युद्धकालिक भूम्यधिकार (Belligerent occupation) शत्रु प्रदेश पर अधिकार या कब्जा उस समय माना जाता है, जब कोई युद्धमान राज्य उक्त प्रदेश पर आक्रमण करके वहाँ पर अपना अधिकार स्थापित कर लेता है, भले ही ऐसा अधिकार या आधिपत्य सर्वथा भिन्न होता है। कारण, कब्जे में दखलकारी राज्य किसी प्रकार की शासनव्यवस्था स्थापित करता है, जब कि आक्रमण में इस प्रकार विजित प्रदेश पर किसी प्रकार की शासनव्यवस्था नहीं स्थापित की जाती। युद्धमान राज्य की सेनाएँ किसी प्रकार का शासन स्थापित करने का प्रयत्न किए बिना ही शत्रु प्रदेश पर धावा बोल सकती हैं; निरीक्षण के उद्देश्यश् से वहाँ के आंतरिक अँचल के किसी स्थान पर शीघ्रता से जा सकती हैं, किसी पुल अथवा शस्त्रागार या रसद आदि को नष्ट कर सकती हैं और अपना उद्देश्य पूरा होने पर शीघ्र ही वहाँ से हट भी सकती हैं।
यदि कोई युद्धमान राज्य संपूर्ण शत्रु प्रदेश पर अथवा उसके किसी एकाध भाग पर अपना अधिकार स्थापित कर लेता है, तो यह माना जायगा कि उसने युद्ध के परम महत्वपूर्ण उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर ली। सैनिक कार्रवाई के लिये वह शत्रु प्रदेश के साधनों का उपयोग तो कर ही सकता है, इस प्रकर वह शत्रु को शांति की अपनद शर्तें स्वीकार कराने के लिये विवश कर सकता है।
प्राचीन काल में कोई युद्धमान राज्य यदि शत्रु प्रदेश पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता था तो ऐसा माना जाता था कि उक्त क्षेत्र हर प्रकार से उसकी राजकीय संपत्ति है और इस कारण उसके साथ तथा उसके निवासियों के साथ मनमाना व्यवहार करने का अधिकार उसे प्राप्त है। वह शत्रु प्रदेश को विनष्ट कर सकता था, उसकी सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत संपत्ति का स्वायत्तीकरण कर सकता था, उसके निवासियों की हत्या कर डाल सकता था या उन्हेंश् गिरफ्तार कर सकता था। वह शत्रु प्रदेश को किसी अन्य तीसरे राज्य को भी अर्पित कर दे सकता था। परंतु १८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस स्थिति में क्रमश: परिवर्तन होने लगा और केवल सैनिक अधिपत्य एवं शत्रु प्रदेश पर वास्तविक आधिपत्य के बीच अंतर पूर्णतया स्पष्ट हो गया। १९वीं शताब्दी के अंत तक आधिपत्य या अधिकार संबंधी नियमों का अत्यधिक विकास हो गया और वह बात स्वीकार कर ली गई कि शत्रुप्रदेश पर विजेता को संप्रभुता का कोई अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता, वरन् अल्पकाल के लिये उसे सैनिक अधिपत्य मात्र प्राप्त होता है।
आधिपत्य की समाप्ति - आधिपत्य स्थापित करनेवाला राज्य जब अधीन प्रदेश से स्वयं हट जाता है अथवा जब वह वहाँ से बाहर खदेड़ दिया जाता है, तो आधिपत्य या कब्जा समाप्त हो जाता है। आधिपत्य स्थापक के सामान्य अधिकार और कर्तव्य - कब्जा करनेवाला देश विजित प्रदेश पर शासन का अस्थायी अधिकार प्राप्त कर लेता है; परंतु जब तक युद्ध चलता रहता है, तब तक वह न तो उसका अनुबंधन कर सकता है और न उसे स्वतंत्र राज्य का रूप दे सकता है तथा न राजनीतिक उद्देश्य से उसे दो प्रशासनिक भागों में विभक्त ही कर सकता है। अपनी सेना की सुरक्षा के लिये और युद्ध के उद्देश्य की पूर्ति के लिये उसे प्राय: अबाध सता प्राप्त है, परंतु अधीन प्रदेश पर उसकी संप्रभुता न होने के कारण उसे वहाँ के कानूनों में परिवर्तन करने का कोई अधिकार नहीं है। उक्त प्रदेश में जो कानून लागू हों और शासन के जो नियम प्रचलित हों, उन्हीं के अनुसार उसे उक्त प्रदेश का शासन प्रबंध चलाना चाहिए। सार्वजनिक शांति और सुरक्षा का उसे समुचित प्रबंध करना चाहिए, जनता की व्यक्तिगत संपत्ति और उसके जीवन का, जनता के धार्मिक विश्वासों का ओर उसकी स्वतंत्रता का उसे आदर करना चाहिए।
आधिपत्य स्थापक राज्य का अधीन प्रदेश की सैन्य आधिपतय होता है, अत: वहाँ के निवासी सामरिक विधान याने फौजी कानून के अंतर्गत रहते हैं और उन्हें उसके आदेशों का पालन करना होता है। वह उनसे किसी भी वस्तु की माँग कर सकता है, किसी भी प्रकार की सेवा देने के लिये उन्हें विश कर सकता है, जैसे, पुलों और मकानें आदि की मरम्मत कराना। परंतु 'हेग' के नियमों के अनुसार उसे इन नागरिकों को इस बात के लिये विवश करने अथवा अपने राज्य की सेना के संबंध में या उसके सुरक्षा साधनों के संबंध में कोई सूचना प्रदान करें।
'सैनिक कार्रवाई में सम्मिलित होने' का अर्थ कुछ विवादास्पद हो सकता है और युद्धमान राज्यों ने अपने प्रचलन द्वारा 'सैनिक कार्रवाई' और 'सैनिक तैयारी' के बीच कुछ भेद स्थापित कर रखा है। यह भेद अस्पष्ट है और इसका दुरूपयोग संभव है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय, हालैंड पर आधिपत्य स्थापित करनेवाले जर्मन अधिकारियों ने ऐसा प्रकट किया कि वे युद्धमान राज्यों के आधिपत्य संबंधी नियमों का पालन करेंगे। समुद्रीतटवर्ती सुरक्षा पंक्ति और युद्धपोतों आदि के निर्माण के उद्देश्य से उन्होंने इस भेद का उपयोग किया। परंतु जब सन् १९४९ के जेनेवा के नागरिक अनुबध ने इस संबंध में पर्याप्त रूप से स्थिति स्पष्ट कर दी है।
१९४९ का जेनेवा अनुबंध- इस अनुबंध के अनुसार दखलकारी राज्य अधीन राज्य के निवासियों को अपनी सेना में भरती होने के लिये विवश नहीं कर सकता। अनुबंध में विस्तार से बताया गया है कि आधिपतय स्थापक राज्य विजित प्रदेश के निवासियों से किस किस प्रकार का काम ले सकता है। १८ वर्ष से कम उम्र के किसी व्यक्ति को काम करने के लिये वह विवश नहीं कर सकता और विजित प्रदेश के १८ वर्ष से अधिक उम्रवाले निवासियों से भी वह ऐसे ही काम ले सकता है, जो या तो आधिपत्य स्थापक राज्य की सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये या विजित प्रदेश को जनता के भोजन, निवास, वस्त्र, यातायात, परिवहन या स्वास्थ्य के लिये आवश्यक हैं (धारा ५१)। विजित प्रदेश से बाहर किसी अन्य क्षेत्र में काम करने के लिये उन्हें आदेश नहीं दिया जाना चाहिए। उन्हें उपयुक्त मजदूरी देनी चाहिए और ऐसा काम दिया जाना चाहिए जो उनकी शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमता तथा योग्यता के अनुरूप हो।
अनुबंध ने आधिपत्य स्थापक सत्ता का यह कर्तव्य निर्धारित किया है कि वह विजित प्रदेश की जनता को भोजन और दवादारू संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करे। जनता की व्यक्तिगत संपत्ति तथा राज्य की अथवा सार्वजनिक अधिकारियों की चल तथा चचल संपत्ति नष्ट करने का स्पष्ट निषेध कर दिया गया है। हाँ, सैनिक काररवाई के लिये यदि कभी ऐसा करना अनिवार्य हो, तो उसके लिये छूट रखी गई है।श्श् [लक्ष्मीनारायण टंडन]