याज्ञवल्क्य वैदिक साहित्य में शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा के द्रष्टा हैं। इस संहिता के ४० अध्यायों में पद्यात्मक मंत्र और गद्यात्मक यजु: भाग का संग्रह है। इसके प्रतिपाद्य विषय ये हैं- दर्शपौर्णमास इष्टि (१-२ अ०); अग्न्याधान (३ अ०); सोमयज्ञ (४-८ अ०); वाजपेय (९ अ.); राजसूय (९-१० अ.); अग्निचयन (११-१८ अ.) सौत्रामणी (१९-२१ अ.); अश्वमेघ (२२-२९ अ.); सर्वमेध (३२-३३ अ.); शिवसंकल्प उपनिषद् (३४ अ.); पितृयज्ञ (३५ अ.); प्रवर्ग्य यज्ञ या धर्मयज्ञ (३६-३९ अ.); ईशोपनिषत् (४० अ.)। इस प्रकार यज्ञीय कर्मकांड का संपूर्ण विषय यजुर्वेद के अंतर्गत आता है। किंतु याज्ञवल्क्य का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य शतपथ ब्राह्मण की रचना है। इस ग्रंथ में १०० अध्याय हैं जो १४ कांडों में बँटे हैं। पहले दो कांडों में दर्श और पौर्णमास इष्टियों का वर्णन है। पहले दो कांडों में दर्श और पौर्णमास इष्टियों का वर्णन है। कांड ३, ४, ५ में पशुबंध और सोमयज्ञों का वर्णन है। कांड ६, ९, ८, ९ का संबंध अग्निचयन से है। इन ९ कांडों के ६० अध्याय किसी समय षटि पथ के नाम से प्रसिद्ध थे। दशम कांड अग्निरहस्य कहलाता है जिसमें अग्निचयन वाले ४ अध्यायों का रहस्य निरूपण है। कांड ६ से १० तक में शांडिल्य को विशेष रूप से प्रमाण माना गया है। ग्यारहवें कांड का नाम संग्रह है जिसमें पूर्वर्दिष्ट कर्मकांडश् का संग्रह है। कांडश् १२, १३, १४ परिशिष्ट कहलाते हैं और उनमें फुटकर विषय हैं। सोलहवें कांड में वे अनेक आध्यात्म विषय हैं जिनके केंद्र में ब्रह्मवादी याज्ञवल्क्य का महान् व्यक्तित्व प्रतिष्ठित है। उससे ज्ञात होता है कि याज्ञवल्क्य अअपने युग के दार्शनिकों में सबसे तेजस्वी थे। मिथिला के राजा जनक उनको अपना गुरु मानते थे। वहाँ जो ब्रहम्मविद्या की परिषद बुलाई गई जिसमें कुरु, पांचाल देश के विद्वान भी सम्मिलित हुए उसमें याज्ञवल्क्य का स्थान सर्वोपरि रहा। बुहदारणयकोपनिषद में याज्ञवल्क्य का यह सिद्धांत प्रतिपादित है कि ब्रह्म ही सर्वोपरि तत्व है और अमृत्व उस अक्षर ब्रह्म का स्वरूप है। इस विद्या का उपदेश याज्ञवल्क्य ने अपनी मैत्रेयी नामक प्रज्ञाशालिनी पत्नी को दिया था। शरीर त्यागने पर आत्मा की गति की व्याख्या याज्ञवल्क्य ने जनक से की। यह भी वृहदारझयकोपनिषद का विषय है। जनक के उस बहुदक्षिण यज्ञ में एक सहस्र गौओं की दक्षिणा नियत थी जो ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य ने प्राप्त की। शांतिपर्व के मोक्षधर्म पर्व में याज्ञवल्क्य और जनक (इनका नाम दैवराति है) का अव्यय अक्षर ब्रह्तत्व के विषय में एक महत्वपूर्ण संवाद सुरक्षित है (अ. १९८-३०६, पूना संस्करण)। उसमें नित्य अभयात्मक गुह्य अक्षरतत्व था वेदप्रतिपाद्य ब्रह्मतत्व का अत्यंत स्पष्ट और सुदर विवेचन है। उसके अंत में याज्ञवल्क्य ने जनक से कहा-हे राजन्, क्षेत्रज्ञ को जानकर तुम इस ज्ञान की उपासना करोगे तो तुम भी ऋर्षि हो जाओगे। कर्मपरक यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ है (ज्ञानं विशिष्टं न तथाहि यज्ञा:, ज्ञानेन दुर्ग तरते न यज्ञै:, शांति. ३०६।१०५)।

याज्ञवल्क्य के गुरु आचार्य वैशंपायन थे जिनसे वैदिक विषय में उनका भारी मतभेद हो गया था। भागवत और विष्णु पुराण के अनुसार याज्ञवल्क्य ने सूर्य की उपासना की थी और सूर्यऋयी विद्या एवं प्रणावत्मक अक्षर तत्व इन दोनों की एकता यही उनके दर्शन का मूल सूत्र था। विराट् विश्व में जो सहस्रात्मक सूर्य है उसी महान् आदित्य की एक कला या अक्षर प्रणव रूप से मानव के कंद्र की संचालक गतिशक्ति है। याज्ञवल्क्य का यह अध्यात्म दर्शन अति महत्वपूर्ण है। एक व्यक्तित्व का पाजुष यज्ञ सदा विराट यज्ञ के साथ मिला रहता है। इससे मानव भी अमृत का ही एक अंश है। यही याज्ञवल्क्य का अयातयाम अर्थात् कभी बासी न पड़नेवाला ज्ञान है। भागवत के अनुसार याज्ञवल्क्य ने शुक्ल यजुर्वेद की १५ शाखाओं को जन्म दिया, जो वाजसनेय शाखा के नास से प्रसिद्ध हुई। वे ही उनके शिष्यों द्वारा काणव, माध्यंदिनीय आदि शखाओं के रूप में पसिद्ध हुई (भा. १२।६।९३-७४)। याज्ञवल्क्य ब्रह्मणकालीन प्राचीन आचार्य थे जो वैशंपायन, शाकटायन आदि की परंपरा में हुए और कात्यायन ने एक वार्तिक में उन ऋर्षियों को तुल्यकाल या समकालीन कहा है। (सूत्र ४।३।१०५ पर वार्तिक)। एक दृष्टि से याज्ञवल्क्य स्मृति प्रसिद्ध है। इस स्मृति में १००३ श्लोकश् हैं। इसपर विश्वरूप कृत बालक्रीड़ा (८००-८२५), अपरार्क कृत याज्ञवल्कीय धर्मशास्त्र निबंध (१२वीं शती) और विज्ञानेश्वर कृत मिताक्ष्रा (१०७०-११००) टीकाएँ प्रसिद्ध हैं। कारणे का मत है कि इसकी रचना लगभग विक्रम पूर्व पहली शती से लेकर तीसरी शती के बीच में हुई। स्मृति के अंत:साक्ष्य इसमें प्रमाण है। इस स्मृति का संबंध शुक्ल यजुर्वेद की परंपरा से ही था। जैसे मानव धर्मशास्त्र की रचना प्राचीन धर्मसूत्र युग की सामगीं से हुई, ऐसे ही याज्ञवल्क्य स्मृति में भी प्राचीन सामग्री का उपयोग करते हुए सामग्री को भी स्थान दिया गया। कौटिल्य अर्थशास्त्र की सामग्री से भी याक्ज्ञवल्क्य के अर्थशास्त्र का विशेष साम्य पया जाता है। इसमें तीन कांड हैं आचार, व्यवहार और प्रायश्चित। इसकी विषय-निरूपण-पद्धति अत्यंत सुग्रथित है। इसपर विरचित मिताक्षरा टीका हिंदू धर्मशास्त्र के विषय में भारतीय न्यायालयों में प्रमाण मानी जाती रही है। [(स्व.) वासुदेवशरण अग्रवाल]