मोलस्का (Mollusca) या चूर्ण प्रावार नरम शरीवाले, खंडरहित, प्राथमिक रूप से द्विपार्श्वीय संमितवाले प्राणी हैं। इनका शरीर प्राय: अपने अंग द्वारा बनाए चूने के कवच के अंद बंद रहता है। साथ ही साथ, उनकी देहभित्ति बढ़कर एक लपेट बनाती है, जिसे प्रावार (Mantle) कहते हैं। इनके शरीर के निचले भाग में एक मांसल अंग होता है, जिसे पाद कहते हैं। इनका डिंभक ऐनेलिडा (Annelida) के ट्रोकोफोर (techophore) लर्वा से मिलता है।

प्रारंभ में मोलस्का के साथ विभिन्न रूपों के अनेक प्राणी संबद्ध थे। इनमें ब्रैकियोपोडा (Brachiopoda), ट्यूनीकाटा (Tanicata) और सिरीपेडिया (Ciripedia) तक थे। जे. वी. टॉमसन (J. Vaughan Thompson) ने परिवर्धन के अध्ययन के आधार पर, इनमें से सबसे पहले सिरीपेडिया को अलग किया और यह बतलाया गया कि सिरीपेडिया क्रस्टेशिया (Crustacea) हैं। परिवर्धन के अध्ययन के पश्चात यह पता चला कि ट्यूनीकाटा पृष्ठवंशी प्रणियों के संबंधी हैं, इसलिये इन्हें भी मोलस्का के पृथक कर दिया गया। ब्रैकियोपोडो एक अरसे तक मोलस्का के साथ रहे, इसलिये कि इनका शरीर भी कवच के अंदर बंद रहता है और यह लैमेलीब्रैकिएटा (Lamellibranchiata) से बाह्य रूप में मिलते जुलते हैं। एच. मिल्ने एडवर्ड (H. Milne Edwards) ने ब्रैकियोपोडा की भी मौलस्का से पृथक कर दिया, जिससे यह समूह अपने आधुनिक रूप में निखर आया।

विशेष रूप से मोलस्का जलचर हैं, परंतु एक ही जाति के प्राणियों में भी रहन सहन के विभिन्न प्रकर के साधन पाए जाते हैं। अधिकांश: ये समुद्री प्राणी हैं। कुछ गैस्ट्रोपोडा (Gastropoda) तथा उनके साथी स्थल पर भी रहते हैं। जल में रहनेवाले मोलस्का में कुछ तल पर चलते फिरते हैं अथवा तल से जुड़े रहते हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो लहरों के विपरीत आसानी से तैर सकते हैं१ इनके अलावा कुछ जल की सतह पर रहते हैं और लहरों के साथ यहाँ वहाँ बहते रहते हैं। स्थल पर रहनेवाले मोलस्का १५,००० फुट की ऊँचाई तक और समुद्र में रहनेवाले २,८०० फैदम की गहराई तक पाए गए हैं। मोलस्का स्वतंत्र रूप से रहनेवाले प्राणी हैं, जो रेंगकर अथवा बिलों में रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। कुछ ऐसे हैं जो वयस्क जीवन में गतिहीन हो जाते हैं, अथवा वातावरण के किसी स्थान से जुड़ जातग हैं और वहीं सारा जीवन व्यतीत कर डालते हैं। गैस्ट्रोपोडा और लैमलीब्रैंकिएटा दोनों में ऐसे उदाहरण मिलते हैं। कुछ सहभोजी (commensal) होते हैं और ऐसिडियन तथा ऐकाइनोडर्म के साथ रहते हैं।

मोलस्का द्विपार्श्वसममित (bilaterally symmetrical) प्राणी हैं यद्यपि इनके कुछ अंग असंयमित होते हैं। शरीर नर्म और खंडरहित होता है। आदर्श प्राणी के प्रमुख अंग हैं: अग्रसर, प्रतिपृष्ठीय पाद और पृष्ठीय आंतरांग पिंडक (visceral mass)। इनका शरीर देहभित्ति के एक मांसल प्रावार से ढँका रहता है। प्रावार ही शरी की रक्षाश् करनेवाले कवच को स्रवित करता है। कवच एक टुकडे का बना होता है (जैसे शंख), या दो टुकडों का (जैसी सीपी), या आठ टुकड़ों का (जैसे काइटन)। स्कैफोपोडा (Scaphopoda) तथा पेलेसिपोडा (Pelecypoda) को छोड़कर सभी मोलस्काओं में सिर पूर्णतया विकसित रहता है उसपर आँखें या स्पर्शंग आदि स्पष्ट होते हैं। शरीर के प्रतिपृष्ठीय भाग में एक मांसल अंग रहता है, जिसे पाद कहते हैं। भिन्न भिन्न श्रेणी के मोलस्का में पाद के भिन्न भिन्न रूप इसलिये होते हैं, क्योंकि उनमें यह भिन्न भिन्न कार्य करता है। किसी में यह रेंगने का कार्य करता है, किसी में खोदने का कार्य करता है, तो किसी में तैरने के काम आता है। सेफैलोपोडा (Cephalopoda) में पाद शरीर के अग्र भाग में सिर के चारों ओर स्थित होता है और आठ, या दस भुजाएँ बनाता है।

पाचन नलिका पूर्ण होता है तथा प्राय: यू (U) आकार की, अथवा कुतलित होती है। मुँह में एक चिपटी पट्टी होती है। इसपर छोटे छोटे नुकीले दाँतो की अनुप्रस्थ पंक्तियाँ होती हैं। यह पट्टी भोजन को रगड़ रगड़कर काटने में काम आती है। इसे रेतीजिह्वा, या रैडुला (Radula) कहते हैं। सीपी इत्यादि पेलेसिपोडा (Pelecypoda) में रेतीजिह्वा नहीं होती है। मलद्वार, प्रावार गुहा में खुलता है। पाचनांगों के साथ ए पांचक ग्रंथी भी होती है जिसे यकृत कहते हैं। किन्हीं किन्हीं में लार गंथियाँ भी होती हैं।

रुधिरवाहिनी तंत्र पूर्णतया विकसित होता है। इनमें एक पृष्ठीय ्ह्रदय होता है, जो ्ह्रदयावरण से घिरा रहता है। ्ह्रदय में एक, या दो अलिंद होते हैं और एक निलय। प्राय: एक अग्र महाघमनी और अन्य रक्तनलिकाएँ होती हैं। श्वसन कार्य गिल, अथवा टैनिडिया, द्वारा होतहा है। किसी किसी में प्रावारगुहा एक फुप्फुस कोष (pulmonary sac) बनाती हैं, जिसके द्वारा श्वसन पूर्ण होता है। प्रावार तथा बाह्यचर्म द्वारा भी ऑक्सीजन अंदर जाती है और कार्बन डाइ आक्साइड बाहर निकलता है।

मलोत्सर्ग के लिये विशेष अंग वृक्क (kidney),या वृकग्रंथि (nephridia) होती हैं। वृक्क एक, अथवा एक या दो जोड़े होते हैं। ये ्ह्रदयावरणी गुहा तथा शिराओं से संबंधित होते हैं। वास्तव में मोलस्का में सीलोम (coelom) बहुत कम हो गया ओर केवल ्ह्रदयावरणी गुहा, वृक्कग्रंथि तथा जननपिंड के अंदर पाया जाता है।

तंत्रिका तंत्र भी इनमें विशेष रूप से विकसित है। पृष्ठीय प्रमस्तिष्कीय गुच्छिकाएँ और प्रतिपृष्ठय अधोग्रासनली गुच्छिकाएँ (sule oesophageal ganglia) होती हैं। ये दोनो एक दूसरे से तंत्रिकाओं द्वारा जुड़ी रहती है। इस तरह ये ग्रसिका के चारों ओर अँगूठी के रूप में पाई जाती हैं। इन गुच्छिकाओं से तंत्रिकाएँ निकलती हैं, जो शरीर के भिन्न भिन्न अंगों को जाती हैं। मोलस्का में ज्ञानेंद्रिया भली भाँति विकसित होती हें। स्पर्श, गंध और स्वाद आदि का इन्हें अच्छा ज्ञान होता है। शरीर संतुलन के लिये विशेष जटिल अंग होते हैं, जिन्हें संतुलन पुटी (Statocyst) कहते हैं। कुछ मोलस्काओं में प्रकाश से प्रभावित होनवाले नेत्रबिंदु और कुछ में पूर्ण विकसित नेत्र होते हैं। इनके एक समूह में ऐसी आँखे पाई जातीं हैं जिनकी रचना बिल्कुल पृष्ठवंशी प्राणियों के नेत्रों की तरह होती हैं।

मोलस्का में अलैंगिक जनन नहीं होता। कुछ तो इनमें उभयलिंगी होते हैं और कुछ निश्चित रूप से पूर्वपुँपक्व (protandric) होते हैं। इनमें जननपिंड पहले अंडाणु बनाता है और बाद में शुक्राणु। अधिकतर मोलस्काओं में नर एवं मादा पृथक पृथक होते हैं। किसी में दो मुख्य जननपिंड होते हैं, किसी में एक। जननपिंड से नलिकाएँ निकलती हैं, जिनसे होकर लिंगकोश (अंडाणु अथवा शुक्राणु) बाहर जाते हैं। प्राय: संसेचन बाहर होता है, पर कुछ मोलस्काओं में संसेचन शरीर के अंदर होता है।

अधिकतर मोलस्का अंडे देते हैं। भिन्न भिन्न मोलस्काओं में अंडों की संख्या भिन्न भिन्न होती हैं। समुद्र में रहनेवाले मोलस्का अधिक संख्या में अंडे देते हैं, इसलिये उनके अंडे समुद्री लहरों के सहारे यहाँ वहाँ बहा करते हैं। कुछ मोलस्का निश्चित पदार्थो में अंडे देते हैं। कुछ अंडों को फीते के रूप में एक साथ चिपका देते हैं। इनमें अंडों की संख्या बहुत कम होती है। ऑस्ट्रिआ (Ostrea) नामक मोलस्का की मादा ६,००,००,००० अंडे देती हे और काइटन (Chiton) की मादा २,००,०००। सेनिया (Cenia) नामक मोलस्का की मादा केवल ४ से १२ अंडे तक देती है। कुछ मोलस्का जरायुज (viviparous) होते हैं, जेसे सुबूलाइना (Subulina)।

मोलस्का के अंडों का विभाजन इस प्रकार होता है कि नई बनने वाली कोशिकओं का भविष्य प्रारंभ से ही निश्चित किया ज सकता है। इस प्रकार के भेदन को परिमित (determinate cleavage) कहते हैं। सेफैलोपीड नामक मोलस्का में विभाजन का ढंग पहले से भिन्न होता है। इसे चक्रिकाम विदलन (discoidal cleavage) कहते हैं। विभाजन के फलस्वरूप लार्वा बनता है, जिसे वेलीजर लार्वा (Velliger larva) कहते हैं। यह ऐनीलिडा के ट्रौकोफोर लार्वा की भाँति स्वतंत्र रूप से तैरनवाला होता है। रूपांतरित होकर यह साधारण रूप धारण कर लेता है।

मोलस्का विभिन्न रूपों और आदतोवाले प्राणी हैं, जो धीरे धीरे रेंगते हैं। ये विभिन्न विस्तार के हाते हैं। कुछ एक मिलीमीटर से भी छोटे होते हैं और कुछ १० इंच तक लंबे होते हैं। बहुत से काइटन आधे से आठ इंच तक के होते हैं। सकैफोपीड एक इंच से कम होते हैं यद्यपि कुछ छह इंच तक के होते हैं। कुछ सीपियों के कवच आधे इंच से लेकर साढ़े चार फुट तक लंबे होते हैं। कुछ का भार बहुत होता है। ट्राईडिनाडैरेसा का वजन ५५० पाउंड होता है। आर्कीट्यूथिस नामक वृहत्त स्क्विड का शरीर २० फुट और स्पर्शाग ३५ फुट लंबा होता है।

कतिपय मोलस्काओं का आर्थिक महत्व भी है। बहुत से ऐसे मोलस्का हैं जिनकी गणना भोज्य जंतुओं में है। सीपी (clams); शुक्ति (oysters) तथा स्क्विड (squids) इनमें प्रमुख हैं। स्वच्छ जल में रहनेवाली कुछ सीपियों के कवच से बटन आदि बनाए जाते हैं। कुछ सीपियों की जाति ऐसी होती है जिनमें मोती बनते हैं। इसी कारण ये अधिक संख्या में पाली जाती हैं। कौड़ी भी एक प्रकार के मोलस्का का कवच है। इसका प्रयोग पुराने समय में पैसों की भाँति होता था। मजदूरी में श्रमिकों को कौड़ियाँश् दी जातीं थीं और इनसे बाजरों में बस्तुएँ खरीदी जा सकती थीं। कुछ घोंघे (smails) ऐसे हैं, जो रोग फैलानेवाले कीड़ों को एक प्राणी से दूसरे तक ले जाते हैं। भेड़ों में यकृत विगलन (liver rot) का रोग फैलानेवाले कृषि को स्लग ही फैलाते हैं। कुछ स्लग (slugs) और घोंघे पौधों को खो हैं। टेरीडो (Teredo) नामक मेलस्का ऐसा है, जो जहाज की लकड़ी में सूराख कर उसमें रहता है।

मोलस्का बहुत दिनों तक बिना भोजन के रह सकते हैं। ठंढ का प्रभाव उनपर गर्मी से कम पड़ता है, कितु प्रयोंगों द्वारा देखा गया है कि हेलिक्स (Helix) १२० सें० तक की गर्मी में जीवित रहता है। कुछ छोटे छोटे गैस्ट्रोपोडा हैं, जो गर्म पानी के कुँडों में रहते हैं। इन कुंडों का ताप ४२ सें० होता है। मोलस्का के लार्वा ३१ सें० और -३ सें पर नष्ट हो जाते हैं।

मोलस्का की आयु प्राय: कम होती है। समुद्र में रहनेवाले स्ट्रेप्टोन्यूरा (Streptoneura) प्राणियों की आय अधिक हाती है। एक प्रयोग में लिटोराइना लिटोरा नामक मोलस्का २० वर्षो तक जीवित रहा। स्वच्छ जल में रहनेवाले मोलस्का आठ वर्षों तक होती है, यद्यपि हेलिक्स पोमैटिया (Helix pomatia) छह वर्ष तक जीवित रहता है। बाकी सब प्राय: एक वर्ष तक जीवितश् रहता है।

मोलस्का में सुरक्षा के लिये अनुकूलन (protecttive adaptation) के अनेक उदाहरण प्राप्त हैं। सतह पर उतरानेवाले प्राणी प्राय: पारदर्शी, रंगविहीन, या हलके नीले रंग के होते हैं। कुछ कवचविहीन मालस्का होते हैं, जो बिल्कुल वातावरण का रंग अपना लेते हैं। हरी वनस्पति के बीच रहनेवाला मोलस्का, हरमिया डैंड्रीटाइका, हरे रंग का होता है। ब्रिफिथ्सिया दूसरा मालस्का है, जो लाल शैवाल (algae) के बीच रहता है, इसलये लाल रंग का होता है।

अब तक मोलस्काओं की लगभग ४५,००० जीवित जातियों की गणना की जा चुकी है। इनमें गैस्ट्रोपोडा सबसे अधिक संख्या में पाए जाते हैं। मोलस्का के फाँसिल पुराजीवी महाकल्प (palaeozoic) के बाद हर स्तर पर मिलते हैं। लगभग ४०,००० फॉसिल स्पीसीज, (fossil species) का तो पता लग चुका है।

मोलस्का समुदाय को पाँच वर्गो में विभाजित किया गया है। ये इस प्रकार हैं: (१) ऐंफीन्यूरा (Amphineura); (२) स्कैफोपोडा (Scaphopoda); (३) गैस्ट्रोडा (Gastropoda); (४) पेलेसीपोडा (pelecypoda) और (५) सेफैलोपोडा (Cephalopoda)

ऐंफीन्यूरा उन मोलस्काओं का समूह है जिनका शरीर द्विपाश्रर्वीय एवं लबा होता हैं। मुँह तथा मलद्वार शरीर के दो सिरों पर होते हैं। इसके प्रावार में अनेक कंटिकाएँ (spicules) होती है जो उपचर्म (cuticle) में धँसी रहती हैं। काइटम (chiton) इसके उदाहरण हैं। इनका कवच आठ हिस्सों का बना होता है। ये समुद्र में रहनेवाले प्राणी हैं। ये समुद्र में लगभग सभी गहराइयों तक में पाए जाते हैं। यह पुराना समूह है, जो ऑर्डोविशन (ordovician) कल्प से पाया जजाता हैं।

स्क्कैफोपोडा द्विपाश्रर्वीय सममितिवाले समुद्र में रहनेवाले मोलस्का हैं, जिनका शरीर तथा कवच आग्र-पश्च (antero-posterior) धुरी में लंबा होता है। ये लगभग बेलनाकार होते हैं और प्रावार की एक पूर्ण नली द्वारा घिरे रहते हैं। इनका सिर अविकसित होता है, आँखें नहीं होती हैं, पाद बेलनाकार और खोदने के लिये बना होता है। ये सब समुद्री प्राणी हैं, जो उथले जल से लेकर १५,००० फुट की गहराई तक पाए जाते हैं। ये कीचड़, या बालू में गड़े रहते हैं और शरीर का पिछला भाग सतह से निकला रहता है। इनके २०० जीवित स्पीशीज़ तथा ३०० फॉसिल स्पीशीज़ की गणना हो चुकी है। डेंटैंलियम (Dentelium) इस समूह क एक विख्यात प्राणी है।

गैस्ट्रोपोडा असममिति व्यवस्थावाले मोलस्का हैं, जिनका शरीर एक ही टुकड़े के बने कवच द्वारा सुरक्षित रहता है। यह कवच साधारणत: सर्पिल आकृति में कुंडलीकृत होता है। इनका पाद लंबा तथा प्रतिपृष्ठीय होता है। इन प्राणियों का सिर पूर्ण विकसित होता है। वास्तव में ये द्विपाश्रर्वीय प्राणी होते हैं, परंतु वयस्क होते होते इनका शरीर १८० घूम जाता है, जिससे यह असममित हो जाते हैं। इस समूह के कुछ प्राणी ताजे जल में, कुछ समुद्र में और कुछ पृथ्वी पर रहते हैं। स्थल पर रहनेवालों में घोंघा एवं स्लग, समुद्री जंतुओं में ्ह्रेल्क (whelk), वारिघोंघ (periwinckle)श् तथा शंख हैं और अलवण जल में रहनेवाले अनेक घोघें हैं।

पेलेंसीपोडा भीतरी और बाहरी सममितिवाले मोलस्का हैं, जिनमें सिर का भाग पूर्णतया विकसित नहीं हाता। इनका प्रावार दाएँ और बाएँ दो भागों में विभाजित रहता है। प्रत्येक भाग कवच का एक टुकड़ा स्रवित करता है। इस तरह शरीर दो टुकडों के बने कवच द्वारा सुरक्षित रहता है। पाद प्रतिपृष्ठीय होता है और खोदने के कार्य के लिये बना होता है। मुख के दोनों ओर एक जोड़ा स्पर्शक (palps) होता है। मस्ल (mussel) औरश् शुक्ति आदि इसी श्रेणी के जंतु हैं, जो समुद्री तथा अलवण जलों में पाए जाते हैं। आर्थिक दृष्टि से इस श्रेणी के जंतु बहुत महत्वपूर्ण हैं।

गेफैलोपोडा (Cephalopoda) पूर्ण सममितिवाले मोलस्का हैं, जिनमें पाद अग्र भाग की ओर होता है और यह पूर्ण विकसित सिर के चारों ओर स्थित संतुलन पुटी में विभाजित हो जाता है। पाद का पश्च भाग एक थैली का रूप धारण कर लेता है, जो प्रावारगुहा से बाहर निकलता प्रतीत होता है। इनमें कवच होता है और नहीं भी होता, किंतु जब यह रहत है तब प्राय: अंद रहता है। केवल नौटिलाई में बाहरी कवच होता है, यह सबसे अधिक विकसित समुद्री मोलस्का है। यह मनुष्य तथा मछलियों का प्रिय भोजन है। अष्टपाद (octtopus), नॉटिलस (nautilus) और स्क्विड (squid) इस श्रेणी के उदाहरण हैं। [सत्यनारायण प्रसाद]