मोटरगाड़ी आधुनिक मोटरगाड़ी को हम १०वीं शती का चमत्कार कह सकते हैं। पिछली शती के अंतिम दो एक वर्षों में लोग दस प्रकार के अश्वरहित यान को कभी कभी बड़े शहरों की सड़कों पर चलते देख कर आश्चर्य चकित हो जाते थे। उस समय यह आकृति में भद्दी, बहुत भरी तथा बड़ी शोर करने वाली होती थी और व्यवहार में उसकी क्रिया अनिश्चित थी। अब यह गाड़ी इतनी परिष्कृत हो चुकी है कि यह देखने में बड़ी सुदंर, हलकी, शांतिपूर्वक तेजी से चलनेवाली, सबसे सुखदायक तथा भरोसे के योग्य और सबसेश् सस्ती गाड़ी समझी जाती है। चार सवारी की आधुनिक मोटरगाड़ी डाक रेलगाड़ी की रफ्तार से, लगभग छ: पैसे प्रति मील खर्च से कई हजार मील की यात्रा बिना किसी बाधा के कर सकती है।
मोटरगाड़ी में विशेषता यह हे कि केवल दो आदमियों के बैठने भर की जगह में इंजन आदि समस्त उपकरणों को बड़ी सुंदरता से समायोजित कर दिया गया है। यह सब कार्य डाक्टर एन० ए० ऑटो द्वारा १८७६ ई० में गैस इंजन के आविष्कार और उसके आठ वर्ष बाद गोटलीब डाइलर (Gottlib Daimler) द्वारा पेट्रोल इंजन के आविष्कार के कारण हो संभव हो सका।
चित्र १. और २. में दो प्रकार की आधुनिक मोटरगाड़ियों की आयोजनात्मक रेखाकृतियाँ दिखाई गई हैं। चित्र ३. में हाथ और पैर से नियंत्रण करनेवाने उपकरणों की योजना दिखाई गई, जिनसे विदित होता है कि किस प्रकार थोड़ी सी जगह में उन्हें लगाया गया है। इनके विभिन्न अंगों का वर्णन यहाँ किया जा रहा है।
इंजन - मोटरगाड़ियों के इंजन पेट्रोल की प्रज्वलनोत्पादित ऊर्जा से चलने के करण बहुत ही ठोस बनावट के स्वयं-पूर्ण-शक्ति-उत्पादकश् यंत्र होते हैं। चित्र ४. में पेट्रोल इंजन की सांकेतिक बनावट दिखाई गई है। इसका सिलिंडर प्राय: ढलवाँ लोहे के बनता है और कई निर्माता एलुमिनियम मिश्रित इस्पात का बनाते हैं, जिसका एक सिरा बंद होता है और भीतरी व्यास एक समान तथा काच जैेसी चिकनी बनाबट का होता है। पिस्टन भी बाहर से एक सामान व्यास का, सिलिंडर के भीतर सही आता हुआ होता है। पिस्टन के ऊपरी बंद सिरे के निकट, प्रतयास्यतागुझायुक्त लोहे के दो, या तीन वलय डाल दिये जाते है, जिनसे पिट्सन के नीचेश् की तरु चलते समच, प्रज्ज्वलन कक्ष में आंशिक निर्वात हो जाने से, प्रवेश वाल्वस के खुला होने पर, विस्फोटक गैस प्रविष्ट हो सके। पिस्टन के भीतर की तरफ एक पिन द्वारा संयोजक दंड का छोटा सिरा संबद्ध कर दिया जाता है और बड़ा सिरा क्रैंक पिन के द्वारा मूख्य धुरे से संबद्ध कर दिया जाता है। पिस्टन पर लगे हुए वलयों को उसके खाँचों में धिस कर ऐसा सही बिठाया जाता है कि पिस्टन अपने सिलिंडर में चलते समय बिल्कुल गैसाभेद्य हो जाते हैं। इंजन में जितने सिलिंडर होते हैं, उतने ही क्रैंक प्रधान धुरे पर बनाए जाते हैं और उनकी आपेक्षिक कोणीय स्थिति उनकी संख्या के अनुसार १८�, के अंतर पर हुआ करती है। इंजन का प्रधान धुरा, क्रैंक प्रकोष्ठ के दोनों सिरों पर लगे उपयुक्त प्रकार के बेयरिंगों पर आधारित रहता है। छ: से अधिक सिलिंडर वाले इंजनों के धुरे के बीच में एक बेयरिंग लगा दिया जाता है। धुरे के भीतरी सिरे के बाहर की तरफ एक गतिपाल चक्र लगाया जाता है, जिसका उद्देश्य इंजन द्वारा शक्ति-स्ट्रोक में उत्पादित फालतू ऊर्जा को अपने में संगृहीत कर तथा अनुत्पादक स्ट्रोकों के समय वापस देकर, धुरे की परिभ्रमक गति को एक समान बनाए रखना होता है। गतिपाल चक्र के पीछे की तरफगिअर बक्स होता है, जिसके माध्यम से गाड़ीके पिछले पहियों को शक्ति प्रेषित की जाती है।
पेट्रोल के बारीक कण हवा से मिश्रित होकर गैसीय ईधंन के रूप में कार्बुरेटर से निकलकर, प्रवेश वाल्व के खुलने पर, प्रज्वलन कक्ष में जाते हैं, जहाँ संपीड़ित होने पर बिजली की एक चिनगारी द्वारा विस्फोटित होकर, दाब उत्पन्न करते हैं। इससे पिस्टन नीचे जाता है। फिर पिस्टन के वापस ऊपर आने के समच तक जली हुई, गैसें, निष्कासन वाल्व खुल जाने के कारण बाहर निकल जाती है। अत: प्रत्येक सिलिंडर के साथा इन क्रियाओं के लिये प्रवेश और निष्कासन के दो वाल्ब लगाए जाते है, आधुनिक गाड़ियों के ऑटो 'इंजन चतुष्स्ट्रोकों के सिद्धांत पर चलते हैं, अर्थात् इनके सिलिंडरों में ईधंन गैस का विस्फोटन, क्रैंक धुरे के प्रति दो चक्करों में, अर्थात् पिस्टन के दो ऊपर और दो नीचेवाले, चार स्ट्रोकों में, केवल एक ही बार होता है। टैपेट और कैमों द्वारा यांत्रिक रीति से, इनका प्रवेशवाल्व ठीक समय पर खुलकर कार्बुरेटर और प्रज्ज्वलन कक्ष को संबंधित कर देता है और कक्ष में गैस भरते ही एकदम बंद हो जाता है। इसी प्रकार निष्कासन वाल्व भी जली गैसों को निष्कासित करने के लिये उचित समय पर खुलता और बंद होता रहता है। इन चारों स्ट्रोंकों का क्रम बाल्वों की स्थिति और सिलिंडर में होनवाली क्रियाएँ निम्न सारणी में बताई गई हैं। (देखें अंतर्द्हन इंजन)।
स्ट्रोक सं० नाम पिस्टन के चलने की दिशा प्रवेश वाल्व निष्कासन वाल्व सिलिंडर में होनेवाली क्रियाएँ
१-श्श् चूषण नीचे को खुला बंद पिस्टन द्वारा होनेवाले निर्वात के कारण कार्बुरेटर से गैसीय ईधंन चूसा जाकर, सिलिंडर में भर जाता है।
२-श्श् संपीडन ऊपर को बंद बंद सिलिंडर में भरा ईधंन पिस्टन द्वारा संकुचित होकर, गरम भी हो जाता है; फिर संकुचन के अंत में बिजली की चिनगारी छूटती है, जिससे इंधन विस्फोट के साथ प्रज्ज्वलित होता है।
३-श्श् प्रज्वलन (शक्ति स्ट्रोक) नीचे कोश् बंद बंद प्रज्वलन चालू रहने के कारण सिलिंडर में दाब उत्पन्न होती है, जिससे पिस्टन नीचे की तरफ ढकेला जाता है।
४-श्श् निष्कासन ऊपर को बंद खुला इस समय, पूर्व जली गैसें बाहर ढकेल दी जाती है।
प्रज्वलन कक्ष - मोटरगाड़ियों के इंजनों में तीन प्रकारश् से प्रज्वलन कक्ष बनाए जाते हैं: एक तो टी (T) आकार का, जैसा कि चित्र ४-श् में दिखाया गया है। इसमें प्रवेश और निष्कासन के वाल्व एक दूसरे के सामने, सिलिंडर के दोनों तरफ लगाए जाते हैं। यह प्रकार अब लोकप्रिय नहीं रहा। दूसरा प्रकार उलटे एल (L) के समान होता है (देखें चित्र ५) इसमें दोनों वाल्व सिलिंडर के एक ही तरफलगाए जाते हैं। तीसरे प्रकार का कक्ष, शीर्षोपरिवाल्वयुक्त, होता है, जो चित्र ६. में दिखाया गया है और जिसमें दोनों वाल्व सिलिंडर के माथे पर लगे हैं। यह प्रकार अपनी श्रेष्ठता के कारण सर्वाधिक लोकप्रिय है।
गैसों फा संपीडन- इंजन के सुदक्षता पूर्वक काम कर सकने के लिये गैसों के संपीडन का प्रश्न सर्वाधिक महत्व का है। साधारणतया, संपीडन जितना ही उच्च कोटि का होगा, इंजन की कार्यदक्षता उतनी ही बढ़ेगी, लेकिन इसकी भी एक सीमा है, जो ईधंन तेल के प्रज्वलन ताप, अथवा विस्फोटन ताप, पर निर्भर करती है; उच्च कोटि के संपीडन से गैसें इतनी अधिक गर्म हो जाती हैं कि उनमें स्थानीय तापदीप्ति उत्पन्न होने लगती है। पर्यटनोपयोगी मोटरगाड़ियों के इंजनों के लिये ७० से ८० पाउंड प्रति वर्ग इंच तक का संपीडन अच्छा समझा जाता है। यदि संपीडन के समय उत्पन्न होनेवाली अतिरिक्त ऊष्मा के संवहन का बहुत उत्तम प्रबंध पानी की जैकटों और हवा द्वारा कर दिया जाए, तो यह दाब १२० पाउंड तक भी बढ़ाई जा सकती है। बहुत तेज दौड़नेवाली गाड़ियों में से इसे १६० पाउंड तक रखा जा सकता है।
सिलिंडरों की संख्या- इंजन में जितने ही ज्यादा सिलिंडर होंगे उसके क्रैंक धुरे पर मरोड़ बल उतना ही सम पड़ेगा, अत: ऐसी हालत में उच्च संपीडन-अनुपात रखा जा सकता है। उच्च संपीड़न का लाभ कम ईजंन खर्च में अधिक शक्ति प्राप्त करना है, लेकिन गाड़ी को मंद गति से चलाते समय यदि संपीडन-अनुपात ऊँचा रखा जाए, तो इंजन के शक्ति उत्पादन में लचीलापन नहीं रहने पाता और उसके क्रैंक धुरे तथा बेयरिंगों पर अधिक जोर पड़ता है। साथ ही वाल्व और प्लगों के बहुत गर्म होकर जल जाने का भी डर रहता है। सिलिंडर उनके शीर्ष सहित प्राय: एक ही साँचे में ढाले जाते हैं। इनमें असुविधा यही रहती है कि इनमें जमा हुआ कार्बन का मैला साफ करने के लिये पूरे सिलिंडर समूह को उतारना आवश्यक हो जाता है। आजकल मोटरगाड़ी निर्माता इंजन का सिलिंडर भाग और उनका शीर्ष भाग अलग अलग ढालते हैं, फिर उन दोनों भागों को आपस में स्टड और नटों द्वारा जोड़ देते हैं। इनका मैला साफ करने के लिये केवल शीर्ष भाग को ही उतारना काफी होता है। इसी में प्रज्वलन कक्ष होता है, जिसमें मैला जमा हुआ करता है। इनका निर्माण भी सस्ते में हो जाता है और इनमें शीर्षोपरिवाल्व भी सुविधापूर्वक लगाए जा सकते हैं।
आरंभ में एक सिलिंडरयुक्त इंजन से ही मोटर चलाई जाती थी, लेकिन अब तो आवश्यकतानुसार २, ४, ६, ८ और १२ सिलिंडर तक लगाए जाते हैं, जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा।
पिस्टन और पिस्टन के वलय- आरंभ में पिस्टन ढलवाँ लोहे के बनाए जाते थे, लेकिन अब इस्पात मिश्रित ऐलुमिनियम धातु के बनते हैं। ऐसा करने से इनकी गर्मी जल्दी शांत हो जाती है। दूसरे, इनमें अधिक प्रसार भी नहीं होता, जिससे ये बहुत गर्म होकर सिलिंडरों में जाम (jam) नहीं होने पाते। साथ ही हलकी धातु के बने होने के कारण, इन्हें चलाने में इंजन की शक्ति का अपव्यय भी नहीं होता। इनकी द्दढ़ता बढ़ाने के लिये, इनकी छत और बेलनाकार घेरे के बीच में, भीतर की तरफ, पर्शुकाएँ बना दी जाती हैं। पिस्टनों को भी आजकल दो भागों में बनाते हैं। छत ऐलुमिनियम की और घेरा ढलवें लोहे का बनाकर, उन्हें चूड़ियों द्वारा संयुक्त कर देते हैं।
चित्र ७. में दिखाया गया है कि पिस्टन की बाहरी दीवारों में, ऊपर के सिरे के निकट खँचे बनाकर, उनमें लोहे, अथवा किसी उत्तम कोटि के प्रत्यास्थ लोहे के वलय डाल दिए जाते हैं। ढलवाँ लोहे के वलयों को प्रत्यास्थता देने के लिये उन्हें खरीदते समय अनका बाहरी व्यास (सिलिंडर का व्यास X 1.027 और ग्राइडिंग का अवधान, सिलिंडर का व्यास X 0.008 जोड़ कर) सिलिंडर के व्यास का १.०३५ बना देते है। फिर उसकी परिधि में से एक स्थान पर ४५� के कोण परश् मुँह चीर कर, अथवा चढवाँ जोड़ के अनुसार काट कर, उसकी परिधि में से इतना लंबा टुकड़ा कम कर देते हैं कि सिलिंडर में पिस्टन के बैठने पर, ग्राइंड करने के बाद, उस वलय का मुँह दब कर, उसमें सिलिंडर के ब्यास का ०.००४ अंतराल रह जाए। इस प्रकार कुल मिलाकर परिधि में से सिलिंडर का व्यास� X 0.085 (अथवा 0.09) टुकड़ाश् काटकर कम कर दिया जाता है। वलय अपने पिस्टन के खाँचे में भी ऐसे सही चलते हुए बैठाए जाते कि काम करते समय बिना जाम हुब काम देते रहें। वलय खाँचे में इतने ढीले भी नहीं होने चाहिए कि उनमें से गैस चूकर पार हो जाए। कुल मिलाकर पिस्टन और सिलिंडर का संपर्कतल गैसाभेद्य बना रहना चाहिए।
क्रैंक, संयोजक दंड ओर उसके छोटे तथा बड़े सिरे के बेयरिंग- संयोजक दंड को पिस्टन से संबंधित करने के लिये (चित्र ८) असके छोटे सिरे में एक �गजेन पिन� लगाई जाती है, जिसका बेयरिंग, पिस्टन में ही, फौस्फर ब्राँज की बुश के रूप में लगाया जाता है। बड़े सिरे को क्रैंक पिन से संबंधित करने के लिये असे दो अर्धकों में बनाया जाता है। उसका बेयरिंग सफेद धातु का बनाया जाता है। दोनों अर्धकों को बोल्ट और नटों द्वारा मिला कर कस दिया जाता है। मोटरगाड़ियों के लिये पिस्टन की छोटी स्ट्रोक का होना अच्छा समझा जाता है, अत: इनका क्रैंक भी कम लंबाई का बनाया जाता है, जिससे संयोजक दंड की कोणीयता का प्रभाव भी पिस्टन और सिलिंडर पर कम हो जाता है। यह तेज चाल के लिये लाभकारी होता है। लेकिन अधिक शक्ति उत्पादन के लिये लंबा स्ट्रोक ही लाभदायक होता है। इससे बेयरिंगों पर विकृति कम पड़ती है, जिससे धर्षणी हानियाँ भी कम होती हैं। बड़े क्रैंक के कारण होनेवाली कोणीयता का कुप्रभाव कम करने के लिये संयोजक दंड को क्रैंक से कम से कम चार गुणा लंबा बनाना चाहिए और सिलिंडरों का व्यास कम करना चाहिए।
डिसेक्स अर्थात् खसका सिलिंडर- जब सिलिंडर और क्रैंक धुरे की मध्य रेखा एक सीध में होती है, तब संयोजक दंड की कोणीय स्थिति आने पर, पिस्टन और सिलिंडर की दीवारों पर जो पार्श्व दबाव उत्पन्न होता है, वह विस्फोटक स्ट्रोक के समय इतना बढ़ जाता है कि उसके कारण सिलिंडर और पिस्टन बहुत जल्दी घिसकर दीर्घ वृताकार हो जाते हैं। इससे उनमें से गैस चूने लगती है और इंजन की शक्ति कम हो जाती है। अत: पिस्टन के वलयों को बार बार बदलना और कई बार तो सिलिंडर का पुन: छिद्रण करवा कर नया पिस्टन भी लगाना आवश्यक हो जाता है। इस दोष के निराकरण के लिये, सिलिंडर को धुरे की मध्य रेखा से कुछ खसका कर स्थापित किया जाता है। ऐसा करने से विस्फोटन के समय संयोजक दंड की कोणीयता घट जाती है। यद्यपि संकुचन और निष्कासन के समय यह बहुत बढ़ जाती है, पर उक्त दोनों, ऊपर जानेवाले स्ट्रोकों के शक्ति-उत्पादक न होने के कारण कोई हानि नहीं होती। इस प्रकार के सिलिंडर की रेखाकृति चित्र ९. में दिखाई गई है।
वाल्व- शक्ति उत्पादनार्थ सिलिंडरों में विस्फोटक गैस के प्रवेश तथा निष्कासन पर नियंत्रण वाल्वों द्वारा ही हुआ करता है। प्रज्वलन कक्ष के निकट वाल्व लगाने के स्थानश् और उन्हें चलाने की यंत्रावली के प्रकार का भी इंजन की कार्यदक्षता पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। पेट्रोल इंजनों में प्राय: पॉपेट जाति के वाल्व ही लगाए जाते हैं। उलटे एल नुमा (L) शीर्ष में, तो यह बराबर बराबर लगाए जाते हैं (देखें चित्र ५.), लेकिन टी नुमा (T) शीर्ष में एक दूसरे की विरोधी दिशा में लगाए जाते हैं (देखे चित्र ४.) इन दोनों ही अभिकल्पनाओं में वाल्वों को चलाने का प्रबंध कैमों द्वारा होता है, जिनकी योजना चित्र १०. में दिखाई गई है। अंतर केवल यही होता है कि एल (L) आकारश् के शीर्ष में प्रवेश और निष्कासन के बाल्व एक ही कैम धुरी से चलाए जाते हैं, और टी (T) आकार के शीर्ष में दोनों वाल्वों के लिये अलग अलग कैम धुरियाँ होती हैं। इन धुरियों को घुमाने के लिये इन्हें प्रधान धुरे से किरों (दंत चक्रों) द्वारा इस प्रकार संबंधित किया जाता है कि कैमधुरी की चाल (चक्कर प्रति मिनट) प्रधान धुरे की चाल से आधी होती है। चित्र ६. में दिखाए गए शीर्षोपरि वाल्वों को खोलने और बंद करने का प्रबंध दोलक भुजाओ द्वारा होता है, जो उनके बीच में लगी एक ही कैम धुरी द्वारा संचालित हुआ करती है। साधारणतया वाल्व किसी टैपेट आदि द्वारा ढकेलकर खोल दिए जाते हैं, लेकिन उन्हें बंद करने का काम एक मजबूत वेष्ठनदार कमानी द्वारा किया जाता है।
प्रधान धुरा और गतिपाल चक्र- श्प्रधान धुरे की बनावट सिलिंडरों की संख्या पर निर्भर करती है, क्योंकि उसमें उन्ही के अनुसार क्रैंक बनाए जाते हैं। उसे एक ही ठोस टुकडे से काटकर भी बनाया जाता है और कई टुकड़ों को जोड़कर भी। धुरे के बेयरिंग ऐसे आकार और प्रकार के बनाए जाते हैं जो उसपर आनेवाली विकृतियों और झटकों को सह सकें। आजकल इन्हें गोल अथवा बेलनयुक्त ही बनाने का रिवाज है। धुरे के पिछले सिरे पर लगाया जानेवाला गतिपालचक्र, एक सिलिंडर वाले इंजन में काफी बड़ा और भारी होता है और चार अथवा उससे अधिक सिलिंडरों वाले इंजनों में अपेश्क्षाकृत छोटा और हलका होता है, क्योंकि इनकी शक्ति-उत्पादक-स्ट्रोके धुरे की चाल एक सी तथा संतुलित रहती है।
चार सिलिंडरयुक्त इंजन- साधारण शक्तिसंपन्न घरेलु उपयोग की गाड़ियों के लिये चार सिलिंडरयुक्त इंजन ही अच्छे समझे जाते हैं। इनमें धुरे के प्रत्येक चक्कर पर दो दो शक्ति उत्पादक स्ट्रोंके हुआ करते हैं, अत: उनकी चाल सदैव संतुलित और स्थिर रहती है। इनके धुरों पर बने चार क्रैंको में से एक और चार का जोड़ा एक तरु और दो और तीन का जोड़ा उसकी विरोधी दिशा में, १८०� के उंतर पर, रहता है। यदि हम इंजन के सामने, रेडियेटर के पास खडे होकर सिलिंडरों को देखें, तो इनके विस्फोटक स्ट्रोंकों का क्रम एक, दों, चार और तीन होगा। कई गाड़ियों में यह क्रम एक, तीन, चार ओर दो भी रखा जाता है।
छह सिलिंडरयुक्त इंजन - इस प्रकार के इंजनों में सबसे बड़ा गुण यह है कि इनके क्रैंकधुरों पर घर्णी-आयास सदैव एक समान रहता है, लगभग वैसा ही जैसा कि वाष्प टरवाइनों, अथवा बिजली की मोटर, के धुरों पर हुआ करता है। अत: मध्यम शक्तियुक्त मोटर गाड़ियों में छह सिलिंडरयुक्त इंजन ही लगाए जाते हैं। इसपर दो, दो क्रैंकों के युग्मों की मध्य रेखा दूसरे युगमों से १२०� के अंतर पर रखी जाती है (देखें चित्र १२.)। अत: इनके सिलिंडरों में शक्ति का स्पंदन एक दूसरे पर इस प्रकार से अंशाच्च्छादित रहता है कि जब पिस्टनों के एक युग्म के नीचे जाने के कारण उनकीश् शक्ति का हाल्स होता है, तब दूसरे सिलिंडर युग्म में शक्ति का स्पंदन आरंभ हो जाता है। इनके सिलिंडरों का सिस्फोटन क्रम इस प्रकार होता है: एक, चार, दो, छ:, तीन तथा पाँच। इस युक्ति से इंजन में शक्ति का संतुलन ऐसी सुंदरता से होता है कि पूरे यंत्र में अवांछित कंपन उत्पन्न होने ही नहीं पाते।
आठ सिलिंडरयुक्त इंजन -श् इस प्रकार के इंजन बड़ी शक्ति शाली गाड़ियों में लगाए जाते हैं, जिनमें चार चार सिलिंडरों के दो जत्थे बनाकर, प्रत्येक जत्थे के सिलिंडरों की मध्य रेखा को दूसरे जत्थे के सिलिंडरों की मध्य रेखा से ४५� अथवा ९०� के कोण पर झुका कर लगाते हैं, जिजससे कि दोनों जत्थें के सिलिंडर आपस में मिलकर एक ही क्रैंक धुरे को चा सकें। ऐसा करने से इंजन यंत्र की लंबाई, चार सिलिंडर इंजन की अपेक्षा, बहुत ही स्वल्प सी बढने पाती है और चौड़ाई वही रहती है। यदि इंजन के सामने खड़े होकर दाहने और बाएँ जत्थों के सिलिंडरों की गिनती करें तथा उन्हेंश् द और ब अक्षरों से व्यक्त करे, यथा द१ और ब१ इत्यादि, तो सिलिंडरों का विस्फोटन क्रम इस प्रकार होगा, ब४, द१, ब२, द३, ब१, द४, ब३ और द२ ।
बारह सिलिंडरों का इंजन -श् इस प्रकार का इंजन कभी कभी बहुत ही शक्तिशाली गाड़ियों में लगाया जाता है। इसके सिलिंडरों को भी दो जत्थों में बाँटकर वी (V) रूप में लगाते हैं।
अश्वशक्त्ति- उत्पादित अश्वशक्ति की गणना में इंजन की रफ्तार, सिलिंडरों का व्यास और स्ट्रोक ही प्रधान घटक होते हैं। व्यापारी लोग केवल सिलिंडरों के व्यास के आधार पर ही निरीक्षण मूलक विधि से गणना कर लेते हैं। धुरे के घूमने की रफ्तार ६५० से २,००० चक्कर प्रति मिनट तक हो सकती है, लेकिन उक्त चरम रफ्तार पर बहुत ही कम इंजन पहुँच पाते हैं। प्राय: मोटर निर्माता, इंजन के साथ गति नियामक लगाकर उसकी रफ्तार को ६५० और ८५० के भीतर ही सीमित रखते हैं। यदि चाहें तो इससे ऊॅंची रफ्तार, गति नियामक यंत्र को हाथ से निष्क्रिय कर, प्राप्त की जा सकी है। बहुधा सिलिंडरों का स्ट्रोक और व्यास लगभग बराबर ही रखे जाते हैं। डब्लू०जे० लाइन्हाम ने मोटर गाड़ियों की ब्रेक अश्वशक्ति जानने की विधि निम्न प्रकार बताई है:
यदि स्ट्रोक और व्यास को स (S) और व (D) अक्षरों द्वारा व्यक्त करें और यदि व (D) =� (S) हो तो १,५०० चक्कर प्रति मिनट पर इंजन की ब्रेक अश्वशक्ति �= प्रति सिलिंडर होगी। यदि रफ्तार ७५० मान ली जाए, तो उपर्युक्त सूत्र का हर २० और १,००० पर १५ होगा। किसी अन्य रफ्तार के लिये उक्त सूत्र का हर जानने के लिये १५,००० को चक्करों की संख्या प्रति मिनट से भाग दे देना चाहिए। यदि पिस्टन का व्यास और स्ट्रोक बराबर न हों, तो अंश व२‑ स (D2S) होगा।
कार्बूरेटर पेट्रोल इंजनों में शक्ति उत्पादनार्थ विस्फोटक मिश्रण तैयार करने का काम कार्बूरेटर यंत्र द्वारा होता है। यह यंत्र चूषण स्ट्रोक के समय जब कि प्रवेश वाल्व खुला होता है, पेट्रोल की टंकी में से बारीक झींसी के रूप में पेट्रोल की एक फुहार खींचता है और साथ ही अपने साथ लगे हवावाल्व में से उचित मात्रा में हवा खींच कर, उसे पेट्रोल के कणों में मिश्रित कर, सिलिंडर में खिंच जाने देता है। चित्र १३ में इसकी बनावट सरल कर दिखाई गई है। पेट्रोल की प्रधान टंकी में से तेल पहले इस यंत्र के प्लवकक्ष में जमा हो जाता है, जिसमें लगी प्लावक गेंदे पेट्रोल की मात्रा को एक निश्चित तल तक रखती हैं। इंजन चाहे कितना ही तेल खर्च करता रहे, प्लवकक्ष में सूचीवाल्व के द्वारा वह एक सी ही ऊँचाई तक भरा रहता है। पिस्टन द्वारा चूषित होने पर प्लवकक्ष में से तेल खिंच कर एक दूसरे मार्ग से फुहार के स्तनाग्र में जाता है, जिसको चारो तरु से घेरे हुए एक द्विशंक्वाकार नली और लगी रहती है, जिसे चोक नली कहते हैं। इसी के नीचे के सिरे में से, हवा वाल्व के खुलने पर, हवा खिंच कर आ जाती है। हवा के प्रवाह से स्तनाग्र के पास कुछ निर्वात भी हो जाता है, जिसके प्रभाव से पेट्रोल खिंच कर फुहार के रूप में निकलता है। वहाँ से मिश्रित होने पर, विस्फोटक मिश्रण बनकर, सिलिंडर में निर्वात के कारण खिंच कर भर जाता है।
आधुनिक गाड़ियों में कार्बूरेटर तीन प्रकार के होते हैं: एक तो वे जिनमें चोक नली के नीचे के मुँह में से हवा जोर के साथ प्रविष्ट होने पर स्तनाग्र के पास आंशिक निर्वात हो जाता है, जिसके कारण पेट्रोल की फुहार उठती है। वहाँ एक वाल्व द्वारा हवा की मात्रा पर नियंत्रण कर, वहाँ होनेवाले निर्वात की मात्रा स्थिर कर दी जाती है। दूसरे वे जिनमें निर्वात की मात्रा पर नियंत्रण न कर पेट्रोल की मात्रा पर नियंत्रण किया जाता है। तीसरे प्रकार के यंत्र में पेट्रोल और हवा दोनों पर ही नियंत्रण यांत्रिक रीति से किया जाता है।
इस यंत्र की अभिकल्पना करते समय ध्यान रखा जाता है कि तेज रफ्तार के समय इंजन पर भार कम होने के कारण विस्फोटक मिश्रण को अवश्य कमजोर बना दिया जाए। अत: चाहे तो यह काम हवा की मात्रा को बढ़ाकर किया जाए अथवा तेल की मात्रा को कम कर। जब इंजन का अधिक भार वहन करना होता है, तब उसी रफ्तार कम हो जाती है। अत: उस समय फुहार के स्तनाग्र के निकट का निर्वातन भी कमजोर हो जाता है। इस कारण उस समय ईधंन कम खिंचने पाता है और हवा ज्यादा। अत: यंत्र में कुछ ऐसी प्रयुक्ति लगाई जाती है कि उस समय या तो फुहार का और बढ़ जाता है, अथवा हवा का प्रवेश मार्ग स्वत: ही छोटा हो जाता है, जिससे विस्फोटक मिश्रण पुन: बलवान् , अथवा निर्बल होना कार्बूरेटर के ताप, वायुमंडल की दाब, तथा उसकी आर्द्रता आदि अनेक बातों पर निर्भर करता है। चाहे कितना भी अच्छा कार्बूरेटर हो, विस्फोटक मिश्रण का लगभग २५% भाग तो बिना शक्ति उत्पादन किए सिलिंडर के निष्कासन मार्गों में से निकलकर बर्बाद हो ही जाता है।
कार्बूरेटर का ताप - पेट्रोल जैसे हलके तेल को भी उदष्पित करने के लिये गर्मी की आवश्यकता होतीश्श् है, अत: कार्बूरेटर को गरम रखने के लिये उसे सिलिंडरों अथवा उनके निष्कासन नलों, के निकट लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त कई गाड़ियों की चोक नली में एक तप्त कटिबंध का प्रबंध किया जाता है, जिसमें कि गैस के प्रवेश नल के एक खंड को निष्कासन नल द्वारा चारों तरु से घेर देते हैं।
कार्बूरेटर में पेट्रोल पहुँचने का प्रबंध श्- यह तीन प्रकार से किया जाता है। प्रथम विधि में चित्र १४ क में दिखाए अनुसार पेट्रोल की टंकी को, जितना भी हो सके, इतनी ऊँची स्थिति में लगाते हैं कि जिससे पेट़ोल गुरूत्वाक र्षण के कारण सरलता से बहकर कार्बूरेटर में आ जाए। आजकल गाड़ियों के फर्शे बहुत नीचे बनाये जाते हैं। इस कारण पेट्रोल को बहकर आने के लिये शीर्ष नहीं मिलता। अत: जब पेट्रोल की टंकी नीची और कार्बूरेटर ऊँचा रहता है तब चित्र १४ ख के अनुसार, डैशबोर्ड पर एक छोटा सा हाथ पंप लगाकर, तीन से पाँच पाउंड प्रति वर्ग इंच की दाब से पेट्रोल को ऊँचा चढ़ाया जाता है। तीसरा तरीका इन दोनों के सिद्धांतों के मिश्रण के आधार पर है (देखें चित्र १४ ग) । इसमें एक छोटी सी टंकी डैशबोर्ड पर लगा दी जाती है, जिसमें प्रधान टंकी से तेल चूषण द्वारा आकर भर जाता है। इस छोटी टंकी के ऊपरी भाग को प्रेषण नलिका से एक पतलीश् नली द्वारा संबंधित करने से, जब इंजन चलता है तब चूषण स्ट्रोक के समय निर्वात के कारण, बड़ी टंकी का तेल खिंचकर छोटी टंकी में भर जाता है। फिर वहाँ से कार्बूरेटर में प्लवों के द्वारा नियंत्रित होकर भरता रहता है।
विस्फोटक मिश्रण का प्रज्वलनश् यह कार्य सभी मोटरगाड़ियों में बिजली की चिनगारियां द्वारा किया जाता है, जिनका उत्पादन मैगनेटो यंत्र अथवा बैटरी द्वारा होता है। मैग्नेटो यंत्र एक छोटे डायनामों के समान होता है, जो बिजली की घारा उत्पन्न करने के अतिरिक्त, साथ में लगे अन्य पुर्जों की सहायता से ठीक समय पर, प्रत्येक सिलिंडर में चिनगारी छोड़कर प्रज्वलन करवाता रहता है। मैग्नेटो के साथ घूमती हुई एक स्वचालित स्विच लगा होता है, जिसे धारावितरक कहते हैं। चार सिलिंडर युक्त इंजन के क्रैंक घुरे के एक चक्कर में दो विस्फोट एक साथ हुआ करते हैं, अत: उसी समय के बीच मैंगनेटो के आर्मेचर के एक चक्कर में विद्युत् धारा की भी दो हिलोरें उठा करती हैं। इसलिये आर्मेचर भी उतने ही चक्कर लगाता है जितना कि इंजन का क्रैंक धुरा (देखें चित्र १५)।
मैगनेटो के कार्य श्जब मैगनेटो का आर्मेचर घूमता है, तब पहले उसकी प्राथमिक लपेटन में निम्न विभव की घारा पैदा होती है, जो दोलन भजा में से होकर संस्पर्शं विच्छेदक में जाकर, वहाँ लगे दो प्लैटिनम विंदुओं का आपस में संस्पर्श रहने के कारण, उसकी स्थिर भुजा में से होकर मैगनेटो में वापस लौट आती है। इस प्रकार उस निम्न विभव की घारा का एक परिपथ पूरा हो जाता है। जब संस्पर्श विच्छेदक के वलय से उसका परिभ्रामी कैम टकराता है, तब दोलन भुजा पर लगे प्लैटिनम बिंदु एक दूसरे से अलग हो जाते है, उस समय प्राथमिक लपेटन से निकली धारा संघारित्र में इकट्ठी होकर उलटी दिशा में प्रवाहित होने लगती है, जिससे द्वितीयक लपेटन में उच्च विभव का विद्युतावेश होकर सर्पिल वलय में एकत्र हो जाता है और वहाँ से कार्बन बुरूश में से होकर घूमते हुए वितरक में जाता है। फिर आवेश वहाँ से चिनगारी प्लगों में बारी बारी से जाकर चिनगारी उत्पन्न करता है, और आगे जाकर इसका भू संयोजन हो जाता है। जब संस्पर्श विच्छेदक से कैम हट जाता है, तब दोलन भुजा पर लगे प्लैटिनम बिंदु फिर आपस में मिलकर प्राथमिक परिपथ को पूर्ण कर देते हैं।
बैटरी द्वारा चिनगारी श्मैग्गनेटो का आविष्कार होने के पहले उच्च विभव की चिनगारी प्राप्त करने के लिये संचायक बैटरियों का उपयोग किया जाता था। इनसे प्राप्त विद्युत् धारा को एक तीव्र कारक कुंडली में से प्रवाहित कर, घूर्णी कैम द्वारा चलनेवाले धारा विच्छेदकश् से उच्च विभव युक्त कर चिनगारी प्लगों को दिया जाता है। इस युक्ति का तार विन्यास चित्र १६ में दिखाया गया है। पुराने समय में तो इन बैटरियों को समय समय पर चार्ज करवाना होता था, लेकिन अब ये बैटरियाँ प्रकाश के लिये विद्युत् उत्पन्न करनेवाले डायनेमों से स्वयं ही चार्ज होती रहती हैं। जिन गाड़ियों में ऐसा प्रबंध है, वहाँ मैगनेटो नहीं लगाया जाता।
चिनगारी प्लग श्प्रत्येक सिलिंडर में लगाए जाने वाले चिनगारी प्लगों की बनावट चित्र १७ में दिखाई गई है। उच्च विभव के एक तार का एक छोर 'ख' में आकर उसके अत्यंत निकट अर्थात् १/३२ इंच के फासले से लगे चिनगारी टर्मिनलां में प्रवेश करते समय चिनगारी छोड़ती है। इस फासले को चिनगारी अंतराल भी कहते हैं, फिर इनमें से शेष धारा भूयोजित हो जाती है।
सिलिंडरों को ठंडा रखने का प्रबंध पेट्रोल के इंजनों में संपीडन के समय गैसों का ताप लगभग ५००� सें० और ज्वलन के समय का ताप लगभग १५००� सें० हो जाता है। यदि सिलिंडरों को ठंढा रखने का प्रबंध न किया जाए, तो संपीडन स्ट्रोक पूरे होने और चिनगारी छूटने के पले ही गैसों में विस्फोट होगे, सिलिंडर में जाम हो जाने का डर रहता है। अत: अंतर्दहन इंजनों के सिलिंडरों को ठंढा रखने का कोई प्रभावकारी प्रबंध करना आवश्यक होता है। यह काम दो प्रकार से किया जाता है,
एक तो हवा के द्वारा और दूसरे पानी के द्वारा। मोटर बाइसिकलों के छोटे इंजनों के सिलिडरों पर बाहर की तरफ पतली पतली बहुत सी पंखुड़ियाँ ढाल दी जाती हैं। मोटर साइकिल के दौड़ते समय, उन पंखुड़ियों से हवा के टकराने पर उनकी गर्मी, हवा के साथ ही लुप्त हो जाती है। हवाईजहाज के इंजनों में भी ऐसा ही किया जाता है। आधुनिक मोटरकारों में जल के माध्यम से संनयन प्रणाली द्वारा गर्मी शांत की जाती है। चित्र १८ में दिखाया गया है कि सिलिंडर और बाल्व प्रकोष्ठों के चारों तरु तथा ज्वलन कक्ष के ऊपर की तरफ पानी के परिवहन के निमित्त जैकेट बना दिए गए हैं। चित्र १९ के अनुसार समस्त सिलिंडरों के जैकटों के पानी को ऊपर की तरफ एक सर्वनिष्ठ मार्ग से मिलाकर, इस मार्ग में से एक नल रेडिएटर के ऊपरी छोर से लगाया गया है और रडिएटर के नीचे के छोर से एक नल सिलिंडरों के जैकटों के निचले सर्वनिष्ठ मार्गश् से संबंधित कर दिया जाता है। अंतर्दहन के कारण जैकटों का पानी गर्म हो जाने पर ऊपरी नल से रेडिएटर में प्रविष्ट होता है। मोटर के दौड़ते समय सामने से आने वाली हवा द्वारा तथा गाड़ी के खड़े रहते समय, अथवा मंद रफ्तार से चलते समय भीतर लगे पंखे से आनेवाली हवा द्वारा, रेडिएटर की बारीक नलियों, या झिरियों में घूमनेवाला पानी ठंढाश् होकर नीचे के नल में उतरकर सिलिंडर के जैकटों में लौट जाता है। इस प्रकार सिलिंडरो के जैकटो में गर्म हुआ पानी रेडिएटर में ठंढा होकर बराबर सिलिंडरों में चक्कर लगाकर उन्हें ठंढा रखता है। रेडिएटर की नलयों और झिरियां की बनावट चित्र २० में तीन प्रकार की दिखाई गई है। संन्नयन प्रणाली द्वारा पानी को परिभ्रमण करवाने के लिये अत्यंत आवश्यक है कि इंजन के मध्य धरातल से रेडिएटर काफी ऊँचा रहे जिससे गर्म पानी अपने न्यून घनत्व के कारण स्वत: ही उसमें ऊपर चढ़ सके। कई अभिकल्पनाओं में जब ऐसा होना संभव नही होता तब पानी के मार्ग में एक छोटा सा अपकेंद्री पंप लगा दिया जाता है जिससे पानी का बलात् परिभ्रमण करवाया जा सके। इस प्रकार का पंप चित्र २१ में दिखाया गया है। यह पंप बहुत ही कार्यक्षम हाता है जिससे इंजन शतलक प्रणाली का पानी काफी ठंढा रहता है। लेकिन ठंढे देशो में एक सीमा से नीचे ताप का पानी भी हानिकारक होता है, अत: इस पंप के साथ ही, रेडियेटर को गरम पान ले जाने वाले मार्ग में एक तापस्थायी लगा दिया जाता है। चित्र २२ में दिखाए गए इस उपकरण के भीतर क विशेष धातु की कुंडली, एक धुरी पर लगा दी जाती है। किसी एक नियम ताप के बाद यह कुंडली प्रसारित होती है जिस कारण उससे संबंधित प्लेट वाल्व खुल जाता है, और पानी अधिक ठंढा होने पर, कुंडली के सिकुड़ने से वाल्व बंद हो जाता है। इस वाल्व के खुलते ही पंप चालू हो जाता है। अत: इस प्रयुक्ति की सहायता से पानी का ताप एक सीमा के भीतर रहता है।
शक्ति प्रेषणश् इंजन से उत्पन्न होनेवाली शक्ति को सड़क पर चलनेवाले पहियों तक प्रेषित करने के लिये क्रमश: चार साधन मुख्य होते है। इस संत्रावाली में सबसे पहले क्लच के माध्यम से गिअर बॉक्स में शक्ति प्रेषित होती है। क्लच के ही द्वारा इंजन और शक्ति प्रेषण यंत्रावली का संबंध जोड़ा, या तोड़ा जाता है। मोटर गाड़ी को चालू करते समय कुछ मिनटों तक केवल इंजन को ही खाली चलने देना आवश्यक होता है, इसी प्रकार गिअर बॉक्स की चाल बदलते समय भी प्रेषण यंत्रावली से इंजन का संबंधश् जोड़ा, या तोड़ा जाता है। मोटर गाड़ी को चालू करते समय कुछ मिनटों तक केवल इंजन को ही खाली चलने देना आवश्यक होता है, इसी प्रकार गिअर बॉक्स की चाल बदलते समय भी प्रेषण यंत्रावली से इंजन का संबंध विच्छेद करना होता है। यह काम गतिपाल चक्र से क्लच को छुड़ानेश् से होता है। दूसरा आवश्यक साधन गिअर बॉक्स है, जिसके द्वारा गाड़ी की चाल मंद, तेज अथवा पलटी जा सकती है। इसके बाद तीसरा साधन नोदक धुरा है जिसके दोनों सिरों पर सर्वदिक् संधियाँ लगी होती हैं, जिनसे एक तरफ तो गिअर बॉक्सश् और दूसरी तरफ पिछले पहियों की चालक धुरी का संबंध मिलाया जाता है। चौथा अंतिम साधन पिछले पहियों की चालक धुरी है जिसके बीच में लगा प्रतिकारी गिअर पहले तो नोदक धुरे द्वारा प्राप्त इंजन की चाल को परिष्कृत कर उसे दोनों पहियों की तरफ समकोण में मोड़ देता है, दूसरे मोटर गाड़ी के घुमाव मार्ग पर चलते समय दोनों पहियों की चाल में आवश्यक समायोजन कर देता है। उपर्युक्त सब साधनों के स्थान चित्र १. और २. में दिखाए गए हैं।
क्लच - एक प्रकार का फंदा है, जो इंजन के घूमते हुए गतिपाल चक्र में फँसकर गाड़ीश् को शक्ति प्रेषण करनेवाले साधनों को चलाता है। सबसे सरल प्रकार का कोन क्लच होता है जिसकी बनाबट चित्र २३. में दिखाई गई है। इसमें गतिपाल चक्र को बीच में से शंक्वाकार खोखला कर उसमें उसी शंक्वाकार नाप के किनारे की एक थाली बैठा देते है, जो अपनी धुरी पर लगी एक कमानी के दबाव के कारण गतिपाल चक्र के खोखले में जाकर बैठ जाती है और दबाव के कारण उसके किनारों पर घर्षण होने से गतिपाल चक्र के साथ ही घूमकर गिअर बक्स की धुरी आदि को चलाती। क्लच का पादफलक दबाने से कमानी के दबकर छोटी होने पर वह थाली ढीली पड़कर गतिपाल चक्र को छोड़ देती है जिससे इंजन आजादी अकेला घूमता रहता है।
दूसरे प्रकार का क्लच डिस्क क्लच कहलाता है (देखें चित्र २४.)। इसमें काँसे और इस्पात की एकांतर डिस्कें जब तक कमानी के जोर से गतिपाल चक्र पर घर्षणयुक्त दबाव डालती हैं, तब तक गिअर बॉक्स का धुरा भी घूमता रहता है, और जहाँ पादफलक को दबाने से कमानी संकुचित हो जाती है, वे डिस्कें ढीली पड़कर गतिपाल चक्र को ढीला छोड़ देती है जिससे कि वह इंजन के साथ घूमता रहता है।
गिअर बॉक्स - अंतर्दहन इंजनों की यह विशेषता होती है कि वे जितनी ही अधिक तेजी से चलते हें, उतनी ही अधिक शक्ति का उत्पादन होता है। मान लीजिए कि कोई इंजन अपनी साधारण रफ्तार तार पर चल रहा हे और गिअर बॉक्स ४ से १ के अनुपात में है, तो गाड़ी को एक निश्चित मात्रा में शक्ति प्राप्त होती रहेगी जिससे वह समतल सड़क पर एक निश्चित रफ्तार से दौड़ेगी। अब यदि उस गाड़ी को एकाएक किसी ऊँचाई पर चढ़ना पड़े, तो इंजन पर अधिक भार पड़ने से वह धीरे चलने लगेगा जिस कारण कम शक्ति का उत्पादन होगा और फलत: गाड़ी भी मंद पड़ जाएगी। अत: गाड़ी की शक्ति को बनाए रखने के लिये यदि गिअर बाँक्स का अनुपात ६ से १ कर दिया जाए, तो गाड़ी के पहिए तो पहले की उपेक्षा २/३ रफ्तार पर चलेंगे लेकिन इंजन अपनी पहली रफ्तार पर ही चलकर उतनी ही शक्ति का उत्पादन करता रहेगा। गिअर बॉक्स को लगाने का उद्देश्य गाड़ी की चाल को यांत्रिक रीति से इस प्रकार बदल देना है कि जिससे इंजन अपने पूरे सामर्थ्यानुसार शक्ति उत्पादन भी करता रहे और उसपर जोर भी न पड़े। दूसरे समतल मार्गों पर भी आवश्यकतानुसार उसे मंद और तेज किया जा सकता है।
चार चाल युक्त गिअर बॉक्स का सिद्धांत- चित्र २५. में दिखाए गए गिअर (दंतचक्रों) द्वारा संबंधित एक तीसरी स्वतंत्र धुरी भी होती है जिसे प्रतिदंड कहते हैं । क चिहृित किर्रा क्लच धुरी पर पक्का कसा रहता है और पनाली धुरी पर ख, ग और घ चिहृित किर्रे इस प्रकार लगे रहते हैं कि उसके साथा घूमते तों हैं ही, लेकिन धुरी की लंबाई दिशा में आगे पीछे भी पनालियों के भीतर करकाए जा सकते हैं। प्रति दंड पर छ, ज, झ और ट चिहृित किर्रे एक ही स्थान पर कसे रहते हैं। किर्रे क और छ निरंतर एक दूसरे से जुटे रहते हैं, जिस कारण क्लच धुरी के साथ साथ ही प्रतिदंड भी घूमता रहता है। किर्रे ख, ग और घ कुता क्लच च के चिमटे द्वारालिवर की स्थिति के अनुसार पनालियों में आगे पीछे सरकाए जा सकते हैं। उदाहरणार्थ गिअर के लिवर को निम्न गिअर पर सरकाने से किर्रा घ, किर्रा ट से जुट जाता है। ऐसा करने से नोदक धुरी, जो पनाली धुरी से जुड़ी रहती है, घूमने का अनुपात किर्रे घ और ट के दाँतों की संख्या के अनुपातानुसार हो जाता है।श् गिअर बॉक्स की दूसरी रफ्तार प्राप्त करने के लिये किर्रे ग को सरकाकर किर्रे झ से जाड़ देते हैं। चौथी सर्वोच्च रपतार प्राप्त करने के लिये कुता क्लच च द्वारा क्लचच धुरी और पनाली धुरी को आपस में पक्का कर देते हें। यह काम क्लच च को किर्रे ख के भीतर बने खाँचों में घुसा देने से होता है। इस समय पनाली धुरी का क्लच धुरी द्वारा प्रत्यक्षा रीति से परिचालन होता है।
अधिचक्री गिअर बॉक्स- कुछ आधुनिकतम अमरीकन गाड़ियों में एक भिन्न प्रकार के गिअर बॉक्स का उपयोग होता है, जिसे स्वपरिवर्त्तक, अथवा पूर्व निर्वाचित गिअर भी कहते है। इसमें विभिन्न चाल देनेवाले किरें पहले से ही आपस में जुटे रहते हैं।श् इनके क्लच द्वारा, जिसे गिअर बॉक्स का ब्रेक भी कहते हैं, प्रत्येक जत्थे पर दाब पड़ते ही वह जत्था अपने आप काम करने लगता है और शेष जत्थे निष्क्रिय हो जाते हैं। चित्र २. में इस प्रकार के गिअर बॉक्स लगे दिखाए गए है। चित्र २६. में एक पूरे गिअर बाक्स की काट दिखाई गई है, जो अधिचक्री सिद्धांत पर काम करता है। इस दंत चक्रावली को सूर्य ग्रह गिअर भी कहते हैं, क्योंकि इसके किर्रे उसी प्रकार से घूमते हैं, जैसे कि सूर्य के चारों तरु ग्रह घूमा करते हैं। चित्र २७. में इनका विन्यास दिखाया गया है। बीच में लगी चालक धूरी को, इंजन द्वारा घुमाए जाने पर बाहर का वलयाकार दँतचक्र और भीतर के सभी किर्रे घूमते हैं, कि ग्रह दंतचक्र वाहक फ्रेम नहीं घूमता। जब किसी विशेष गिअर को चालू करना होता है, तब इसके बाहरी बलयाकार दंतचक्र पर क्लच अथवाश् ब्रेक लगा देते हैं जिससे वह तो स्थिर हो जाता है और भीतर का ग्रह दंतचक्र वाहक फ्रेम घूमने लगता है जिससे नोदक धुरी को चाल मिल जाती है। चित्र २८. में किर्रो मे घूमने की दिशा वाणों द्वारा प्रदर्शित की गई है। जिन आधुनिक गाड़ियों में इस प्रकार के गिअर बॉक्स लगाए जाते हैं, उनमें यांत्रिक ब्रेक के बदले द्रव चालित ब्रेक लगाए जाते हैं जिनकी क्रिया तात्क्षणिक और बलवान् होती है, युद्धोपयोगीश् टैंकों में भी इनका उपयोग किया जाता है।
नोदक धुरी आगे की तरफ से तो गिअर बॉक्स की प्रधान धुरीश् से पीछे की तरफ पिछले पहियों की चालक धुरी के व्यासांतरी गिअर बॉक्स से सर्वदिक् संधियों द्वारा जुड़ी रहती है। सड़क की ऊँचाई निचाई के कारण गिअर बॉक्स और चालक धुरे के गिअर बाँक्स और चालक धुरे के गिअर बॉक्स के संरखण में जो त्रुटि आ जाती है, वह सर्वदिक् संधियों की लचीली बनावट केश् कारण दूर हो जाती है।
व्यासांतरी (प्रतिकारी) गिअर बाँक्स - यह पिछले चालक धंरे के बीच लगा होता है। शक्ति प्रेषण यंत्रावली में यह बड़ी ही महत्व की चीज है, क्योंकि गाड़ी जब किसी घुमाव घुमती है, उस समय गोलाई की त्रिज्या के अंतर के कारण घुमाव की तरफ वाला पहिया कम और बाहर वाला ज्यादा चलता है। उस समय व्यासांतरी गिअर द्वारा उसका समायोजन हो जाता है। चित्र २९. में व्यासांतरी (प्रतिकारी) गिअर बॉक्स के क, ख, ग, और घ चिहृित चार पिनियन दिखाए गए हैं। इनमें से क और ख तो र्पिजरे में जड़ी हुई धुरियों पर घूमते हैं और ग एवं घ पहियों का घुमानेवाले आड़े धुरो पर लगे रहते हैं। चित्र २९. को देखने से पता चलेगा कि पहियों का पिछला धुरा दाएँ और बाएँ दो भागों में बँटा हुआ है। जब गाड़ी सीधी सड़क पर चलती है, तब तो ये धुरे नोदक पिनियन और चालक गिअर द्वारा प्राप्त शक्ति से ग और घ की चाल से चलते हैं, इस समय क और ख पिनियन इनमें रहनेवाले अंतराल के कारण स्थिर रहते है। जब घुमाव आता है, तब उसके तिरछेपन के कारण अंतराल खतम हो जाता है, उस समय क और ख पिनियन ग और घ बीवी किर्रो को चलाते हैं। अत: सड़क के दोनों पिछले पहियों के घूमने की चाल का अंतर क और ख के साथ जुटे हुए ग और घ के दंतानुपात के अनुसार होता है।
स्वप्रवर्तक (selfstarter)मोटर- मोटर गाड़ी के आविष्कार के आरंभिक काल में उसके इंजन का प्रपर्त्तन, रेडियेटर के सामने, नीचे की तरफ लगे हैंडिल को हाथ से घुमाकर किया जाता था, जो बड़ा ही परीश्रमसाध्य कार्य था। आधुनिक मोटरगाड़ियो में बैटरी से चलनेवाली एक छोटी सी मोटर लगा दी जाती है, जिसकी स्विच को दबाते ही उसकी धुरी पर लगा एक किर्रा, जो एक कमानी द्वारा अटकाया रहता है,श् धुरी पर बनी चौकोर चूड़ियों के कारण आगे सरककर तथा एक सर्पिल कमानी को दबाकर गतिपाल चक्र में एक क्लच को उलझा देता है, जिससे उस मोटर की ताकत से गतिपाल चक्र लगभ्भग एक आध मिनिट तक चलकर इंजन को चालू कर देता है। फिर इंजन के जोर पकड़ने पर वह क्लच स्वयं ही कतिपाल चक्र से हटकर मोटर को बंद कर देता है। चित्र ३०. में इस युक्ति का एक भाग दिखाया गया है।
भारवाहक कमानियाँ - इस प्रकार की कमानियाँ का प्रत्येक वाहन में विद्युत अधिक महत्व रहता है, क्योंकि सड़क की ऊँचाई निचाई के कारण पड़नेवाले झटकों को अपने में अवशेषित कर यह कमानी यात्रा की सुखद बना देती है। वाहन का समस्त बोझा ढाँचे पर लगी कमानियों के माध्यम से पहियों पर आ जाता है। मोटर गाड़ियों में प्राय: पत्तीदार कमानियों का ही अधिक उपयोग होता है। विभिन्न अभिकल्पना की गाड़ियों के ढाँचों में, परिस्थिति के अनुसार कमानियों को भिन्न भिन्न प्रकार से लगाया जाता है। चित्र ३१. में उन्हें लगाने के पाँच तरीके दिखाए गए हैं।
स्टियरिंग यंत्रावली- मोटरगाड़ी के संचालन में इसका बहुत उपयोग किया जाता है। चित्र ३२. में इसका साधारण विन्यास दिखाया गया है। इस यंत्र में एक स्तंभ के शीर्ष पर एक हस्तचक्र लगा है जिसे दाएँ बाएँ घुमाने से स्तंभ के भीतर की छड़ के निचले सिरे पर वर्म की चूड़ियाँ बनी हैं जिनके कारण उनसे जुड़ा हुआ एक खंड-दंत-चक्र २-३ दांत ऊपर, अथवा नीचे की तरफ नम्र की चाल के अनुसार घूम जाता है। इस खंड-दंत-चक्र से लगी स्टियरिंग भुजा भुजा आगे, अथवा पीछे सरक कर स्टियरिंग दंड को खींचती, या ढकेलती है, जिससे आगे के पहियों का धुरा तिरछा होकर गाड़ीको घुमा देता है। चित्र ३३. में स्टियरिंग छड़ की चूड़ियों को अलग से दिखाया गया है। आकृति में तो वर्म की ही चूडियाँ है जिनसे ऊपर बताए अनुसार खंड-दंत-चक्र ही चलता है, लेकिन आकृति ख में छड़ पर चौकोर चूड़ियाँ बनी हैं जिनके घूमने से एक बड़ा नट ऊपर नीचे सरकता है, जिसमें लगा पिन से अटक कर एक चिमटा त्रिज्यीय दिशा में सरककर उसके नीचे लगी भुजा द्वारा स्टियरिंग दंड को आगे पीछे सरकाता है।
ब्रेक - प्रत्येक स्वचली यान में- उत्तम प्रकार के ब्रेकों का होना अत्यंत आवश्यक होता है, जिनकी सहायता से उसे समय पर रोका जा सक। मोटर गाड़ियों में कई प्रकार के ब्रेक लगाए जाते हैं, जिनमें हस्त, अथवा पैर चालित ब्रेक के गुटके पहियों पर लगे ड्रमों को बाहर की तरफ से जकड़ कर घर्षण द्वारा गत्यवरोध करते हैं। दूसरे प्रकार के ब्रेक वे होते हैं, जिनमें पहियों के ड्रमों के भीतर लगे वृत खंडीय गुटके किसी कैम के घूमने से फैलाकर, ड्रम की भीतरी दीवारों से चिपट कर घर्षण के द्वारा पहियों की गति का रोधन करते हैं। चित्र ३४. में पिछले पहियों पर लगनेवाले भीतरी ब्रेक की बनाबट दिखई गई है। यह भी हाथ अथवा पैर चालित लीवरश् के बल से चलता है। चित्र ३४. में आगे के पहियों पर लगनेवाले ब्रेक की बनावट दिखाई गई है, क्योंकि गाड़ी के घूमते समय आगे का धुरा टेढ़ा तिरछा होता रहता है, अत: सर्वधिक् संधियों द्वारा इसकी बनावट लचीली बनाई जाती । आधुनिक मोटर गाड़ियों में द्रवचालित ब्रेकों का भी उपयोग होता है, जो बहुत ही शक्तिशाली होते हैं (देखें ब्रेक)।
प्रकाश - आधुनिक मोटर गाड़ियों में प्रकाश पर भी बड़ा ध्यान दिया जाता है, जो रात की सफर के लिये बड़ा आवश्यक है। विभिन्न लैंपों के लिये तारों का विन्यास दो प्रकार से किया जाता है। एक ध्रुवी और दो विन्यास क्रमश: चित्र ३६. और ३७. में दिखाया गया है। प्रकाश के लिये विद्युत शक्ति एक डायनामों द्वारा प्राप्त की जाती है जिसे चलाने के लिये सीधे इंजन, अथवा उससे चार्ज होनेवाली बैटरियों से शक्ति ली जाती हैं।
अग्रदीप (Headlight) - प्रकाश विन्यास में अग्रदीपों से ही मार्ग देखने में सहायता मिलती है। इसके परवियिक परावर्तकों में दो बल्ब लगाए जाते हैं। चित्र ३८. के अनुसार एक क बल्ब तो परावर्तक के केंद्र पी होता है, जिससे प्रकाश की समांतर किरणें बहुत दूर तक और वाहनों को चौंध से बचाने के लिये इसका उपयोंग अवांछनीय समझा जाता है। ऐसे अवसरों पर प्रकाश को सीधा न जाने देकर उसे नीचे की तरफ मोड़ देते हैं जिसे डिपर प्रकाश कहते हैं। इससे केवल नीचे की ओर सड़क पर ही प्रकाश रहता है। इस काम के लिये एक दूसरा बल्ब ख केंद्र से कुछ ऊपर उठाकर लगाया जाता है जिस कारण उसी परावर्तक से प्रकाश की किरणें तिरछी होकर सड़क की तरफ झुकाकर दूसरी जलाने के लिये स्विच को सरकाना मात्र ही काफी होता है।
नियंत्रक उपकरण - मोटर चालक के सामने रहनेवाले पट पर जिसे डैशबोर्ड भी कहते हैं अनेक प्रकार के प्रमापी-उपकरण और स्विच आदि, चालक की निगाह और हाथ की पहुंच के भीतर लगे रहते हैं। चित्र ३९. में ऑस्टिन १६ नामक मोटर गाड़ी का डेशबोर्ड दिखाया गया है, इनमें से पेट्रोलगेज और चाल प्रमापी गेजों का क्य्राा सिद्धांत नीचे संक्षेप में दिया जा रहा है:
पेट्रोल गेज - चित्र ४०. में दिखाया गया हैं कि पेट्रोल की टंकी में, उसकी सतह पर एक प्लव तैरता रहता है, इसके लीवर के दूसरी तरफ तर्जनी अंगुली के समान एक गतिमान् संस्पर्शक एक वृतखंडीय प्रतिरोधक पर, पेट्रोल के तेल के कम ज्यादा होने के अनुसार सरकता है। संस्पर्शक की स्थिति प्रतिरोधक के जिन बिंदुओं पर होती है उसी के अनुसार हलकी, या तेज विद्युत धारा बैटरी से प्रवाहित होकर धारामापक से नाप ली जाती है। इस धारामापक में विद्युत धारा की नापों के बदले पैट्रोल की मात्रा की माप लिखी रहती है।
चालदर्शी गेज - इस गेज की रचना चित्र ४१. में दिखाई गई है। गिअर बॉक्स की एक धुरी पर एक वर्म किर्रा लगा होता है और उसी से जुड़ा एक छोटा वर्म घुमता है, जिसके एक सिरे को लचीली धुरी द्वारा चालदर्शी गेज के भीतर सरकनेवाले रैकनुमा स्पिंडल से संबंधित कर देते हैं।श् इस रैक के नीचे एक खंड दंत चक्र और उससे संबंधित एक सुई लगी रहती है। इस रैकनुमा स्पिंडल के दूसरे सिरे पर अपकेंद्री गति नियामक यंत्र लगा रहता है। जब मोटर तेज चलती हैं, तब यह स्पिंडलश् भी उसकी तेजी के अनुपात से घूमता है।
जैसे जैसे मोटर की चाल तेज होती है अक्त नियामक यंत्र की गेंदें भी तदनुसार अपकेंद्री बल से बाहर को प्रक्षिप्त होती हैं, जिस कारण उनसे संबंधित रैक स्पिंडल भी दाहिनी तरफ सरकता है। स्पिंडल के सरकने से उससे जुड़ा हुआ दंतचक्र भी उसी के अनुसार घूमकर सुई को घुमा देता है।
सं० र्ग्र० - डब्लू० जे० लाइन्हम: मिकेनिकल इंजीनियरिग; मोटरिंग मैन्युअल: औरउहैम प्रेस, लंदन; एडवर्ड टी० ब्राउन: मोटरिंग फार ओनर ड्राइवर,: कासल ऐंड कंपनी, लंदन; ऑस्टिन १६ मैन्युअल; न्यू कार: फोर्ड कंपनी, कैनाडा लिमिटेड।श् [ओंकार नाथ शर्मा]