मोतियाबिंद वृद्धावस्था में होनेवाला आँखों का रोग है, जो प्राय: ५० या इससे अधिक आयुवाले व्यक्तियों को होता है। यह रोग वृद्धों में अंधता का विशेष कारण है। भारत में यूरोप या अमरीका की अपेक्षा मोतियाबिंद बहुत होता है। कदाचित् तीव्र धूप और प्रचंड उपणता, जो उष्ण कटिबंध प्रदेशें की विशेषता है, इस रोग के कारण हैं। किसी विशिष्ट कारण का अभी तक पता नहीं चला है। यूरोप निवासियों में, जिनको सेना में या अन्यत्र किसी स्थिति में भारत में रहना पड़ता है, मोतियाबिंद भारतीयों की अपेक्षा अधिक होता है। अतएव यही माना जाता है कि कड़ी धूप की चमक इस रोग का विशेष कारण है। आहार में किसी प्रकार की न्यूनता मोतियाबिंद बनने में सहायक कारण मानी जाती है। यह न्यूनता किस प्रकार की है तथा किस विशिष्ट अवयव में होते हैं, यह अभी तक नहीं मालूम हुआ है। हमारे देश के कृषकश् लोग, जिनमें यह रोग सबसे अधिक पाया जाता है, उत्तम संतुलित आहार से वंचित रहते हैं। भारतीय कृषकों का आहार केवल उनका जीवन बनाए रखता है, किंतु स्वास्थ्यावर्धक अवयवों से रहित होता है। ऐसा भोजन कृषकों में मोतियाबिंद की प्रवृति उत्पन्न कर दे तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। असंतुलित भोजन के साथ अन्य कारण मिलकर मोतियाबिंद उत्पन्न कर देते हैं। असंतुलित भोजन के साथ अन्य कारण मिलकर मोतियाबिंद उत्पन्न करने में सहायता करता हो।

प्राय: ५०, वर्ष की आयु में यह रोग अधिक होता है, किंतु इससे पूर्वावस्था के रोगी भी बहुत संख्या में मिलते हैं। इस रोग में नेत्र के लेंस (lens) पर का संपुट (capsule) अपारदर्शी होश् जाता है, जिससे उसके द्वारा प्रकाश किरण पार नहीं जा पाती। इस कारण द्दष्टि के शनै: शनै: घटने की शिकायत लेकर डाक्टर के पास आता है। किसी रोगी को दिन में कम दिखाई देता है, किसी को रात्रि में। अधिकतर रोगियों को मंद प्रकाश में, जैसे संख्या समय, सूर्यास्त के पश्चात्, अधिक दिखाई देता है। किसी किसी रोगी को एक नेत्र में द्विद्दष्टि (दोहरा दिखाई पड़ना) होती है। प्रारंभिक लक्षण ठीक जीर्ण समलवाय के समान होते हैं, किंतु दोनों में अंतर यह है कि मोतियाबिंद का शल्यकर्म कर लेंस को निकाल देने पर रोगी की अदृष्टि आ जाते है, किंतु समलवाय से दृष्टिनाड़ी के तंतुओं की पुष्टि (optic atrophy) हो जाती है और रोगी की द्दष्टि सदा के लिये जाती रहती है।

आजकल इस रोग का सफल शल्यकर्म कर रोगी की द्दष्टि को पूर्ववत् किया जा सकता है और बहुत बड़ी संख्या में सफल शल्यकर्म किए जाते हैं। सरकार ने इन शल्यकर्मों के लिये विशेष प्रबंध किया है। इसपर भी ऐसे व्यक्तियों की बहुत बड़ी संख्या है जो गरीबी के कारण अथवा भय से अपने गाँवों में ही रह जाते हैं और शल्यकर्म के लिये अस्पतालों में नहीं जाते।

किंतु अब भी सतिया लोग कितने नेत्रों को नष्ट करते हैं। वे नोकवाली शलाका को नेत्र में डालकर नेंस को अपने स्थान से हटा देते हैं। लेंस पीछे या नीचे की ओर का चाभ (vitreous) द्रव में गिर पड़ता है। जिनसे नेत्र नष्ट हो जाता है और व्यक्ति अंधा हो जाता है। वृद्धावस्था में अंधता का यह भी एक मुख्य कारण है। सतियों का यह कर्म कानून द्वारा वर्जित होना चाहिए।

लक्षण और चिन्ह - रोगी अपनी द्दष्टि के पूर्णतया लुप्त हो जाने में अथवा मोतियाबिंद के पक जाने में छह मास से लेकर दो वर्ष तक का समय लग सकता है। कुछ रोगियों को दिन में अधिक दिखाई देता है और कुछ को सूर्यास्त के पश्चात्। यह इसपर निर्भर करता है कि लेंस में अपारदर्शिता कहाँ से प्रारंभ हुई, केंद्र से या परिधि पर से। पहली दशा में सूर्यास्त के पश्चात् अधिक दिखाई देगा, जब नेत्र के तारे (pupil) के विस्तार से प्रकाशकिरणें परिधि के पास के भागों में प्रविष्ट हो सकेंगी। दूसरी दिशा में प्रकाशकिरणें नेत्र में लेंस के मध्यभाग में होकर जाएँगी। इस कारण दिन में दिखाई पड़ेगा।

प्रारंभ में जब तक मोतियाबिंद पकता नहीं, तबतक परितारिका (iris) की छाया दिखाई देगी। इसका कारण संपुट के पीछे स्थित लेंस का अभी तक स्वच्छ रहना है, वह पका नही ं है। बाहर से टार्च से तारे पर प्रकाश डालने से परितारिका की छाया उसके पीछे ताल पर देख जा सकती है। इसका कारण लेंस की उत्तलता में असमानता का आ जाना है, जिसके कारण भिन्न व्यासों से किरण के परावर्तन में भिन्न्ता आ जाती है। नेत्रदर्शक द्वारा (opthalscope) नेत्र आभ्यंतर की सुरक्षा कर, अपक्व मोतियाबिंद की सदा परीक्षा कर लेनी चाहिए। केवल नेत्र के धूसर प्रतिवर्तन (greyishh reflex) पर निर्भर न करना चाहिए। वृद्धावसथा में यह प्रतिवर्तन लेंस वस्तु के अपवर्तनांक के बढ़ जाने के कारण सदा उपस्थित रहता है। धूसर प्रतिवर्तन पर निर्भर करने से, जीर्ण समलवायु को मोतियाबिंद समझकर, रोगी को शल्यकर्म के लिये रूकने को कह दिया जाता है। यह इतनी बड़ी भूल है कि इसके परिणामसवरूप रोग की द्दष्टि का संपूर्ण नाश हो जाता है।

मोतियाबिंद के प्रकार- मोतियाबिंद के प्रकार निम्नलिखित हैं:

(१) जन्मजात- यह जन्म ही से होता है। इसका कारण वृद्धिकाल में विटामिन ए की न्यनूतम माना जाता है। ऐसे शिशुओं के दाँतों का इनैमल भी पूर्णतया नहीं बनता।

(२) चोट लगने से उत्पन्न - भुथरे या तीव्र धारवाले अस्त्रों से चोट लगने पर लेंस अपारदर्शी हो जाता है। यह बालकों में बहुत होता है। ऐसा मोतियाबिंद केवल एक नेत्र में होता है। औद्योगिक क्षेत्रों में यह मोतियाबिंद अधिक पाया जाता है।

(३) किरणनजन्य- मोतियाबिंद ताप की अधिकता, पराबैंगनी तथा इंफ्रारेड किरणों, गहन ऐक्स किरण अथवा रेडियम के उपयोंग से उत्पन्न हो जाता है।

(४) ग्रंन्थिविकारों से उत्पन्न हुआ मोतियाबिंद - ऐसे साधारण मधुमेहजन्य मोतियाबिंद है, जिसका कारण अग्म्याशय की लैंगरहैंस की द्वीपिकाओं की पूर्ण क्रिया का न होना है। इसी प्रकार उवटुग्रंथि (thyroid) परावटुग्रंथि तथा पीयूष (pituitary) ग्रंथियों की विकृत क्रियाओं के परिणामस्वरूप भी मोतियाबिंद हो सकता है।

(५) उपद्रवयुक्त मोतियाबिंद- सामान्यतया इसके निम्नलिखित कारण होते हैं:

(क) नेत्र के अर्बुद; (ख) द्दष्टिदोष- अत्यधिक वृद्धिकारी (highly progressive) समीपदृष्टि (ग) रेटिना का पृथक् होना (detachment of retina); (घ) साइक्लाइटिस, आइरिडोंसाइक्लाइटिस और काराइडाइटिस; (च) प्राथमिक रेटिना का ्ह्रास (primary retinal desgeneration); (छ) कॉरॉइड तथा रेटिना का शोथ (chroidio-retinitis) तथा (ज) नेत्र के भेदक आघात, जिसमें शल्य भीतर रहे या निकल जाय।

(६) जराजन्य मोतियबिद (senile cataract)- यह सबसे अधिक होनेवाला प्रकार है। अनेक प्रकारों की उपेक्षा यह मातियाबिंद विशिष्ट प्रकार का है, जो वृद्धावसथा में अंधता का मुख्य कारण हेता है। इसकी सफल चिकित्सा होती है।

(७) पश्चात्श् या अनुचार मोतियाबिंद - यह बाहृा संपुट निष्कासन (extracapsular extraction) का होता है।

चिकित्सा- कोई ऐसी औषधि नहीं है जिससे मोतियाबिंद गली जाए या हिस्से रुक सके, यद्यपि बहुत सी औषधियाँ इसके लिये बाजार में बिकती हैं। सक्कसमेंरीटाइमा साइनेरिया एक विख्यात औषधि है, जो मोतियाबिंद के लिये प्रयुक्त की जाती है, किंतु इसका कोई फल नही है। विटामिन सी की बड़ी दैनिक मात्राएँ, १००० मिलिग्राम तक, प्रयोग की गई हैं, किंतु परिणाम बिल्कुल अनिश्चित रहा है।

सबसे उत्तम और निश्चित चिकित्सा शल्यकर्म है, जिसके द्वारा पक्व अथवा अपक्व मोतियाबिंद निकाला जा सकता है। यदि रोगी की द्दष्टि इतन क्षीण हो गई है कि वह अपन व्यवसाय करने में असमर्थ हो गया है तथा चलना फिरना भी कठिन है, तो शल्यकर्म ही अत्युत्तम उपाय है। शल्यकर्म दो प्रकार से होता है, एक बाहृासंपुट (extra-capsular) और दूसरा अंत:संपुटी (intra-capsular)।श् दूसरी विधि से रोगी को उत्तम द्दष्टि आती है।

शल्यकर्म पूर्व क्रिया- नेत्रश्लेष्मा की अणुपरीक्षा, मूत्रपरीक्षा और ऐल्बुमेन के लिये (शकर मामान्य परीक्षा), (विशेषकर रक्तदाब के लिये तथा खाँसी), या अन्य फुपफुसीय रोगों के लिये, और नेत्रों की प्रकाश प्रतीति तथा प्रकाश प्रक्षेपण (light perception and projection) परीक्षा करना आवश्यक है।

नेत्र की जाँच - नासास्रविका (nasolacrimal) मार्ग का खुला होना आवश्यक है। नेत्रांतर दाब की जाँच अवश्य कर लेनी चाहिए। शल्यकर्म से २४ घंटे पूर्व नेत्र का प्रक्षालन करके पेनिसिलीन विलयन २,५००श् मात्रक प्रति सी० स० की शक्ति के विलयन की दो बूँद प्रति दो दो घंटे पर डालनी चाहिए और शल्यकर्म के प्रात:काल लबण विलयन से धोकर एक प्रतिशत वाला विलयन प्रति ५-१० मिनट पर तीन बार डाला जाता है। प्रोकेन २ प्रतिशत के १.५ सी० सी० और ऐड्रिनेलिन हाइड्रोक्लोराइड १:१००० के ५ बूँद के इंजेक्शन से मोखिकी नाड़ी का अवरोध कर दिया जाता है। तत्पश्चात् रोगी को शल्यकर्मशाला में ले जाकर शल्यक्रिया की मेंज पर लिटा दिया जाता है।

शल्यकर्म- सर्जन (surgeon) पूर्णतया शुद्ध होकर तथा मास्क पहनकर रोगी के सिर की ओर खड़ा होता है और प्रथम सहायक दाहिनी या बाईं ओर। दूसरा सहायक प्रकाश दिखाता है। नेत्र गोलक के पीछे की ओर प्रोकेन और ऐड्रिनेलिन का एक इंजेक्शन दिया जाता है। नेत्र वक्ष्म को काले तांगे के टाँके से स्थिर कर, नेत्रस्पेक्यूलम लगा दिया जाता है। अब रोगी को नीचे देखने को कहा जाता है और ऊर्ध्वदंडिका (superior recttus) को पकड़कर, उसमें पीले रंग का टाँका स्टालार्ड (stallared) विधि से सहज में लगा दिया जाता है।

अब श्लेष्मलकला (conjunctiva) को पकड़कर, नेत्र गोलक को स्थिर कर, ग्रेफ बेधस पत्र से कॉर्निया का छेदन किया जाता है। बेधसपत्र की नेक को कॉर्निया की परिधि पर, क्लोरा के संगम के पास, दाहिने नेत्र में ९ बजे की स्थिति और बाएँ नेत्र में ३ बजे की स्थिति से प्रतिष्ट कर, सीधा जाकर दूसरी ओर की ३ या ९ बजे की स्थिति पर भेदकर, वहाँ से ऊपर को काटते हुए चले आते हैं। कुछ सर्जन १२ बजे की स्थिति तक को काटते हैं और वहाँ से किरेटोम कॉर्लिया की कैंची से छेदन को बढ़ाते हैं। जब छेदन पूर्ण हो जाता है, तो आयरिस संदेश से आयरिस को पकड़कर, छोटा सा भागश् बाहर की ओर को काट दिया जाता है। अब केवल लेंस को निकालना रह जाता है, जिसकी निम्नलिखित दो विधियाँ हैं:

अंत:संपुटी विधि (Intra-capsular Method) इस विधि में संपुटी संदेश को बंद कर, छेदन द्वारा भीतर प्रविष्ट कर, तारे (pupil) के क्षेत्र में पहुँचकर, वहाँ संदेश को तलिक खोलकर, उससे संपुठ को नेत्र के किनारे के पास पकड़कर, धीरे से उलटकर, बाहर खींच लिया जाता है। ताल निष्कांसक (lens exdppresser) से कुछ सहायता ली जाती है।

बाहृा संपुटी विधि (Extra- capsular megthod)- इस विधि में एक किरेटोम को प्रविष्ट कर, संपुट को छील दिया जाता है और लेंस का केंद्रक (nucleus) निकल आता है। तब नेत्राभ्यंतर को लबण विलयन से धो दिया जाता है।

अब शल्यकर्म पूरा हो गया। कॉर्निया और स्क्लीरा का टाँका बाँध दिया जाता है। आयरिस को आयरिस रिपॉजिटर से ठीक ठीक बैेठा दिया जाता हैश् ऊर्ध्वदंडिका में से टाँका निकाल दिया जाता है। ५०,००० मात्रक पेनिसिलीन का श्लेष्मलकला के नीचे इंजेक्शन देकर, ऐसेरीन एक प्रतिशत तथा ऐट्रोपीन एक प्रतिशत की बूँदें डालकर और ऐक्रोमाइसीन का मरहम लगाकर, पक्ष्मों को बंद करके दोनों नेत्रों पर रूई रखकर, द्विनेत्रीे पट्टी बॉध दी जाती है। रोगी २४ मिनट तक श्या पर सीधा सोता है। उसके पश्चात् दूसरे पर्श्व पर करवट ले सकता है। तीसरे दिन पट्टी खोलकर फिर से ऐट्रोपीन की बूँदें डालकर, ऐक्रोमाइसीन का मरहम लगाकर, बंद नेत्र पर पट्टी बाँध जाती है। आठवें दिन टाँके काट दिए जाते हैं। तीन सप्ताह में लाली जाती रहती है। एक मास के पश्चात् चश्मा लगाया जा सकता है।श् (सत्यपाल गुप्त)