मोटरवाहन (वाणिज्य में) वाणिज्योपयोगी मोटरवाहन मुख्यतया दो प्रकार के होते है: एक तो माल परिवहन के लिये और दूसरे यात्री परिवहन के लिये। छोटे यात्री मोटरवाहनों को टैक्स और बड़ों को बस कहते हैं। चित्र में यात्रियों के लिये उपयोगी तथा माल ढोने के लिये, विभिन्न प्रकार के चुने हुए वाहनों को १२ रेखाकृतियाँ दिखाई गई हैं, जिनका आधुनिक यातायात में प्राय: उपयोग हुआ करता है। इन सब में डीज़ल इंजन की शक्ति से ही काम लिया जाता है।
इस शताब्दी के आरंभ में मोटरगाड़ियाँ केवल धनवानों के घरेलू उपयोग की ही वस्तु थीं। फिर प्रथम विश्वयुद्ध में सैनिक कार्यो में भी इनका खूब उपयोग हुआ। बहुत महँगी तथा छोटी होने के कारण साधारण जनता किराया देकर भी इनका उपयोग नहीं कर सकती थी साथ ही उनमें सफर करना भी सुविधाजनक नहीं। था सैनिक युद्ध के बाद सेनाविभाग ने मोटरगाड़ियों को बहुत सस्ते दामों पर जनता को बेच दिया, अत: व्यापारी लोगों ने उन मोटरगाड़ियों में आवश्यक परिवर्तन कर, उनका उपयोग तो किया, लेकिन फिर भी वे यात्रियों के लिये सुखदायक और विश्वसनीय न हो सकीं सन् १९२० के लगभग वायवीय टायर लगाकर मोटरगाड़ी को १४ से २० यात्रियों को ले जाने योग्य था कुछ सुविधाजनक बनाया गया। फिर मोटरगाड़ी बनानेवाले कारखानेदारों ने उनमें जहाँ तहाँ अनेक सुधार कर सुखदायक वाहन बनाना आरंभ किया। आज तो दुनिया में लाखों मोटरवाहन रेलवे स्टेशनों से दूरी पर स्थित गाँवों और कस्बों से यात्रियों के रेलवे स्टेशन तक लाते और ले जाते हैं। यही नहीं, वे एक कस्बे से दूसरे तक भी, जहाँ कि रेल की पहुँच नहीं होती, यात्रियों को सुविधापूर्वक पहुँचा देते हैं। जब मोटर के यातायात के लिये उत्तम प्रकार की सड़कें बनने लगीं, तब मोटर गाड़ियों की रफ्तार भी बढ़ा दी गई यात्रीवाहनों की रफ्तार अधिक तेज करने से सड़क के घुमावों पर उनके उलट जाने का डर रहता है, अत: गाड़ियों की अभिकल्पना ऐसी की गई है कि उनकी चौड़ाई में उनके पहियों का टेका (आधार) बढ़ जाए और वाहन का समग्र गुरुत्व केंद्र नीचा हो जाए। यात्रियों को ले जा सकने के कारण रेल की तुलना मेंश् यात्राव्यय भी कम हो गया है। विभिन्न देशों की सरकारों ने भी कानून बनाकर मोटर यातायात पर अपना नियंत्रण रखना आरंभ किया और मोटर मालिकों से लाइसेंस आदि के रूप में कई प्रकार के कर वसूल कर, सड़कों की व्यवस्था को और भी ठीक कर दिया है। आरंभ में तो रेलवे स्टेशन से ५-१० मील दूर स्थित कस्बों को मोटर से जाना आना ही उचित समझा जाता था और १००-१५० मील की दूरी मोटर बस से तय करना संभव नहीं था, पर सन् १९३० के बाद जब मोटरगाड़ी के यंत्रनिर्माण में काफी उन्नति हो गई और भरोसे के योग्य अच्छी मोटरें बनने लगीं, तब मोटर यातायात का काम बड़े पैमाने पर करने के लिये बड़ी बड़ी कंपनियाँ बनने लगीं। लेकिन उनकी योजना के अनुसार पेट्रोल इंजनों से लंबे सफर बहुत मँहगे पड़ते थे और उनसे भारी माम्ल ढोना भी अशक्य था। अत: मोटर गाड़ियों में डीज़ल इंजन का उपयोग किया जाने लगा। एक सुधार और किया गया, वह यह कि पेट्रोल इंजन वाली गाड़ी में इंजन के ठीक पीछे ही चालक का आसन लगाया जाने लगा, जैसा घेरलू गाड़ियों में अब भी होता है। ऐसा करने से मोटर के ढाँचे का लगभग आधा भाग अप्रयोजनय काम में लग जाता है। डीज़ल इंजनों की रचना इस प्रकार से की गई कि उनके बगल में ही चालक का आसन लगाया जाना संभव हो गया और उसे पीछे की समस्त जगह यात्रियों के बैठने तथा माल भरने के लिये काम आने लगी, जिससे उनक उपार्जन क्षमता बढ़ गई है। इस प्रकार क व्यवस्था से कंपनियों द्वारा बनाई और चलाई जानेवाली मोटरें २०० मील के लगभग, लंबे दौरे करने लगीं। मोटर से यात्रा करने में यह भी सुविधा है कि वह यात्री को उसके घर के कस्बें, या शहर से, चढ़ाकर गंतव्य स्थान के बहुत ही निकट तक पहुँचा देती है, जब कि रेल यातायात से ऐसा होना संभव नहीं। रेल के लिये तो इस्पात की मजबूत तथा स्थिर सड़क ही चाहिए, लेकिन मोटर तो साधरण कंकरीली और मिट्टी पर भी चल सकती है और विशेष प्रकार की मोटरगाड़ियाँ तो ऊबड़ खाबड़, जंगल, दलदल, रेगिस्तान और बर्फीली जमीन पर भी चल सकती हैं। उपयुक्त प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध हो जाने से कई स्थानों पर तो रेलवे और मोटर यातायात कंपनियों में प्रतिस्पर्घा चालू हो गई है।
मोटर बसों के सस्ते किराए और सुविधाओं को देखते हुए यात्री रेलमार्ग उपलब्ध होते हुए भी १००-२०० मील की दूरी मोटर से ही जाना पसंद करने लगे हैं। दूसरा आकर्षण यह रहा कि साधरणतया किसी एक दिशा को दिन भर में नियत समय पर कुल चार पाँच रेलगाड़ियाँ ही जा सकती हैं, और वह भी अन्य गाड़ियों को पारण, अथवा तेल गाड़ियों को प्राथमिकता, देने के लिये ठहरती जाती हैं, जिससे यात्री उकता जाते हैं, लेकिन मोटरों में यह असुविधा नहीं है। गाड़ी में सवार होने के स्टेशनों पर भी गाड़ी के लिये बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ती है, लेकिन बड़े शहरों के प्रधान डिपो में और बड़े कस्बों में आधा आधा, या एक एक घंटे बाद भी, गंतव्य स्थान को पहँचानेवाली मोटर मिल ही जाती है। इस प्रकार रेलवे की आमदनी घटने लगी।
कई देशों की रेलवे ने, जो कि उद्देशीय सरकारों के पूर्ण अथवा अर्ध नियंत्रण में थी, अपनी सरकारें पर दबाब डाला कि वे यातायात कंपनियों को हतोत्साह करें, लेकिन जनता का निरंतर प्रश्रय पाते रहने के कारण मोटर कंपनियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सका। अत: रेलवेवालों ने भी अपने यात्रियों को अधिक सुविधाएँ प्रदान करना आरंभ किया तथा उनकी सरकारों ने भी यह निगाह रखी कि जिन दो शहरो, या कस्बों, को रेल और मोटर दोनों ही जाती हैं, उनके किरायों में बहुत अधिक अंतर न हो। इधर रेलवे ने भी अपने प्रधान प्रधान स्टेशनों से १०-१५ मील दूरी पर स्थित प्रधान कस्बों और महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थानों तक अपनी मोटर बसें रेलगाड़ी के मेल के समय पर चलाना आरंभ कर दिया है, अथवा यह काम किसी विश्वसनीय मोटर कंपनी को ठेके पर दे दिया है। राज्य की सरकारें ने भी अपने अपने राज्यों में अब राजकीय रोडवेज़ की स्थापना कर दी है। यह संस्थाएँ पूर्णतया राज्य के नियंत्रण में रहकर, सुव्यवस्थापूर्वक काम कर रही है।
माल यातायात - यात्री यातायात की अपेक्षा माल यातायात की अपनी अलग जटिल समस्याएँ हैं। यात्रियों की अपेक्षा माल में ज्यादा वजन केंद्रित रूप में होता है और माल भी अनेक प्रकार तथा आयाम के होते हैं, जिसे ढोने के लिये इंजन के अधिक शक्तिशाली होने के अतिरिक्त वाहन के ढाँचे की बनावट भी माल के अनुकूल ही होना चाहिए। पेट्रोल इंजनों से माल ढोना बड़ा खर्चीला होता है, और वे इतने शक्तिशाली भी नहीं होते कि वाहन को आवश्यक कर्षण बल मिल सके। अत: रेल द्वारा माल भेजना अधिक सस्ता पड़ता है। रेल द्वारा तो एक रेलवे से दूसरी रेलवे के क्षेत्र में उसी एक डिब्बे को हस्तांतरित कर देते हैं। यदि रेलवे का संबंध एक समान ही गेज से जुड़ा हो, तो, महाद्वीप के एक सिरे से दूसरे सिरे तक माल भेजा जा सकता है। मोटरगाड़ियों में डीज़ल इंजन के उपयोग से शक्ति की समस्या तो हल हो गई है, लेकिन उनके द्वारा अंतरप्रांतीय परिवहन अब भी बड़ी कठिनता से, साधारण समतल भूमि में ही, हो पाता है। इधर देहातों में स्थित एक कारखाने से रेलवे स्टेशन तक माल ले जाना, अथवा रेलवे स्टेशन से मंडियों में स्थित गोदामों पहँुचाना और बार बार सामान को उतारना और लादना भी कम खर्चीला काम नहीं है। अत: इन सब खर्चों का हिसाब लगाकार और उसमें ईधन तेल की कीमत, चालक का वेतन तथा गाड़ी का ्ह्रासमूल्य जोड़कर निश्चय किया जाता है कि कीन सी विधि सस्ती पड़ेगी। यात्रा के बीच भाग में रेल का उपयोग होने पर उसका भाड़ा भी जोड़ना पड़ता है। कई बड़ी बड़ी व्यापारिक कंपनियाँ, तो अपना निजी मोटरवाहन भी रखती हैं, जिससे उनका विज्ञापन भी हो जाता है तथा माल उपयोगकर्ता, अथवा दुकानदार के गोदामों में सीधा पहुँच जाता है। साधारण छोटी कंपनियाँ ऐसा नहीं कर सकती हैं। डीज़ल तेल पेट्रोल की अपेक्षा सस्ता होते हुए भी उसका इंजन बहुत भारी तथा कीमती होता है, अत: गाड़ी का ्ह्रास मूल्य बढ़ जाता है। दो मीलश् से कम दूरी में और बार बार ठहराते हुए चलना बहुत मँहगा पड़ता है। अत: वहाँ जानवारों से चालित गाड़ी सस्ती पड़ सकती है। दूध, फल, सब्जी, भोज्य पदार्थ आदि छोटी मोटरों से उपयोगकर्ताओं के घरों पर बाँटे जा सकते हैं। भारी माल बहुत दूरी पर स्थित मंडियों में पहुँचाने के लिये बड़े कारखानेदार प्राय: ऐसा प्रबंध करते हैं कि उनकी गाड़ी प्रात:काल ही माल लेकर जाए और १००-१५० मील का चक्कर लगाकार सायंकाल तक वापस लौट आए। दूध, फल, मछली, आदि खाद्य पदार्थ रेल के स्टेशन पर रेलगाड़ी की प्रतीक्षा में बहुत देर तक नहीं रखे जा सकते, अत: उन्हें तुरंत ही मोटर से भेजना लाभदायक होता है।
सं०गं० - दि हिस्ट्री ऐंड डेवलपमेंट ऑव रोड ट्रांसपोर्ट, पिटमैन, कॉमर्शल मोटर रोड ट्रांस्पोर्ट, पिटमैन, रामस्वरूप तिवारी: रेल्वेज इन मॉडर्न इंडिया, न्यू बुक कंपनी, बंबई, वेस्टर्न फेडरल रिपब्लिक जरमनी के ऐसासिएशन ऑव डीज़ल इंजन मैन्युफैक्चरर्स द्वारा प्राप्त व्यापारिक सूचीपत्र आदि। [ओंकार नाथ शर्मा]