्रकार हीमोफीलस वैजाइनैल के उपसर्ग से भी योनिशोथ होता है। इसमें टेरामाइसीन से लाभ होता है:
(३)�� सपूय योनिशोथ-गॉनोकॉकस, स्टैफिलो और स्ट्रेप्टोकॉकस जीवाणुओं के कारण योनिशोथ होता है। इसमें कंडु, दाह, तथा वेदना होती है और पुयस्राव होता है। सल्फा तथा ऐंटिबायोटिक औषधियों से तुरंत लाभ होता है।
(4)� जराजन्य योनिशोथ-रजोनिवृत्ति के पश्चात् एस्ट्रोजेन की कमी से तथा योनि श्लेष्मलकला में रक्त की कमी से, व्रर्ण उत्पन्न होते हैं तथा उपसर्ग के लिये योनि सुग्राही हो जाती है। एस्ट्रोजेन के प्रयोग से लाभ होता है।
(5)� मृदु शेंकर (ब्रण)-यह डूक्रे के जीवाणु का उपसर्ग है। यह रतिज रोग है। योनि में रक्त के दाने होते हैं तथा लसिकपर्वी में शोथ उत्पन्न होता है। सल्फा तथा ऐंटिबायोटिक औषधियों से लाभ होता है।
(6)� कठोर शेंकर (ब्रण)-यह रतिज उपसर्ग स्काइरोकीटा पेलेडा से होता है। इसे सिफलिस कहते हैं। प्राय: अघुभगोष्ठ तथा कभी कभी योनि में एक दाना दिखाई देता है, जो काफी बड़ा होता है तथा फिर ब्रण में बदल जाता हैं। इसकी चिकित्सा आर्सेनिक एवं पेनिसिलीन से की जाती है।
अभिघातज व्याधियाँ
(१)�� कभी कभी गिरने से, या कुप्रसव के कारण, योनिपथ विदीर्ण हो जाता हैं, अत: सिलाई करने से तथा व्रण-रोण चिकित्सा से लाभ होता है।
(2)� युर्थ्रेाोसील तथा सिस्टोसील-योनिपथ की पूर्वी दीवार प्रसव के सतत अधातों से, या जन्मजात कमजोर होने से, ढीली हो जाती है। यह दीवार मूत्रनलिका को, या मूत्राशय को लेकर योनि में लटकने लगती हैं तथा खाँसने आदि में योनि में उभार अधिक होता हैं। कभी कभी रोगवृद्धि होने पर मूत्राशय में रुकावट तथा कष्ट होने लगता है। इसकी शल्य कर्म से चिकित्सा की जाती है।
(3)� रेक्ओसील-योनिपथ की पश्चिमी दीवार प्रसव के आधातों से ढीली होकर मूत्राशय को साथ लेकर योनि में लटकने लगती है इसकी शल्यकर्म द्वारा चिकित्सा की जाती है।
(4)� मूत्राशय-योन नाड़ीव्रण (fistula)-मूत्राशय का निचा हिस्सा प्रसव के समय आधात से, अथवा दुर्दभ्य अर्बुद से विदीर्ण हो जाता है और मूत्र हर समय योनिपथ से टपकता रहता है। निदान के लिये कैथेटर से मूत्राशय में कोई रंग डाल दिया जाता है तथा नाड्व्ऱीाण के बाह्य मुख से इसे निकलता देखा जा सकता हैं। शल्यचिकित्सा द्वारा यह रोग साध्य है।
शल्यज विधियाँ
विधिविरुद्ध गर्भपात से, या बालिकाओं के खेलते समय, अन्य कारणों से योनिपथ में बाह्य वस्तु (शल्य) रह जाने के कारण, वेदना, ज्वर, स्राव आदि होने लगते हैं। इसकी चिकित्सा शल्यर्निरण और व्रणरोपण है।
अर्बुद
(१)�� प्राइ्व्राामायोमाटा-यह पेशी और तांतवी धातु का सुदम्य अर्वुद है, जो योनि में उभार सा बनाता है तथा मैथुन में कष्ट देता है, परंतु साधारणत: नहीं होती है। इसकी चिकित्सा शल्यकर्म द्वारा होती है।
(2)� कार्सिनोमा-गर्भाशय, या गर्भाश्य ग्रीवा के कार्सिनोमा के बाद यह गौण रूप में होता है। छोटे छोटे दुर्दम अर्बुद होते हैं। संभोग, या योनिप्रक्षालन के बाद स्राव होता है, पूयजल स्राव, असहनीय वेदना तथा मलाशय, मूत्राशय की दीवार, कष्ट होने पर योनि से मलमूत्र का त्याग होता है। इसकी चिकित्सा में संपूर्ण जननांगों को शल्यकर्म द्वारा निकाल देना पड़ता है। तथा रेडियम, एवं गंभीर एक्स किरणें दी जाती है।
(3)� कोरियन इपिथोलियोमा- यह अर्बुद बहुत कम होता है। हिमोटोमा की भाँति यह बैंगनी (purple) रंग का दुर्दभ्म अर्बुद है। इसमें गर्भिणी परीक्षण आस्यात्मक होता है। रेडियम तथा गंभीर एक्सकिरण द्वारा चिकित्सा की जाती है। योनि में यदा कदा कैंसर की तरह सार्कोमा भी होता है।
(4)� योनि पुटी (cyst)-साधारणतया योनि में कोई ग्रथि, या लसपर्व नहीं होता है, फिर भी कहीं लघु रूप पुटी में रहते हैं, जिनसे पुटी बनती है, जिनमें पानी भरा रहता है। वुल्फियन डक्ट के अवशिष्टों से भी पुटी बनती है। यह वेदनारहित उभार है तथा शल्यकर्म द्वारा निकाल दिया जाता है।
[ प्रेमवती तिवारी तथा लक्ष्मीशंकर विश्वनाथ गुरु]