यूनियन पब्लिक सर्विस कमिशन (केन्द्रीय लोकसेवा आयोग ) शासन के सामान्य कार्यकारी अधिकार को राजनीति दबावों से स्वतंत्र रहने के लिए, भारतीय संविधान में कपियत अभिरक्षणों का विधान है । यह आयोग उसी अभिरक्षक कोटि की एक संस्था हैं ।

इसके संस्थापन का आरंभ उन दिनों हुआ जब १९१९ में तत्कालीन अंग्रेजी शासकों ने भारत के लियें स्वागत शासन की आवश्यकता स्वीकार की । ५ मार्च, १९१९ के भारतीय वैद्यानिक सुधार विषयक प्रथम प्रेषणापत्र में कहा गया :

अधिकार राज्यों में, जहाँ स्वायत शासन की स्थापना हो चुकी हैं, इस बात की आवश्यकता अनुभूत की जाती हैं कि सार्वजनिक सेवाओं को राजनीतिक प्रभावों से सुरक्षित रखना चाहिए, और उसके हेतु एक ऐसा स्थायी कार्यालय स्थापित किया गया है जो विविध सेवाओं का नियंत्रण करता है। हम लोग इस समय भारत में ऐसे सार्वजनिक सेवा आयोग की स्थापना के लिये उद्यत नहीं हैं, परंतु हम देख रहे हैं कि ये सेवाएँ,श् क्रम से, अधिकाधिक मंत्रियों के नियंत्रण में आती जाएँगी, जिसके कारण यह उचित है कि इस प्रकार की संस्था का आरंभ किया जाय।

१९१९ के भारतीय शासन विधान में इस भावना की व्यावहारिक अभिव्यक्ति मिलती है। उसमें एक सार्वजनिक सेवा आयोग की स्थापना का विधान था जिसकी सेवाओं के लिये पदाधिकारियों की भर्ती, भारत की सार्वजनिक सेवाओं का नियंत्रण तथा ऐसे अन्य कर्त्तव्य होंगे जिनका निर्देश सपरिषद भारत सचिव करेंगे। परंतु उस आयोग की स्थापना तत्काल नहीं हुई। १९२३ में, लॉर्ड ली के नेतृत्व में, ए एक रॉयल कमिशन नियुक्त हुआ, जिसको भारत उच्च सेवाओं के ऊपर विचार एवं विवरण प्रस्तुत करना था। उस कमिशन ने, अपने २७ मार्च, १९२४ के विवरण में, तत्काल उस लोक सेवा आयोग की स्थापना की आवश्यकता पर विशेष बल दिया, जिसका १९१९ के विधान में संकेत किया गया था। उसका प्रस्ताव था कि उक्त आयोग के निम्नलिखित चार मुख्य कार्य होंगे:

(१)�� सार्वजनिक सेवाओं के लिये कर्मचारियों की भर्ती।

(२)�� सेवाओं में प्रविष्ट होनेवाले व्यक्तियों की योग्यताओं का विधान तथा उचित मान स्थिर करना,

(३)�� सेवाओं के अधिकारों की सुरक्षा करना तथा नियंत्रण एवं अनुशासन की व्यवस्था करना, जो लगभग न्यायविधान की कोटि का कार्य है।

(४)�� सामान्य रूप से सेवा संबंधी समस्याओं पर परामर्श एवं अनुमति देना।

उस लोकसेवा आयोग की स्थापना १९२६ के अक्टूबर मास में हुई। एक नियमावली बनाई गई जिसमें इस बात का विधान था कि अखिल भारत की प्रथम और द्वितीय श्रेणियों की सेवाओं के, उन प्रतियोगिता परीक्षाओं के पाठ्यक्रमों के निर्धारण जिनके द्वारा कर्मचारियों का निर्वाचन हो, उक्त सेवाओं के लिये पदोन्नति, अनुशासनीय कार्य, वेतन, भत्ते, पेंशन, प्रॉविडेंट फंड एवं पारिवारिक पेंशन विषय आदि मामलों में सरकार उससे परामर्श ले। किसी मिसी वर्ग विशेष या सभी सेवाओं के नियमाधार तथा छुट्टी आदि के नियमों के प्रश्नों पर भी सरकार उक्त आयोग से परामर्श करेगी।

उक्त नियमावली में आयोग के लिये जो नियम निर्दिष्ट किए गए थे उनका सुधार तथा स्थायीकरण उसे श्वेतपत्र के द्वारा हुआ जिसमें वैघानिक सुधारों के लिये ऐसे प्रस्ताव थे जिनके अनुसार प्रत्येक सूबे के लिये भी आयोगों की स्थापना करने का विधान था। उन सभी प्रतियोगिता परीक्षाओं की वयवस्था करना जिनके द्वारा पदाधिकारियों का चुनाव हो, केंद्रीय तथा सूबे के आयोगों का कर्त्तव्य बतलाया गया। सरकार को आयोगों से इसका भी परामर्श करना था कि सेवाओं के लिये, किस प्रकार चुनाव के द्वारा नियुक्ति हो, पदोन्नति कैसे किए जाएँ, एक विभाग से दूसरे विभाग मे स्थानांतरण कैसे किए जाएँ, आदि।

उक्त श्वेतपत्र में यह प्रस्ताव भी किया गया था कि सरकार कोश् आयोगों से भिन्न विषयों पर भी परामर्श लेना चाहिए:

(क) अनुशासनीय कार्य,

(ख) यदि किसी पदाधिकारी के विरूद्व कोई अभियोग चलाया गया हो तो उसके रक्षाविषयक व्यय की सरकार द्वारा पूर्ति।

(ग) समय समय के अधिनियमों के अनुसार उठे हुए अन्य प्रश्न।

१९३५ के भारतीय विधान के परिच्छेद २६६ में, उपर्युक्त प्रस्तावों को स्थायी रूप दिया गया। उसमें लोक सेवा आयोगों के कर्त्तव्यों को स्पष्ट रूप से निर्धारित कर दिया गया। यह कहा जा सकता है कि उक्त विधान के द्वारा ही आयोगों की अंतिम एवंश् स्थायी रूप में रचना की गई थी। आज के केंद्रीय अथवा राज्यों के आयोग का संगठन, रूप एवं आधार, सब उसी पर अवलंबित हैं।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३१५ से ३२३ तक में इसका विवरण है कि आयोगों का कैसे संगठन हो, आयोगों की स्वतंत्रता के हेतु क्या क्या अभिरक्षण हो, और इनके कार्य क्या क्या हैं।

उनका संक्षिप्त वर्णन यह है:

नियम ३१५ के अनुसार एक केंद्रीय लोकसेवा आयोग भारत के लिये और प्रत्येक राज्य का अथवा दो या अधिक राज्यों का एक एक लोकसेवा आयोग होगा। नियम ३१६ के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा केंद्रीय लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष तथाश् सदस्यों की नियुक्ति होगी। सदस्यों में से आधे ऐसे व्यक्ति होने चाहिए जिन्होंने न्यूनतम दस वर्षो तक सरकारी पदाधिकारिता की हो।

सदस्यों की नियुक्ति छह वर्षो के लिये होगी, परंतु ६५ वर्ष की अवस्था होते ही वे अवधि के पूर्व भी पद से अलग हो जाएँगे। किसी सदस्य की पुर्ननियुक्ति नहीं होगी। परंतु भूतपूर्व सदस्य आयोग का अध्यक्ष नियुक्त हो सकता है। अध्यक्ष अथवा सदस्य, अपने पदों से अलग होने पर, फिर केंद्रीय अथवा राज्य सरकारों के किसी पदाधिकार के लिये अधिकारी नहीं होंगे। अध्यक्ष अथवा सदस्यों को अवधिकाल के अभ्यंतर अनाचार के आधार पर, केवल राष्ट्रपति पदों से अलग कर सकते हैं जिसके लिये उन्हें सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कार्ट) से परामर्श कर लेना चाहिए।

अनुच्छेद ३२० में केंद्रीय सार्वजनिक सेवा आयोग के कर्तव्यों का निर्देश है। सारत: वे हैं- भारत सरकार के पदों की नियुक्तियों के अर्थ प्रतियोगिता परीक्षाओं का संचालन, नियुक्तियों के लिये पात्र अभ्यर्थियों को समालाप (इंटरव्यू) के लिये चुनना, सरकार को उन सभी विषयों पर परामर्श देना जिनका संबंध पदनियुक्तियों के अर्थ भर्ती करने से हो अथवा उन सिद्धांतों से हो जिनके अनुसार नियुक्ति, पदोन्नति, पदांतरण किया जाता है, अनुशासनीय कार्यो से हो, अभ्यथियों की युक्तता से हो, पदाधिकारियों की उन व्ययपूर्तियों से हो जो उन्होंने आत्मरक्षार्थ उन अभियोगों में किए हों जो उनके पद संबंधी कर्त्तव्यपालन से उठे हों, तथा उस राशि के निर्धारण से हो जो पदाधिकारियों को क्षतिपूर्ति के विचार से, कर्त्तव्यपालन के अभ्यंतर क्षत होने के कारण विशेष पेंशन के रूप में दिया जाना चाहिए। संविधान के ३२१वें अनुच्छेद के अनुसार राष्ट्रपति आयोग की, संमति तथा परामर्श के लिये, कुछ अर्धसरकारी नियुक्तियों के विषय भी दे सकते हैं। इस कोटि में दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन नगर निकाय-के उच्च पद तथा ऐसे अन्य पद संमिलित हैं।

जिन पदों की नियुक्तियाँ स्पष्ट रूप से राष्ट्रपति द्वारा की जाने की हैं, जैसे उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश, परराष्ट्र के लिये राजदूत, हाई कमिश्नर आदि, वे उक्त आयोग के कार्यक्षेत्र के बाहर रखे गए हैं। श्रेणी ३ और ४ के अंतर्गत के पद भी इसके कार्यक्षेत्र में नहीं हैं।

प्रथम तथा द्वितीय श्रेणी के पदों की नियुक्तियाँ सामान्यत: इस आयोग के द्वारा ही की जाने की हैं जिन्हें राजपत्रित पद (गजेटेड पोस्ट) कहा जाता है। परंतु ऐसे पदों में से भी उनकी नियुक्तियाँ आयोग के परामर्श के बिना सरकार कर सकती है, जो गोप्य कोटि की है अथवा जिनके लिये सरकार के समक्ष विशेष आधार है।

श्रेणी १ और २ के पदाधिकारियों के विरुद्व गंभीर अनुशासनीय कार्यवाही, जैसे पदच्युत करना, पदावनति करना, वेतनवृद्धि के क्रम को रोक देना, आयोग की अनुमति बिना नहीं की जा सकती। उक्त श्रेणी के पेंशन प्राप्त अधिकारी कीश् पेंशन भी आयोग की अनुमति के बिना नहीं रोकी जा सकती। लोकसेवा आयोग के कार्यो तथा कर्तव्यों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आयोग का मुख्य कार्य केंद्रीय सेवाओं के लिये योग्य व्यक्तियों की भर्ती करना है, जिसके लिये वह प्रतियोगिता परीक्षाओं का संचालन करता है, अभ्यर्थियों का इंटरव्यू करता है और विभिन्न क्षेत्रों के लिये विशेष योग्यता एवं क्षमता की जाँच करता है।

इसके द्वारा प्रमुखत: निम्नलिखित प्रतियोगिता परीक्षाएँ संचालित होती हैं।

(१)�� आई. ए. एस. तथा एलाइड सेवा परीक्षा (भारतीय प्रशासन सेवा तथा संलग्न सेवा परीक्षा),

(२)�� संयुक्त (कंबाइंड) इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा,

(३)�� राष्ट्रीय रक्षा विद्यालय, भारतीय सैनिक विद्यालय, सैनिक सेवाओं के लिये दीक्षार्थियों के प्रशिक्षण तथा वायुसेना विद्यालय में प्रविष्ट करने के लिये परीक्षाएँ,

(४)�� आशुलिपिकारों एवं टंकणकारियों की परीक्षाएँ,

(५)�� सहायक श्रेणी की परीक्षा तथा

(६)�� गणक श्रेणी की परीक्षा।

उपर्युक्त परीक्षाओं में आई.ए.एस.-अखिल भारतीय प्रशासन सेवा परीक्षा का विशेष स्थान है, जिसके द्वारा देश के उच्च प्रशासकीय पदों तथा राजपदों के लिये विभिन्न विश्वविद्यालयों के स्नातकों से नवनीत जैसे योग्यतम व्यक्तियों को चुना जाता है। उक्त परीक्षा से लगी हुई इंटरव्यू पद्धति है। लिखित तथा इंटरव्यू दोनों ही का मानदंड बहुत ऊँचा रखा जाता है। इस परीक्षा के लिये वय की अवधि २१ से २४ वर्ष और निम्नतम शिक्षा योग्यता स्नातक होना है।

उपर्युक्त परीक्षाओं के अतिरिक्त सैकड़ों ऐसे पद हैं जिनके लिये केवल इंटरव्यू का प्रयोग किया जाता है।/ ये ऐसे पद हैं जिनके लिये विशेष प्रकार की योग्यता एवं क्षमता की अपेक्षा होती हैं, जिसका अनुमान लिखित परीक्षाओं से नहीं किया जा सकता है।

आयोग को वर्ष में लगभग ८०००० आवेदनपत्रों पर कार्य करना पड़ता है और १०००० से १४००० अभ्यर्थियों का इंटरव्यू करना पड़ता है। ४००० से ६००० विभिन्न सरकारी पदों के लिये उपयुक्त व्यक्तियों का चुनाव होता है।

अध्यक्ष के अतिरिक्त आयोग में सात सदस्य होते है। चुनाव के कार्यों के लिये विभिन्न क्षेत्रों और विभागों से आयोगश् विशेषज्ञों को बुलाता है और उनसे अनुमति लेता है। कभी कभी विश्वविद्यालयों तथा अन्य विशेष संस्थाओं का सहयोग भी लिया जाता है।

केंद्रीय लोकसेवा आयोग का ऊपर जो ऐतिहासिक विकास, संगठन, तथा कार्याधिकारों का विवरण दिया गया है उससे दो प्रमुख विषय सामने आते हैं। पहला यह है कि भारतीय क्षेत्र के लिये, जिसमें संघीय प्रदेश भी सम्मिलित हैं, अधिकारियों का जो चुनाव होता हैं, उसमें योग्यता और क्षमता केश् अतिरिक्त अन्य किसी विचार का प्रभाव नहीं आने पाता। इससे सरकार भी प्रजातंत्रीय पद्धति के इस आधारभूत सिद्धांत को कि सभी योग्य नागरिक राजकीय सेवा का प्रभाव नहीं आने पाता। इससे सरकार की प्रजातंत्रीय पद्धति के इस आधारभूत सिद्धांत को कि सभी योग्य नागरिक राजकीय सेवा का अवसर प्राप्त कर सकते हैं, कार्य रूप देने में सुविधा एवं सुगमता मिलती है। इसके होने से नियुक्तियों से विशेष विचार अथवा पक्षपात आदि के दुर्गुणों का निराकरण हो जाता है। इसकी संभावना नहीं रह जाती कि किसी को कोई उच्च पदाधिकार पारितोषिक रूप में अथवा प्रतिफल के रूप में प्रदान कर सके।

दूसरा विषय यह है कि इस आयोग से सभी उच्च पदाधिकारयों को अपने कर्त्तव्यपालन में सुरक्षा एवं स्थिरता की भावना का लाभ होता है। उन्हें न किसी राजनीतिक दल का, न किसी श्रेष्ठाधिकारी का भय होता है। नियुक्तिकाल से अवकाश के समय पर्यंत वे निर्भयता से अपने कर्तव्यपालन में लगे रह सकते हैं। आयोग उनके नैतिक बल का प्रेरक और प्रतीक है।

यहीं नहीं, आयोग प्रजातंत्रीय शासन पद्धति का अडिग नैतिक आधार है। उसके सभी सत्यों और न्यायों का यह जैसे स्रोत है वैसे व्यावहारिक साधन भी है। इसके द्वारा प्रजातंत्र को समत्व एवं न्यायकारिता की विशिष्टता मिलती है, जो उसको स्वेच्छाधारी राजतंत्र से श्रेष्ठ प्रमाणित करता है।

लोकसेवा आयोग विधानत: परामर्शदाता मात्र है, परंतु व्यवहार में सरकार इसके निर्णयों को सदा स्वीकार करती है। जब किसी विशेष कारण से सरकार आयोग की किसी संस्तुति को अस्वीकार करती है, तो उसके लिये संविधान के अनुच्छेद ३२३ के अनुसार, उसकी संसद के सामने समाधान करना पड़ता है। इस प्रकार आयोग सरकार को असत एवं न्यायविहीन स्वेच्छाचारिता से मुक्त रखने का एक प्रबल साधन है। प्रजातंत्रीय शासन के कौशल का यह अचल स्तंभ ही नहीं अपितु अनिवार्य अंग है। [रामप्रसाद पांडे]