मोतीलाल नेहरू श्का जन्म १८६१ ई० की ६ मई को आगरा में हुआ। वे अपने पिता की अंतिम संतान थे और पिता की मृत्यु के तीन चार मास बाद उनका जन्म हुआ था। उनका लालन पालन उनके बड़े भाई नंदलाल नेहरू ने किया। १२ वर्ष की उम्र तक उन्हें घर पर ही अरबी और फारसी पढ़ाई गई। कानपुर में 'एंट्रेंस' पास करने के बाद उच्च शिक्षा के लिये वे इलाहाबाद के म्योर सेंट्रल कालेज में भर्ती हुए। परीक्षा के समय बी०ए० का परचा बिगड़ जाने से वे ग्रेजुएट होने से रह गए।
'हाइकोर्ट-वकील-परीक्षा' में वे सर्वप्रथम घोषित किए गए और उन्हें स्वर्णपदक मिला। तीन वर्ष तक उन्होंने कानपुर में नवशिक्षार्थी (अप्रेंटिस) के रूप में कार्य किया और फिर बड़े भाई की मृत्यु हो जाने पर वे कानुपर से इलाहाबाद लौट आए। पाँच वर्ष में इलाहाबाद के बड़े वकीलों में उनकी गणना होने लगी।
मोतीलाल जी का पहला विवाह लगभग २० वर्ष की उम्र में लाहौर के एक कश्मीर कन्या से हुआ। एक वर्ष बाद प्रसवकाल में ही उनकी पत्नी और उससे उत्पन्न संतान का निधन हो गया। २२ वर्ष की उम्र में उनका दूसरा विवाह लाहौर के ही एक कश्मीरीश् ब्राह्मण परिवार की पंद्रह वर्षीया कन्या स्वरूपरानी के साथ संपन्न हुआ।
स्वरूपरानी से हुई पहली संतान की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू का जन्म हुआ। सन् १९०० में विजयलक्ष्मी का और तदनंतर छोटी पुत्र कृष्णा का जन्म हुआ।
बीसवीं सदी के प्रथम दशक ने मोतीलाल जी के जीवन में एक बहुत बड़ा मोड़ ला दिया । वे देश की पुकार सुनकर चुप न रह सके और सक्रिय राजनीति में कूद पड़े।
सन् १९०७ में इलाहाबाद में आयोजित प्रांतीय राजनीतिक परिषद् के अध्यक्ष मोतीलाल जी चुने गए। सन् १९०८ में वे पहली बार संयुक्त प्रांत व्यवस्थापिका साथ के सदस्य हुए। सन् १९०९ में वे कांग्रेस महासमिति के सदस्य बनाए गए। सन् १९१६ में श्रीमती एनी वेसेंट द्वारा स्थापित होम रूल लीग की ओर उनका झुकाव हुआ और फरवरी, १९१९ में उन्होंने इलाहाबाद से इंडिपेंडेंट नामक एक अंग्रेजी दैनिक का प्रकाशन प्रारंभ किया।
१९१९ में कांग्रेस द्वारा नियुक्त पंजाब हत्याकांड जाँच समिति के सदस्य के रूप में उन्होंने जो प्रशंसनीय कार्य किया उसके फलस्वरूप वे उसी वर्ष कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत हुए। सन् १९२० के असहयोग आंदोलन में वे अपने पुत्र जवाहरलाल के साथ ही गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें छह महीने की सजा हुई।
१९२३ में उन्होंने स्वराज्य पार्टी का निर्माण किया जिसके अध्यक्ष देशबंधु चित्तरंजन दास हुए और वे स्वयं उसके मंत्री बनें।
आम चुनाव के बाद वे केंद्रीय असेंबली में स्वराज्य पार्टी के नेता बने। १९२४ में असेंबली के अधिवेशनों मे स्वराज्य दल ने मोतलाल जी के नेतृत्व में जो काम किया वह अपनी ऐतिहासिक विशेषता रखता है।
फरवरी, सन् १९२८ में साइमन कमीशन के भारत आने पर कांग्रेस तथा देश के विभिन्न राजनीतिक दलों और जनता ने उसका घोर विरोध और बहिष्कार किया। कमीशन के इस बायकट के साथ कांग्रेस के प्रस्तावानुसार जो सर्वदल सम्मेलन संगठित हुआ, उसने भारत में उत्तरदायी शासन को आधार मान एक संविधान का मसौदा तैयार करने के लिये एक कमेटी का निर्माण किया। मोतीलाल जी इसके अध्यक्ष चुने गए। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में जो औपनिवेशिक स्वराज्य का लक्ष्य रखा उससे कुछ कांग्रेसवादियों में गंभीर मतभेद हो गया और इसका विरोध किया गया। विरोध करनेवालों में जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस प्रमुख थे। इन दोनों का कहना था कि कांग्रेस का अंतिम लक्ष्य औपनिवेशिक स्वराज्य नहीं वरन् पूर्ण स्वतंत्रता होना चाहिए।
सन् १९२८ के अंत में हुए कलकत्ते के कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष मोतीलाल जी थे। कांग्रेस का अगला अधिवेशन १९२९ में लाहौर में हुआ, जिसके अध्यक्ष जवाहरलाल जी निर्वाचित किए गए।
इसके बाद गांधी जी ने सन् १९३० का सत्याग्रह छोड़ दिया। इस सत्याग्रह के कार्यक्रम का संचालन, गांधी जी तथा देश के अन्य नेताओं के सिवा प्रधान रूप से पिता पुत्र मोतीलाल और जवाहरलाल ने ही किया। सत्याग्रह के इस आंदोलन में पहले जवाहरलाल जी गिरफ्तार हुए, उसके बाद मोतीलाल जी। इतना ही नही ं, मोतलाली जी की पत्नी स्वरूपरानी, जवाहरलाल जी की धर्मपत्नी कमला नेहरू, उनकी दोनों पुत्रियाँ विजयलक्ष्मी और कृष्णा, उनके दामाद श्री रणजीत पंडित, प्राय: सभी नाते रिश्तेदारों ने स्वतंत्रता के इस यज्ञ में अपनी अपनी आहुतियाँ डालीं। नेहरू परिवार ने इस देशप्रेम का श्रेय परिवार के मुखिया मोतीलाल जी को ही था।
गांधी जी के शब्दों में मोतीलाल जी की मृत्यु हर देशभक्त के लिये ईर्ष्यास्पद होने चाहिए, क्योंकि देश पर उन्होंने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया और अंत समय तक देश का ही ध्यान करते रहे।
[ सेठ गोविंददास]