यशोवर्मन्१. इसका राज्यकाल ७०० से ७४० ई० के बीच में रखा जा सकता है। यह भी संभ्भावना है कि उसे राज्याधिकार इससे पहले ही ६९० ई० के लगभग मिला हो। यशोवर्मन् के वंश और उसके प्रारंभिक जीवन के विषय में कुछ निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता। केतल वर्मन् नामांत के आधार पर उसे मौखरि वंश से संबंधित नहीं किया जा सकता। जैन ग्रंथ बप्प भट्ट सूरिचरित और प्रभावक चरित में उसे चंद्रगुप्त मौर्य का वंशज कहा गया है किंतु यह संदिग्ध है। उसका नालंदा अभिलेख इस विषय पर मौन है। गउड़वही में उसे चंद्रवंशी क्षत्रिय कहा गया है। गउड़वहो में यशोवर्मन् की विजययात्रा का वर्णन है। सर्वप्रथम इसके बाद बंग के नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार की। दक्षिणी पठार के एक नरेश को अधीन बनाता हुआ, मलय पर्वत को पार कर वह समुद्रतट तक पहुँचा। उसने पारसीकों को पराजित किया और पशिचमी घाट के दुर्गक प्रदेशों से भी कर वसूल किया। नर्मदा नदी पहुँचकर, समुद्रतट के समीप से वह मरू देश पहुँचा। तत्पश्चात् श्रीकंठ (थानेश्वर) और कुरूक्षेत्र होते हुए वह अयोध्या गया। मंदर पर्वत पर रहनेवालों को अधीन बनाता हुआ वह हिमालय पहुँचाश् और अपनी राजधानी कन्नौज लौटा।
इस विरण में परंपरागत दिग्विजय का अनुसरण दिखलाई पड़ता है। पराजित राजाओं का नाम ने देने के कारण वर्णन संदिग्ध लगता है। यदि मगध के पराजित नरेश को ही गौड़ केश् नरेश स्वीकार कर लिया जाय तो भी इस मुख्य घटना को ग्रंथ में जो स्थान दिया गया है वह अत्यल्प है। किंतु उस युग की राजनीतिक परिस्थिति में ऐसी विजयों को असंभव कहकर नहीं छोड़ा जा सकता। अन्य प्रमाणों से विभिन्न दिशाओं में यशोवर्मन्श् की कुछ विजयों का संकेत और समर्थन प्राप्त होता है। नालंदा के अभिलेख में भी उसकी प्रभुता का उल्लेख है। अभिलेख का प्राप्तिस्थान मगध पर उसके अधिकार का प्रमाण है। चालुक्य अभिलेखों में सकलोत्तरापथनाथ के रूप में संभवत: उसी का निर्देश है और उसी ने चालुक्य युवराज विजयादित्य को बंदी बनाया था। अरबों का कन्नौज पर आक्रमण सभवत: उसी के कारण विफल हुआ। कश्मीर के ललितादित्य से भी आरंभ में उसके संबंध मैत्रीपूर्ण थे और संभवत: दोनों ने अरब ओर तिब्बत के विरूद्ध चीन की सहायता चाही हो किंतु शीघ्र ही ललितादित्य और यशोवर्मन् की महत्वाकांक्षाओं के फलस्वरूप दीर्घकालीन संघर्ष हुआ। संधि के प्रयत्न असफल हुए और यशोंवर्मन् पराजित हुआ। संभवत: युद्ध में यशोवर्मन् की मृत्यु नहीं हुई थी, फिर भी इतिहास के लिये उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
यशेवर्मन् ने भवभूति और वाक्पतिराज जैसे प्रसिद्ध कवियों को आश्रय दिया था। वह स्वयं कवि था।श्श् सुभाषित ग्रथों के कुछ पद्यों और रामाभ्युदय नाटक का रचयिता कहा जाता है। उसने मगध में अपने नाम से नगर बसाया था। उसका यश गउडवहो और राजतरंगिणी के अतिरिक्त जैन ग्रंथ प्रभावक चरित, प्रबंधकोष और बप्पभट्ट चरित एवं उसके नालंदा के अभिलेख में परिलक्षित होता है।
कश्मीर से यशेवर्मा के नाम के सिक्के प्राप्त होते हैं। यशोवर्मा के संबंध में विद्वानों ने अटकलबाजियाँ लगाई थीं। कुछ ने उसे कन्नौज का यशोवर्मन् ही माना है। किंतु अब इसमें संदेह नहीं रह गया है कि यशोवर्मा कश्मीर के उत्पलवंशीय नरंश शड़करवर्मन का ही दूसरा नाम था।
सं० ग्रं०- आर० एस० त्रिपाठी:श् हिस्ट्री ऑव कन्नौज; एन० वी० उत्गीकर: गउडवहो।
२. मध्यकालीन चंदेल वंश के हर्ष का पुत्र यशोवर्मन् लक्षवर्मन् के नाम से भी प्रसिद्ध है। उसका राज्यकाल दसवी शताब्दी का द्वितीय चरण था। प्रतिहारों की प्रभुता को बिना छोड़े ही उसने स्वतंत्र शासक की भाँति कार्य किया। चंदेलों के गौरव का वास्तविक आरंभ उसी ने किया और उन्हें उत्तरी भारत की प्रमुख शक्तियों में से एक के रूप में प्रतिष्ठापित किया।
उसका सबसे उल्लेखनीय कार्य कालंजर की विजय थी। कालंजर पर अधिकार के लिये प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों में संघर्ष चल रहा था। यशोवर्मन् ने इसे संभवत: राष्ट्रकूटों के मित्र कलचुरि लोगों से अपने अधिपति प्रतिहारों के लिये छीना हो किंतु उसपर अपना ही अधिकार स्थापित किया हो। धंग के खजुराहों अभिलेख में गौड, खष, कोशल, कश्मीर, मिथिला, मालव, चेदि, कुरू और गुर्जरों के विरूद्ध उसकी सफलता का उल्लेख है। उल्लेख की आलंकारिक भाषा के कारण इन विजयों की ऐतिहासिकता में कुछ संदेह होता है। खजुराहों अभिलेख में उल्लेख है कि अपने अभियानों में उसने यमुना और गंगा को केलिसर बना लिया था। देवपाल, जिससे उसे एक बहुमूल्य विष्णुप्रतिमा प्राप्त हुई थी, सँभ्भवत: उसका प्रतिहार वंशी अधिपति ही था। कुरू प्रदेश प्रतिहारों के अधीन होने के कारण उसपर यशोवर्मन्श् का आक्रमण प्रतिहारों के विरूद्ध रहा होगा। उसने गौड़ पर भी आक्रमण किया। इसी प्रसंग में उसने मिथिला पर विजय प्राप्त की जो इस समय संभवत: एक स्वतंत्र छोटा राज्य बन गया था। उसने कलचुरी नरेश को भी पराजित किया और अपने राज्य की दक्षिणी सीमा को चेदि राज्य की सीमा तक पहुँचा दिया। उसने अपने राज्य की कोशल को भी पराजित किया था। इसी प्रकार उसने अनने राज्य की सीमा मालवा तक पहुँचाई और परमारों की शक्ति को आगे बढ़ने से रोका।
यशोवर्मन् ने एक तड़ाग बनवाया था। विष्णु की प्रतिमा के लिये जो मंदिर उसने बनवाया था वह खजुराहों का चतुर्भुज मंदिर की है। विष्णु के साथ ही उसने शिव और सूर्य के प्रति भी आदर व्यक्त किया है।
चंदेल वेश में एक द्वितीय यशेवर्मन् भीश् हुआ। वह मदनवर्मन् का पुत्र ओर परकर्दिदेव का पिता था। मदनवर्मन् और परमर्दिदेव के राज्यकाल के बीच (११३३-११६४ ई०) उसने कुछ समय तक राज्य किया। उसका शासनकाल महत्वपूर्ण नहीं हैं।
परमार वंश में नर वर्मन् के बाद उसका पुत्रश् यशोवर्मन् ११३३ ई० में सिंहासन पर बैठा। उससे पूर्व ही गुजरात के चोलुक्यों के साथ संघर्ष के फलस्वरूप परमारों की शक्ति को गहरी क्षति पहुँची थी। यशोवर्मन् में उन गुणों का अभाव था जो ऐसी स्थिति में अपेक्षित होते हैं। इसी कारण परमारों को शक्ति का और भी अधिक ्ह्रास हुआ।
मालवा चौलुक्य साम्राज्य में मिला लिया गया। संभवत: बाद में यशोंवर्मन् को सामंत के रूप में मालवा के किसी भाग पर राज्यश् करने का अधिकार मिल गया था।
३. पूर्वमध्यकाल में यशोवर्मन् नाम के शासक कुछ दूसरे राजवंशों में भी हुए थे। गुहिलों में शक्तिवर्मन् के पाँचवें पुत्र कीर्तिवर्मन् का भी नाम यशोवर्मन् था। कल्याण के उत्तरकालीन चालुक्य नरेसश् तैल द्वितीय के द्वितीय पुत्र दश्वर्मन् का भी नाम यशोवर्मन् था। अपने पिता के राज्यकाल में वह प्रांतपाल था। संभवत: उसकी मृत्यु अपने ज्येष्ठ भाई सत्याश्रय के राज्यकाल ही में हो गई थी। सत्याश्रय की मृत्यु के बाद सिंहासन दशवर्मन् या यशोंवर्मन् के ही पुत्रों को प्राप्त हुआ।
यशोवर्मन् नाम भारत के बाहर भी प्रसिद्ध हुआ। प्रचीन कंबुज (कंबोडिया) में यशोवर्मन् नाम के दो नरेश हुए सिंहासन पर बैठने से पूर्व यशोवर्मन् प्रथम का नाम यशोवर्धन था। उसका राज्यकाल ८८९ से ९०२ तक था। उसने कंबुज के गौरव को बढ़ाया।
यशोवर्मन् की अनेक विजयों का अभिलेखों में उल्लेख है। यह भी कहा गया है कि उसने एक समुद्री बेड़ा भेजा। उसने पराजित नृपों को फिर से अधिकार दिया और उनकी पुत्रियों से विवाह किया। किंतु स्पष्ट विवरण के अभाव में इन उल्लेखों का अधिक महत्व नहीं है। उसने साम्राज्य की सीमाओं में कोई विस्तार नहीं किया किंतु उसे वैसा ही बनाए रखा। उसके राज्य की उत्तरी सीमा चीन तक पहुँच गई थी। पूर्व में चंपा से पश्चिम में मेनम और सालवीन नदियों के बीच के पर्वतों तक और दक्षिण में समुद्र तक इसका राज्य फैला था।
उसने यशोधर गिरि (फ्राम बाखोन) पर एक नई राजधानी बसाई जो पहले कंबुपुरी और बाद में यशोधरपुर के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसमें अंकोर थोम का बहुत बडा भाग सम्मिलित था। यह स्थान कंबुज की शक्ति और संस्कृति की स्थापना का उचित श्रेय मिलना चाहिए। यशेवर्मन् के बहुसंख्यक लेखों में इस नई संस्कृति की झलक मिलती है। इन लेखों की भाषा उत्कृष्ट काव्यात्मक संस्कृत है। इनसे ज्ञात होता है कि संस्कृत साहित्य के विभिन्न अंगों का समुचित अध्ययन होता था। विद्वानों को प्रश्रय देने के साथ ही यशोवर्मन् स्वयं उच्चकाटि का विद्वान् था। उसने वामशिव नाम के विद्वान से विविध काव्यों और शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की थी। एक अभिलेख में उसकी तुलना पाणिनि से की गई है और माहाभाष्य पर रची उसकी एक टीका का उल्लेख है। उसके धार्मिक विचार उदार थे। स्वयं शैव होते हुए भी उसने वैष्णव और बौद्ध धर्मों का समान आदर किया। विभिन्र संप्रदायों के लिए उसने पृथक आश्रम बनवाए और उनके लिये उचित व्यवस्था भी की। कला के क्षेत्र की उन्नति आश्रमों के अतिरिक्त तड़ागों और मंदिरों के निर्माण से सिद्ध होती है। उसने राजधानी के उत्तर में एक तड़ाग के बीच एक विहार निर्भित करा कर उसमें अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ स्थापित कीं।
यशोवर्मन् द्वितीय १२वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। उसके समय में भरतराहु संबुद्धि नामके व्यक्ति के विद्रोह ने भीषण रूप लिया किंतु श्रींद्रकूमार ने जो जयवर्मन् सप्तम का पुत्र था उसे दबा दिया। राज्य की शक्ति फिर भी इतनी संगठित थी कि यशोवर्मन् ने श्रींद्रकुमार के नेतृत्व में तो सफलता मिली किंतु श्रींद्रकुमार को विफल होकर लौटना पड़ा। यशोवर्मन् का दूसरा अभियान श्रींद्रकुमार के पिता जयवर्मन्श् के आरम्भ हुआ। किंतु इसी बीच ११६४ ई० में त्रिभुवनादित्य नाम के व्यक्ति ने विद्रोह कर यशेवर्मन् का वध किया और सिंहासन पर अधिकार कर लिया।श् [लल्लन जी गोपाल]