मोजा उद्योग का अंग्रेज पार्यायवाची होज़री (Hosiery) हैं। होज़री शब्द होज़ (hose) से बना है, जिसका अर्थ साधरणतया मोजा होता है। मोजों का निर्माण तथा मोजों का व्यवसाय होज़री के अंतर्गत आता है। इस उद्योग की बुनाई उद्योग (Knitting Industry) भी कहते हैं, क्योंकि इसमें बुनाई से ही सामान तैयार होते हैं।
बुनाई कला- बहुत प्राचीन में लोग इस कला से अनभिज्ञ थे, किंतु सौदागरों ने मिस्री सम्राटों को मुकुटों में हाथ द्वारा बुनी कलँगी पहनते देखा था। ५वीं शताब्दी में यह कला मिस्र देश में फलीफूली अवस्था में विद्यमान थी। यह कला वस्तुत: अरब वालों की देन थी। व्यापारियों द्वारा यह कला धीरे धीरे पश्चिमी देशों की ओर बढ़ी। इंग्लैंड में १४ वीं शताब्दी तक इस कला में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। प्रारंभ से इस कला द्वारा तारों और क्रोशिया हुक (crochet hook) से ही जालीदार, या फंदेवाले वस्त्र तैयार होते थे। यह कार्य आज भी अनेक घरों की महिलाओं द्वारा सलाइयों और क्रोशियें द्वारा किया जाता है। बहुत सी अनाथ महिलाएँ इस कार्य से अपनी जीविका चलाती हैं और करोडों रुपए का माल इस विधि से बुना जाता है। इसे हाथश् बुनाई कहते हैं। अब बुनाई की मशीनें भी बनी हैं और उनसे मोजे,श् ब्नियान, जाँधिया आदि बनते हैं। ऐसा वस्त्र लचीला होता हे, खींचने से बढ़ जाता हे और छोड़ देने से पूर्वावस्था में आ जाता है।
बुनाई की पहली मशीन निर्टघमशिर के कालबर्टन नगर में रेवरेंड विलियम ली द्वारा १५८८ ई. में बनी थी। इसको हैंड स्टॉकिंग फ्रेम नाम दिया गया था। ली ही बुनाई कला के जन्मदाता माने जाते हैं। आज भी इस कला की सिखाने के लियेश् उडवरों के निकट, ली के जन्म स्थान में, इनकी स्मृति में एक विद्यालय विद्यमान है। इस मशीन पर काम करनेवाले को फ्रेमवर्क निटर्स (Framework knitters) कहते हैं।
सन १६६३ के चार्टरश् (घोषणापत्र) के आधार पर फ्रेमवर्क निटर्स कंपनी नामक संस्था स्थापित हुई। इस कला का विकास प्रधानतया ग्रेट ब्रिटेन में हुआ, जहाँ इसकी अच्छी मशीनें आज बनती है और बाहर भेजी जाती है।
बुनाई संपन्न करने का प्रमुखश् साधन सूइयाँ हैं। इन्हें बुनाई मशीन की सूइयाँ कहते हैं। साधारण सीने की सुइयों से ये आकृति और गुणों में भिन्न होती हैं। बुनाई मशीन की ये सूइयाँ ही बुनाई उद्योग की कुंजी हैं। साधारणतया बुनाई मशीनों में दो प्रकार की सूइयाँ प्रयुक्त होती है। प्रारंभिक सूई का आविष्कार १५८९ ई. में रेवरेंड लीश् द्वारा हुआ था, जो हैंड स्टॉकिंग फ्रेम में प्रयुक्त हुई थी। इस सूई को स्प्रिंग बिअर्ड सूई कहते हैं। दूसरी सूई, लैंच सूई, का आविष्कार १८४९ ई. में मैथ्यू टाउंसेंड द्वारा हुआ था। दोनों सूइयों की आकृति यहाँ दी हुई है।
स्प्रिंग बिआर्ड सूई एक ही तार से बनी होती है। अत: यह सस्ती पड़ती है। इस सूई की पिंडली (shank) पर्याप्त लंबी होती है। इसके एक छोर पर समकोण मुड़ा बट (butt) होता है और दूसरे छोर पर एक लचीला हुक होता है। इसी हुक को बिअर्ड कहते हैं। यह सूई अधिक बारीक गेज (gauge) में बनाई जा सकती है, अत: बारीक बुनाई के लिये अधिक उपयुक्त होती है। लैच सूई की पिंडलों में निचले किनारे पर समकोण मुड़ा हुआ बट होता है और सूई के बीच में सुराख होता हैं। इस सुराख के कारण सूई कमजोर हो जाता है और बहुत बारीक नहीं बनाई जा सकती। विशेषज्ञों का मत है कि स्प्रिंग बिअर्ड सूई में कुछ तकनीकी कठिनाइयाँ हैं, जिनके कारण मशीन की चाल अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती ओर इसके उत्पादन क्षमता में वृद्धि के सब प्रयास अभी तक सफल नहीं हुए हैं और इस सूई को मशीन को स्वचालित (automatic) नहीं बनाया जा सका है।
लैंचश् सूई के आविष्कार से बुनाई में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। यद्यपि सूई का निर्माण कुछ कठिन होता है और खर्च कुछ अधिक पड़ता है, तथापि उत्पादन क्षमता में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। पीछे से इस सूई में बहुत सुधार हुए हैं। इस सुधार के फलस्वरूप एक इंच में अधिक से अधिक २७ सूइयाँ प्रयुक्त हो सकती हैं। ऐसी सूई की मोटाई ०.०२ इंच से अधिक नहीं होती है। इसमें आरी (saw) स्थान की मोटाई कम से कम ०.००७ इंच अवश्यश् होनी चाहिए हैं। इस सूई में अलग अलग तीन भाग होते हैं। इन तीनों को जोड़कर एक बनाया जाता है। लैंच सूई भी स्प्रिंग बिअर्ड सूई की भाँति हर स्थिति और प्रत्येक कोण पर रखकर प्रयुक्त की जा सकती हे, यद्यपि इसके लिये कुछ आवश्यक साधन अवश्य जोड़े जाते हैं, जो लैचों को ठीक समय पर बंद होने से बचाए रखते हैं। दुहरे हुकों की लैंच सूइयाँ काम में लाई जाती है। हुकदार सरकों (sliders) की सहायता से बरफी (rib), पाश (loop) अथवा बेलबूटे (purl) और सुजनीवाले कपड़ों का निर्माण किया जाता हैं।
जानकार लोगों का कहना है कि विलियम ली को हैंड फ्रेम के संबंध में अधूरा ज्ञान था। इन्होंने पाशों के पकड़ने वाले बिअर्ड सूई तथा पाश बनानेवाले सिंकरों (sinkers) और उतार फेंकनेवाले सिंकरों का प्रयोग तो किया, पर ये यांत्रिक साधनों में कठिनता उत्पन्न करते थे। इन्होंनें एक घूमनेवाला प्रेशर (दबानेवाला पुरजा) प्रयुक्त किया, जो सुई के बिअर्ड को, जब पाश बदलता था, बंद करता था। उनकी यह व्ययवस्था बुनाई मशीनों में अपरिवर्तित बनी रही, यद्यपि सूइयाँ, सिंकर आदि पुरजे कैम की सहायता से बाधा उत्पन्न करते थे। इससे मशीनों को चाल नहीं बढ़ी। १८५७ ई. में आर्थर पेजेट (Arthur Paget) एक ही भाग की घुमनेवाली,श् स्वचालित दंड सूई को थोड़ा हेर फेर के साथ काम में लाया। इससे तकनीकी कठिनाइयाँ बनी ही रहीं। कुछ वर्षो के बाद १८६४ ई. में विलियम कॉटन (William Cotton) ने इसकी सारी त्रुटियाँ दूर कर एक पेटेंट लिया (पेटेंट नंबर ३१२३-१८६४)। यह कॉटन पेटेंट याश् कॉटन पद्धति के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
ली द्वारा बनाई मशीन में बहुत समय तक केवल सादा कपड़ा, या मोजा ही बनाता था। १७५५ ई. में स्ट्रट (Strutt) ने इस बुनाई मशीन में परिवर्तन किया, जिससे मोजा उद्योग में बरफी (rib) बुनाई का कपड़ा बुनाना संभव हो सका। इस मशीन को १८७४ ई. में किडीर (Kiddir) द्वारा अधिक विकसित किया गया। लैच सूई के आविष्कार के बाद ही इसका विकास पूर्ण रूप से हुआ। अब मोजे के स्थान में इस मशीन में नाना प्रकार के वस्त्रों का निर्माण होने लगा। आज लगभग ५,००० किस्म की पोशाकें बुनाई मशीन से बनती हैं। ताना बुनाई के सिद्धांत पर बना कपड़ा पहले पहले १७५५ ई. में बना था। कुछ परिवर्तनों के साथ इस पेटेंट मशीन पर शक्ति द्वारा मशीन चलाकर कपड़े बने थे।
पादरी विलियम ली ने संसार के समक्ष जिस हस्तचालित फ्रेम को निर्मित करके प्रस्तुत किया, उसकी बेडौल रचना, जटिल कारीगरी एवं न्यून उत्पादन क्षमता से संपाश वस्त्र निर्माताओं को संतोष नहीं हुआ। यत्रनिर्माताओं का ध्यान पादरी ली द्वारा प्रस्तुत यंत्र में विद्यमान त्रुटियों की ओर तुरंत गया और इन महापुरुषों ने इन त्रुटियों पर विजय पाने के लियेश् कठोर परिश्रम किया। इस कार्य में विलियम कॉटन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। अत: सन् १८६४ ई. में उपर्युक्त सभी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त हुई। इस विजयश् का सेहरा विलियम कॉटन को प्राप्त हुआ। इन्होंने यंत्र में आगे और संभावित सुधार किया और कॉटन्स चेलेंजर निटिंग मशीन के नाम से राजकीय अधिकारपत्र प्राप्त किया। संवयन उद्योग ने पादरी विलियम ली द्वारा प्रस्तुत हस्तचालितश् फ्रेम को तथा इनके समकालीन अन्य संवयन यंत्रों की त्यागकर, चैलेंजर संवयन यंत्रों को ही अपनाया।
कूर्चिल अर्थात् स्प्रिंग बियर्ड सूई द्वारा संवयन- कूर्चिल सूई (देखें चित्र १) चाहेश् वह किसी भी संवयन यंत्र में प्रयोग की गई हो, सिंकर (sinker) तथा पीड़नचक्र (pressure wheel) के साथ निश्चित एवं आवश्यक संबंधों को स्थापित कर संवयन करती है। यंत्र में सूई प्रत्येक कोण पर स्थित रह कर कार्य कर सकती है। सर्वोत्तम ढंग ९०� के कोण पर प्रयोग का होता है। सूइयाँ सामुहिक अथवा स्वतंत्र और स्थिर अथवा गतिमान हो सकती हैं, किंतु प्रत्येक दशा में उनका संबंध पाश (लूप) निर्मित करने में सहयोग प्रदान करनेवाले मुख्य पुरजों (सिंकर एवं पीडन चक्र) के साथ अवश्य रहता है।
संवयन क्रिया में लैच सुई का प्रयोग - लैच सूई अपनी लंबाई में साधारण रीति से चलकर पार्शो के बनने की क्षमता रखती है। इस सूई से संवयन की तीन रीतियाँ प्रचलित हैं। सूई को ०� से १८०� तक किसी भी कोण पर रखकर प्रयोग किया जा सकता है, किंतु ९०� पर प्रयोग करने से उत्तम फल प्राप्त किए जा सकते हैं। तीन प्रचलित संवयन रीतियों में से प्रथम रीति में निमज्जकरहित सूई से पाश बुना जाता है। दूसरी पद्धति में नियंत्रक सिंकर (holding down sinker) का सुई के साथ प्रयोग किया जाता है। तीसरी रीति में कुर्चिल सूई के साथ प्रयोग किए जाने वाले सिंकर के समान कार्य करने वाले सिंकर प्रयोग किए जाते हैं।
आधुनिक समय में दूसरी पद्धति सर्वाधिक अपनाई जा रही है। इस पद्धति में पाश नियंत्रक (web holder) सिंकर काम में लाए जाते हैं। इस दशा में वस्त्र पर बिना खिंचाव के भी संवयन संभव है। इस प्रकार की मशीनों पर कार्य प्रारंभ करते समय अलग से, सूइयों के मुख में कपड़ा पहनाने की आवश्यकता नहीं होती, जैसा कि सिंकररहित यंत्रों में करना अत्यावश्यक होता है। इन यंत्रों में सूइयों के अंकुश (hook) में धागा देकर यंत्र को चालू कर देने मात्र से संवयन क्रिया प्रारंभ हो जाती है। चित्र २ में लैन सूई अपने मुख्य मुख्य भागों सहित प्रदर्शित की गई है।
संपाश वस्त्रश् उद्योग का प्रारंभ और विकास ग्रेट ब्रिटेन ने ही किया। वर्त्तमान काल में ग्रेट ब्रिटेन के संवयन यंत्र देखकर आश्चर्य चकित होना पड़ता है। इस कला का प्रचार इस समय लगभग सभी छोटे बड़े देशों में है। भारत में गोला आदि बुनने कश् एक कारखाना १८७२ ई० में लुधियाना में स्थापित हुआ था। इस समय लुधियाना इस कला का केंद्र बना हुआ है। यहाँ संवयक यंत्र बनाने के कई बड़े बड़े कारखाने हैं। पर हमारा देश अन्य देशों की अपेक्षा इस संबंध में बहुत पीछे है। [नाथूराम पांडेय]