मैक्समूलर, फ्रीडरिख मैक्सिमिलियन (१८२३-१९००) प्रसिद्ध जर्मन संस्कृतवेत्ता एवं भाषाशास्त्री मैक्समूलर का जन्म जर्मनी के देसो (Dessau) नगर में ६ दिसंबर, १८२३ को हुआ था। इनके पिता प्रसिद्ध जर्मन कवि विल्हेम मूलर (१७९४-१८२७) थे, जिन्हें हजर्मन मुक्तक प्रगीतों की विशिष्ट शैली 'फिल-हेलेनिक' प्रगीतों के कारण काफी ख्याति मिली थी। मैक्समूलर के चार वर्ष के होने पर उनके पिता का देहांत हो गया। इन्होंने १८४१ में लाइपसिंग विश्वविद्यालय से मैट्रिक पास किया।
सन् १८४६ में वे इंग्लैड पहुँचे जहाँ बुन्सेन तथा प्रो० एच० एच० विल्सन ने इन्हें 'ऋग्वेद' के संपादन कार्य में पर्याप्त सहायता पहुँचाई। सन्श् १८४८ में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस में ऋग्वेद का मुद्रण आरंभ होने के कारण इन्हें आक्सफोर्ड को ही अपना निवासस्थान बनाना पड़ा। सन् १८५० में ये वहीं आधुनिक भाषाओं के टेलर प्राध्यापक नियुक्त किए गए और बाद में क्राइस्ट चर्च (कालेज) के मान्य सदस्य (फेलो) तथा आल सोल्स (कालेज) केश् सदस्य (फेलो) हो गए। इस बीच इनके कई लेख प्रकाशित हुए,
जो बाद में 'चिप्स फ्रॉम ए जर्मन वर्कशाप' शीर्षक से संग्रह रूप में प्रकाशित हुए हैं। सन् १८५९ में इनकी पुस्तक 'हिस्ट्री आव एंशेंट संस्कृत लिटरेचर' प्रकाशित हुई। मैक्समूलर का प्रधान लक्ष्य आक्सफोर्ड में संस्कृत विभाग का संस्कृत आचार्य बनना था, किंतु सन् १८६० में उक्त स्थान के रिक्त होने पर मैक्समूलर का चुनाव सिर्फ इसलिए न हो पाया कि वे विदेशी थे और उनका संबंध 'लिबरल' दल के लोगों से था। उस स्थान पर मैक्समूलर को न लिया जाकर सर मोनियरश् विलियम्स की नियुक्ति की गई। इस घटना से मैक्समूलर को काफी धक्का पहुँचा । किंतु सन् १८६८ में इसकी पूर्ति हो गई और वे वहीं तुलनात्मक भाषाशास्त्र के आचार्य बन गए।
मैक्समूलर ने सन् १८६१ तथा १८६३ में रायल इंस्टीट्यूशन के समक्ष भाषाविज्ञान संबंधी कई व्याख्यान दिए जो 'लेक्चर्स आन सायंस ऑव लैंग्वेजज' के नाम से प्रकाशित हुए। यद्यपि इन व्याख्यानों के निष्कर्ष तथा तर्क पद्धति का ह्टिनी जैसे भाषाशास्त्रियों ने काफी विरोध किया, तथापि मैक्समूलर के इन व्याख्यानों का भाषावैज्ञानिक प्रगति के इतिहास में अत्यधिक महत्व है। मैक्समूलर ने भाषाविज्ञान को 'भौतिक विज्ञान' की कोटि में माना है, जबकि यह वस्तुत: ऐतिहासिक या सामाजिक विज्ञान की एक विधा है। मैक्समूलर ने भाषाशास्त्री के लिये संस्कृत के अध्ययन की आवश्यकता को इतना महत्व दिया है कि उनके शब्दों में सस्कृत-ज्ञान-शून्य तुलनात्मक भाषाशास्त्री उस ज्योतिषी के समान है जो गणीत नहीं जानता। मैक्समूलर ने यूरोपीय भाषाओं क तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया। इस कार्य में प्रिचार्ड, विनिंग, बाप तथा एडोल्फ पिक्टेट की गवेषणाओं से उन्हें पर्याप्त सहायता मिली। मैक्समूलर का एक अन्य प्रिय विषम धर्मविज्ञान पुराण-कथा-विज्ञान है। इस अध्ययन ने उन्हें तुलनात्मक धर्म की ओर भी प्रेरित किया। सन् १८७३ में उन्होंने 'इंट्रोडक्शन टू दि जिनियस ऑव रेलिजन्स' प्रकाशित की। इसी वर्ष इस विषय से संबंधित व्याख्यान देने के लिये वे वैस्ट मिनिंस्टर एबे में आमंत्रित किए गए। बाद में सन् १८८८ से १८९२ तक इस विषय पर उनकी अन्य पुस्तक चार भागों में प्रकाशित हुई, जो गिफर्ड लेक्चर्स के रूप में दिए गए भाषण हैं। उनक सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य ५१ जिल्दों में 'सैक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट' (र्पू के धार्मिक-पवित्र-ग्रंथ) का संपादन है। यह कार्य सन् १८७५ में आरंभ किया गया था, तथा तीन जिल्दों के अतिरिक्त समग्र कार्य मैक्समुलर के जीवनकाल में ही प्रकाशित हा चुका था। मैक्समूलर ने 'भारतीय दर्शन' पर भी रचनाएँ की हैं। अंतिम दिनों वे बौद्धदर्शन में अधिक रूचि रखने लगे थे, तथा जापान में मिले अनेक बौद्ध दार्शनिक ग्रंथों की गवेषणा में दत्तचित्त थे।
मैक्समूलर का संबंध अनेक यूरोपीय तथा एशियाई संस्थाओं से था। वे बोडलियन लाइब्रेरी के क्यूरेटर तथा यूनिवर्सिटी प्रेस के डेलीगेट थे। उनका देहांत २८ अक्टूबर, १९०० ई० का आक्सफोर्ड में हुआ। मैक्समूलर की फुटकल रचनाओं का संग्रह सर्वप्रथम १९०३ ई० में प्रकाशित हुआ था।
[भोलाशंकर व्यास]