युग काल के अंगविशेष के रूप में युग शब्द का प्रयोग ऋग्वेद से ही मिलता है (दश युगे, ऋग्० १।१५८।६) इस युग का परिमाण अस्पष्ट है। ज्यौतिष-पुराणादि में युग के परिमाण, युगधर्म आदि की सुविशद चर्चा मिलती है।

वेदांग ज्योतिष में युग का विवरण है (१,५ श्लोक) । यह युग पंचसंवत्सरात्मक है। कौटिल्य ने भी इस पंचवत्सरात्मक युग का उल्लेख किया है। महाभारत में भी यह युग स्मृत हुआ है। पर यह युग पारिभाषिक है, अर्थात् शास्त्रकारों ने शास्त्रीय व्यवहारसिद्धि के लिये इस युग की कल्पना की है।

मुख्य लौकिक युग सत्य (=कृत), त्रेता द्वापर और कलि नाम से चतुर्धा विभक्त है। इस युग के आधार पर ही मन्वंतर और कल्प की गणना की जाती है। इस गणना के अनुसार सत्य आदि चार युग संध्या (युगारंभ के पहले का काल) और संध्यांश (युगांत के बाद का काल) के साथ १२००० वर्ष परिमित होते हैं। चार युगों का मान (४०००+३०००+२०००+१००० = ) १०००० वर्ष है;श् संध्या का (४००+३००+२००+१०० = ) १००० वर्ष;श् संध्यांश का भी १००० वर्ष है।

युगों का यह परिमाण दिव्य है। दिव्य वर्ष = ३६० मनुष्य वर्ष है;श् अत: १२००० x360 = 4320000 वर्ष चतुर्युग का मानुष परिमाण हुआ। तदनुसार सत्ययुग = १७२८०००; त्रेता = १२९६०००; द्वापर = ८६४०००; कलि = ४३२००० वर्ष है ईद्दश १००० चतुर्युग (चतुर्युग को युग भी कहा जाता है) से एक कल्प याने ब्रह्मा की आयु १०० वर्ष है। ७१ दिव्ययुगों से एक मन्वंतर होता है।

यह वस्तुत: महायुग है। अन्य अवांतर युग भी है।

युगधर्म का विस्तार के साथ प्रतिपादन इतिहास पुराणों में बहुत मिलता है (दे० मत्स्यपु० १४२-१४४ अ०; गरूड़ १। २२३ अ०; वनपर्व १४९ अ०)। किस काल में यग (चतुर्युग) संबंधी पूर्वोक्त धारण प्रवृत्त हुई थी, इस संबंध में गवेषकों का अनुमान है कि खोष्टीय चौथी शती में यह विवरण अपने पूर्ण रूप में प्रसिद्ध हो गया था। वस्तुत: ईसा पूर्व प्रथम शती में भी यह काल माना जाए तो कोई दोष प्रतीत नहीं होता।

विद्वानोें ने कलियुगारंभ के विषय में विशिष्ट विचार किया है। कुछ के विचार से महाभारतयुद्ध से इसका आरंभ होता है, कुछ के अनुसार कृष्ण के निधन से तथा एकाध के मत से द्रौपदी की मृत्युतिथि से कलि का आरंभ माना जा सकता है। यत: महाभारत युद्ध का कोई सर्वसंमत काल निश्चत नहीं है, अत: इस विषय में अंतिम निर्णय कर सकना अभी संभव नहीं है। [रामशंकर भट्टाचार्य]