यकृत श्शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है, जो पित्त (Bile) का निर्माण करती है। पित्त, यकृती वाहिनी उपतंत्र (Hepatic duct system) तथा पित्तवाहिनी (Bile duct) द्वारा ग्रहणी (Duodenum), तथा पित्ताशय (Gall bladder) में चला जाता है। पाचन क्षेत्र में अवशोषित आंत्ररस के उपापचय (metabolism) का यह मुख्य स्थान है।
स्वाभावित लक्षण एवं स्थिति - यह लालपन लिए भूरे रंग का बड़ा मृदु, सुचूर्ण एवं रक्त से भरा अंग है। मृदु होने से अन्य अंगों के दाब चिन्ह इस पर पड़ते हैं, फिर भी यह अपना आकार बनाए रखता है। यह श्वासोछवास के साथ हिलता रहता है।श् यकृत के दो खंड होते है, इनमें दक्षिण खंड बड़ा होता है। यकृत पेरिटोनियम (peritoneum) गुहा के बाहर रहता है। यकृत उदरगुहा में सबसे ऊपर डायफ्रााम (diaphragm) के ठीक नीचे, विशेष रूप से दाहिनी ओर रहते हुए, बाईं ओर चला जाता है। स्वाभाविक अवस्था में पर्शकाओं (ribs) के नीचे इसे स्पर्श नहीं किया जा सकता।
आकार - यह पाँच तलवाले नुकीला भाग वाम ओर रहता है। अन्य चार तल ऊर्ध्व, अध:, पूर्व तथा पश्च कहलाते हैं। इसका अध: तल चारों ओर पतले किनारे से घिरा रहता है तथा उदर गुहा के अन्य अंग इस तल से संबद्ध रहते हैं।
माप एवं भार - इसकी दक्षिण-बाम लंबाई १७.५ सेंमी०, अध: ऊँचाई १६ सेंमी० तथा पूर्व-पश्च चौड़ाई १५ सेंमी० होती है। इसका भार शरीर के भार का १/५० भाग के लगभग, प्राय: १,५०० ग्राम से २,००० ग्राम तक होता हैं। शरीर के भार से इसके भार का अनुपात स्त्री पुरूषों में एक ही होता है, परंतु वय के अनुसार बदलता है। बालकों में इसका भार शरीर के भार का १/२० भाग होता है।
पृष्ठ भाग (Surface) - दक्षिण पृष्ट उत्तल और चौकोर होता है। यह डायफ्राॉम से संबद्ध रहता है, जो इसे दक्षिण फुप्फुसावरण और छह निचलीश् पर्शुकाओं से विलग करता है।
उर्ध्व पृष्ठ (Superior surface)- यह दोनों ओर उत्तल तथा मध्य में अवतल होता है। यह डायफ्राॉम द्वारा दोनों फुफ्फस, फुप्फुसावरण तथा ्ह्रदयावरण से विलग हो जाता है।
अग्र पृष्ठ (Anterior surface) -श् यह त्रिभुजाकार होता है। त्रिभुज का आधार दाहिने होता है। इसके सामने उदरीय ऋजु पपेशियाँ (Rectus abdominus), उनका आवरण उदर सीवनी (Linea alba) तथा हँसियाकार स्नायु (Falci form-ligament) रहते हैं।
अध: पृष्ठ (Inferior surface) - यह उत्तलावतल होता है। यह (१) दक्षिण वृक्क, (२) दक्षिण उपवृक्क, (३) वृहदांत्र दक्षिण बंक (Right flexure), (४) पक्वाशय का द्वितीय भाग, (५) पित्ताशय तथा (६) आमाशय से संबद्ध रहता है। ये अंग प्राय: इस पर अपना खाता सा बना लेते हैं।
निर्वाहिका यकृत् (portal hepatics) -श् यह अनुप्रस्थ दिशा में ५ सेंमी० लंबा खाता है। यह यकृत के अध: तल पर रहता है। इसके दोनों ओष्ठ पर लघुता संलग्न रहता है। इसमें ये यकृत् धमनी, निर्वाहिका शिरा (portal vein) एवं नाड़ियाँ यकृत्श् में प्रवेश करती हैं संयुक्त यकृत् वाहिनी और लसिका वाहिनियाँ बाहर निकलती हैं।
पश्च पृष्ठ (psurface osterior) - यह सामने वक्र बनाते हुए रहता है। दाहिने डायफ्रााम द्वारा दक्षिण पर्शुकाआं, दक्षिण फुप्फुस और उसके फुप्फुसावरण (pleura) से विलग किया जाता है तथा दक्षिण अधिवृक्क (supra renal) से संबद्ध रखता है। अध: महाशिरा (inferior venacava) इसमें लंबी खात बनाते हुए जाती है। इस खात के वाम भाग में दक्षिण यकृत खंड का एक और खंड है, जिसे पुच्छिल (caudate) खंड कहते हैं, जो महाधमनी (aorta) केश् वक्षीय भाग डायफ्रााम द्वारा विलग किया जाता है। पुच्छिल खंड वाम खंड से एक विदर द्वारा अलग किया जाता है, जिसमें शिंरा स्नायु (ligamentum venosum) रहता है। इस स्नायु विदर के वाम और वाम खंड के पश्चिम पृष्ठ पर ग्रसिका (oesophagus) खाता रहता है।
पेरिटोनियम के द्विगुणित पर्त इसके स्नायु (ligament) बनातेश् हैं। ये स्नायु हैं: (१)चक्रीय (coronary), (२) हँसियाकार (falciform), (3) गोल (teres), (४) सिरा, (५) वाम एवं दक्षिण त्रिकोण (triangular) स्नायु तथा (६) लघुवपा (lesser omentum)।
पुच्छिल खंड- यह काम ओर शिरा स्नायु के विदार, दक्षिण और अध: महाशिरा विदार ओर निर्वाहिका यकृत के मध्य से होता हुआ दक्षिण खंड से जुडा रहता है, पुच्छिल प्रवर्ध (Caudatte process) कहते हैं। इसके वाम और पुच्छिल खंड का नुकीला भाग अंकुरक प्रवर्ध कहलाता (Papillary process) हैं।
चतुरस्त्र खंड- यकृत अध:पृष्ठ पर दिखाई देता है। इसके वामश् और तंत्र स्नायु विदर तथा दक्षिण ओर पित्ताशय खुला रहता है।
यकृत स्नायुओं, उदरीय अन्त: दाब, रक्त वाहिनियों तथा वायुमंडलीय दाब के कारण अपने स्थान पर स्थित रहता है।
रक्तवाहिनियाँ एवं नाड़ियाँ - १. यकृत धमनी उदरगुहा (coeliac) धमनीश् की शाखा है।
निर्वाहिका शिरा- पाचन तंत्र से पाचित अन्नरसयुक्त रक्त लाती है।
यकृत शिराएँ (Hepatic veins)- रक्त को अध: महाशिराएँ ले जाती है।
लसिकावाहिनियाँ- ये यकृत शिराओं और निर्वाहिका शिरा के साथ जाती हैं। यकृत की अनुंपी (sympathetic) तथा परानुकंपी (parasympathetic) तंत्रिकाएँ सीलक जाती तथा वेगस तंत्रिका से आती हैं। (लक्ष्मीशंकर विश्वनाथ गुरु)