मेहराब (डाट) साधारणतया अरवत् संधियाँ रखते हुए किसी भवन-निर्माण-सामग्री के प्राय: फन्नीनुमा खंडों का ऐसा योजन जो उन खंडों से बड़े किसी अंतराल को पाटने के काम आता है, मेहराब कहलाता है। मेहराब का नितल्ला बहुधा (किंतु सदैव नहीं) किसी वक्र रेखा का अनुसरण करता है। प्रयोग के अनुसार यह नाम किसी अंतराल को पाटनेवाली, किसी ऐसी संरचना के लिये भी दिया जाने लगा है, जो खंडों की नहीं, अपितु किसी समांग सामग्री की बनी हो, किंतु उसका तलंचा वक्र हो, जैसे कंक्रीट की डाट, प्रबलित कंक्रीट की डाट, लोहे की डाट आदि।

डाट का सिद्धांत बहुत पुराने समय से मनुष्य का ज्ञात था। यद्यपि इस संबंध में कोई ऐतिहासिक विवरण उपलब्ध नहीं है, फिर भी अनुमान है कि नव-प्रस्तर काल में जब मनुष्य ने किसी छेद, गड्ढे, या अंतराल पर एक साथ दो पत्थर डाले होंगे और वे नीचे न जाकर ऊपर ही पट गए होंगे, तभी उसनें डाट के सिद्धांत की खोज कर ली होगी। फिर तो उसने दो दो पत्थरों की ऐसी तमाम तिकोनी डाटें बनाई होंगी। जिनके अवशेष आज भी भूमध्यसागर के निकटस्थ क्षेत्रों में बिखरे हुए मिलते हैैं।

एक अन्य अनुमान के अनुसार डाट की खोज सर्वप्रथम दजला-फरात की घाटी में हुई, जहाँ ईसा से ४,००० वर्ष पूर्व डाटों का विकास होने के चिह्न मिलते हैं। दिंदेरेह में बने एक तहखाने में ३,६०० ई० पू० की बनी तीन मेहराबें मिली हैं। वास्तविक डाट का विकास भी अति प्राचीन टोड़ादार मेहराब से ही हुआ प्रतीत हाता है, जो भारत के प्रागैतिहासिक काल के निवासी नदी तट की चट्टनों से आगे बढ़ा बढ़ाकर शहतीर या शिलाखंड रखते हुए, और अंत में घटे हुए अंतराल को एक ही खंड से पाटकर, बनाया करते थे। कश्मीर और कुल्लू में इनके नमूने आज भी पुलों में देखे जा सकते हैं। मंदिरों मे तो बहुत बाद तक यही पद्धति अपनाई जाती रही। दजला-फरात की उर्वर घाटी में सुमेरियों के पास ईटं ही एक मात्र निर्माण सामग्री उपलब्ध थी। शायद कभी टोड़ादार डाट बनाते हुए ही कोई सुमेरिया अकस्मात् ईटों को घुमा बैठा, जिससे वे खड़ी हो गईं और डाट का छल्ला सा बन गया। उसे यह देखकर विस्मय हुआ होगा कि डाट का छल्ला अपने स्थान पर रूका रहता है यही वास्तविक डाट का आरंभ समझा जा सकता है।

मिस्त्र वालों ने पूरब के अपने पड़ोसियों से सीखकर इस कला का उपयोगितावादी अपने प्रयोजनों के लिये व्यापक प्रयोग किया। लगभग सभी नालियाँ उन्होंने डाटों से ही पाटीं। किंतु असीरियावालों ने डाट का उपयोग स्मारकीय तोरणों और द्वारों में किया। इटली में इन्हें कलात्मक रूप दिया गया। बाद में रोमनों ने अपनी स्मारकीय संरचनाओं में मेहराबों को प्रमुख स्थान दिया। प्राचीनतम रोमन पुल मार्टोरेल (स्पेन) में २१९ ई० पू० का बना हुआ है। इसकी बीच की मेहराब १२१ फुट की थी। रोमन मेहराबें अर्धवृताकार होती थीं और बीच में एक डाटपत्थर (key stone) हाता था। ये मेहराबें मुसलमानी निर्माणकला, तथा बाद में मध्यकालीन यूरोप में प्रयुक्त, नोकदार मेहराब से भिन्न थीं।

भारत में तीसरी शती ई० पू० की एक पुरानी मेहराबदार डाट लोमश ऋषि के आजीविका आश्रम में उपलब्ध है। सातवीं शती ई० पू० की डाटदार मेहराबें अनेक स्थानों में मिलती हैं।

१. टोड़दार डाट; २., भीतरगाँव (कानपुर) के मंदिर में ५वीं शती ई०की बनी मेहराबें; ४. ईरान की एक डाट (२५० ई०) तथा ५. और ६. बुद्ध गया में ७वीं शती ई० की बनी डाट।

किंतु पुलों में डाटों का प्रयोग मुसलमानों के जमाने से ही हुआ। मुसलमानी डाटें प्राय: नोकदार ही हुआ करती थीं।

रोमीय और मुसलमानी संस्कृतियों के साथ साथ मेहराब का महत्व बढ़ा और इसका प्रयोग भी व्यापक हुआ। १९वीं शती तक सभ्य संसार में पाटने की यही प्रमुख प्रणाली समझी जाती थीं। इसका प्रयोग बाद में लोहे और कंक्रीट के पदार्पण के साथ घटने लगा। अब मेहराबों का प्रयोग गौण और केवल आलंकारिक ही रह गया है। (देखें, डाटदार पुल)।

मेहराबों की आकृतियाँ------समय समय पर वास्तुकीय प्रवृति और व्यक्तिगत रूचि के अनुसार विविध प्रकार की मेहराबें बनती रही हैं। इनका नामकरण प्राय: इनके नितल्ले के वक्र के आधार पर (जैसे परवलयिक, बेजवी, अंडाकार, बादामी अथवा अर्धवृत्ताकार), या वक्र के केंद्रों की संख्या के आधार पर (जैसे द्विकेंद्रीय त्रिकेंद्रीय, चतुष्केंद्रीय आदि) होता रहा है। कुछ नाम शैली के आधार पर भी हैं, जैसे गॉथिक, ओगी आदि। जहाँ मजबूती की आवश्यकता मुख्य होती है, वहाँ प्राय: अर्धवृत्ताकार, या विभिन्न ऊँचाइयों वाली, बादामी डाटें ही प्रयुक्त होती हैं।

कुछ डाटों के नाम किसी स्थान विशेष से संबधित हैं, जैसे वेनिसी डाट, फ्लोरेंसी डाट। कुछ के नाम आकार के आधार पर हैं, जैसे त्रिशिखरी डाट, कोण डाट, पंड़ीदार डाट, पैरदार डाट, समबाहु डाट, चपटी डाट, तीखी डाट, या नाल डाट आदि । यदि डाट किसी

१.पैरदार, २. नाल, ३. गोल, ४. तीखी तथाश् ५. बैठी मेहराबें ;श् ६. फ्लोरेंसी डाटश् और ७. दीर्घवृताकार मेहराब ; ८. कमानी या बादामी, ९. अर्घवृताकार या अद्धे की, १०.ओगी, ११. फ्रांसीसी, १२. त्रिकेद्रीय, १३. पंचकेंद्रीय तथा १४. सहायक डाटें।

सरदल आदि की सहायता के लिये लगाई गई है, तो वह सहायक डाट कहलाती है। निर्माण कौशल के आधार पर भी नाम रखे गए हैं। जैसे सुगढ़ डाट, जिसमें सभी ईटें अच्छी तरह गढ़कर लगाई जाएँ; अधगढ़ डाट, जिसमें ईटें मोटे तौर पर ही गढ़ी हों; और अनगढ़ डाट, जिसमें ईटें बिना गढ़ी ही लगाई जाएँ और संधियाँ भीतर की ओर संकरी और बाहर की ओर चौड़ी हों।

मेहराब के अंग--------मेहराब का तलंचा प्राय: नितल्ला, अंत:स्तर, या मेहराबी शिकम कहलाता है। ऊपर की सतह को बहि स्तर कहते हैं। विभिन्न फन्नीनुमा खंड डाट पत्थर, या डाट ईटं कहलाते हैं, और शीर्षस्थ या मध्य का खंड चाबीपत्थर कहलाता है।सबसे नीचे वाले डाट के दोनों सिरे, जहाँ से डाट उठती है, उठान रेखा, और वहाँ लगनेवाले खंड उठानपत्थर या डाटाधार कहे जाते हैं। उठान से लेकर चाबी तक का भाग पुट्ठा, या कूल्हा कहलाता है। किसी कक्ष के चारों ओर से उठनेवाली डाटदार छत लदाव की छत कहलाती है, किंतु यदि छत का तलचित्र गोल है, तो वह गुंबद कहलाती है (देखें 'गुंबद')। किसी पुल, या बरामदे आदि, में अनेक डाटें हों, तो वह डाटपंक्ति कहलाती है। डाट या डाटपंक्ति के सिरों के आलंब अंत्याधार, या पीलापाए, और डाटपंक्ति के मध्यवर्ती आलंब पाए कहलाते हैं। डाट का सर्वोच्च बिंदु शिखर या शीर्ष, कहलाता है।

मेहराब के सिद्धांत-------फन्नीदार खंडों से डाट का निर्माण होता है, इसलिये नीचे की ओर की सक्रिय प्रत्येक खंड का भार उसके दोनों ओर के खंडों को बाहर की ओर ढकेलता है। फलत: डाट के नीचेवाले सिरों में फैलने की प्रवृति रहती है। इसे ठेल कहते हें। अर्धवृत्ताकार डाट के सिरे पूर्णतया ऊर्ध्वाधर रहते हैं, अत: उसमें ठेल शून्य होती है। बैजवी, या दीर्घवृत्ताकार डाट में भी ठेल बहुत कम होती है, किंतु जैसे जैसे पाट के अनुपात में डाट की ऊँचाई कम होती है, वैसे ही वैसे उसकी ठेल बढ़ती जाती है। डाट को स्थायी बनाने के लिये यह आवश्यक है कि उसके पीलपाये, या अंत्याधार (जिन पर डाट की ठेल पड़ती है) सारी ठेल रोकने के लिये पर्याप्त सुदृढ़ हों। जिन दीवारों पर डाट लगी हाती है, उनमें कभी कभी पुश्ते बना दिए जाते हैं, या वे अधिक मोटी कर दी जाया करती हैं। कभी-कभी ठेल रोकने के लिये उपयुक्त अंतर पर तान छड़ें लगा दी जाती हैं।

डाट के प्रत्येक खंड पर आनेवाले भार और उसकी क्षैतिज ठेल के परिणामी बल की स्थिति डाट छल्ले के अनेक स्थानों पर निकाल ली जाती हैं। परिणामी ठेल की रेखा रैखिक डाट कहलाती है। यह रैखिक डाट डाटछल्ले में सभी जगह मध्य तृतीययांश में ही रहनी चाहिए, ताकि छल्ले में कहीं भी तनाव न उत्पन्न हो। अंत्याधार पर डाट की ठेल और अंत्याधार के भार का परिणामी बल निकाल कर देखना चाहिए कि इस परिणामी बल की रेखा कहीं भी अंत्याधार की क्षैतिज काट के मध्य तृतीययांश से बाहर तो नहीं जाती, ताकि अंत्याधार में कहीं तनाव न उत्पन्न हो।

अभिकल्पन-----डाट के विभिन्न भागों की नापें अनेक अनुभवाश्रित सूत्रों, या व्यवहार संहिताओं के आधार पर नियत की जाती है, किंतु डाट के अभिकल्पन में उसकी सभी नापों की जाँच करना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यह देखना चाहिए कि प्रत्येक नाप सभी प्रकार सुरक्षापूर्ण है या नहीं। महत्वपूर्ण संरचनाओं में ये नाप जब तक भली भाँति परीक्षण से उपयुक्त न सिद्ध हों, निर्भर योग्य नहीं होतीं। परीक्षण के लिये ग्राफीय विधि सबसे सरल है, किंतु यह गणना द्वारा भी हो सकता है।

परीक्षण के लिये सुविधानुसार आधी डाट कई खंडों में बाँट ली जाती हे। प्रत्येक खंड पर आनेवाला भार उसके निजी भार सहित, भ, भ, भ, भ, आदि अलग अलग निकालकर जोड़ लिया जाता है, जो आधी डाट का भार भी होता है। किसी बिंदु, जैसे शीर्ष पर इन सभी भारों के घूर्ण निकालकर, समीकरण द्वारा 'भा' की क्रियारेखा की स्थिति ज्ञात कर ली जाती है। शीर्ष पर ठेल, ठ क्षैतिज होगी डाट के उठान के मध्य बिंदु पर ठ और भा के आघूर्ण निकालकर समीकरण द्वारा ठ का मान निकाल लिया जाता है। ठ ओर भा की क्रिया रेखाओं के मिलन बिंदु को उठान के मध्य बिंदु से मिलानेवाली रेखा ही परिणामी बल 'प' की क्रिया होगी, और ठ और भा दोनों का मान ज्ञात होने पर, गणना द्वारा, या रेखाचित्र से, बलों का चतुर्भुज बनाकर परिणामी बल प का मान ज्ञात किया जा सकता है। डाट छल्ले की माटाई शीर्ष पर ठ के, और उठान पर प के अनुरूप होनी चाहिए---इतनी कि यदि मध्य तृतीयांश किनारे परे भी पड़े, तो इनसे उत्पन्न अधिकतम संपीड़क प्रतिबल, अर्थात् औसत संपीड़क प्रतिबल का दूना, उस स्थान पर लगी सामग्री की सुरक्षित संपीड़न सामर्थ्य के अंतर्गत हो।

यह देखना भी आवश्यक है कि रैखिक डाट सवंत्र छल्ले के मध्य तृतीयांश के भीतर ही रहे। इसके लिये पहले ठ की क्रिया रेखा शीर्ष पर छल्ले के मध्य तृतीयांश के एक सिर, (मान लीजिए ऊपरी सिरे) पर से गुजरती हुई कल्पित कर लें। फिर गणना द्वारा या रेखाचित्र से, बलों का चतुभुर्ज बनाकर ठ और भ के परिणामी बल प की दिशा और मान ज्ञात कर लें। इसके बाद बारी बारी से आगे बढ़कर प और भ का परिणामी बल प और भ का परिणामी बल प आदि मालूम करते हुए अंत में प तक पहुंचे। प१,२,.........प तक सब की क्रिया रेखाएँ मिलने से रैखिक डाट बनेगी। यह सभी जगह छल्ले के मध्य तृतीयांश के भीतर ही होनी चाहिए।

अब यह क्रिया फिर से दुहराएँ, किंतु इस बार ठ की क्रिया रेखा शीर्ष पर छल्ले के मध्य तृतीयांश के निचले सिरे पर से गुजरती हुई कल्पित करें। इस प्रकार जो दूसरी रैखिक डाट बनेगी, वह भी सभी जगह छल्ले के मध्य तृतीयांश के भीतर ही पड़नी चाहिए। तात्पर्य यह है कि दोनों सीमांतक दशाओं में रैखिक डाट छल्ले के मध्य तृतीयांश में रहे, तब तो डाट सुरक्षित है, नहीं तो जहाँ कहीं रैखिक डाट, अर्थात् परिणामी बल की क्रिया रेखा, मध्य ततीयांश के बाहर पड़ेगी, वहीं संपीड़क प्रतिबल सीमा से अधिक होगा और उस काट में दूसरी ओर तनाव उत्पन्न होगा, जो अभीष्ट नहीं है। ऐसी दशा में डाट असुरक्षित है।

किसी भी जगह डाट छल्ले का काट-क्षेत्रफल भी इतना होना चाहिए कि वहाँ पर परिणामी बल से उत्पन्न संपीड़क प्रतिबल, वहाँ लगी सामग्री की सुरक्षित सामर्थ्य से, अधिक न हो।

कुछ अति प्रचलित, अनुभवाश्रित परिपाटियाँ--------पाट के अनुपात में ऊँचाई जितनी ही अधिक हो उतना ही अच्छा। ऊँचाई और पाट का अनुपात १/५ से कम होने पर ताप और संकुचन के प्रभाव तेजी से बढ़ने लगते हैं और नमन आघूर्ण तथा ठेल भी बहुत अधिक हो जाते हैं। यह अनुपात १/१० से कम तो होना ही चाहिए। अत्यधिक कफाियती अभिकल्पन के लिये यह अनुपात १/५ और १/३ के बीच में होना चाहिए। डाट छल्ले और अंत्याधारों में न्यूनतम सामग्री लगाने के लिये यह १/२ और १/४ के बीच होना चाहिए। बादामी, कमानी डाट देखने में शानदार लगती है।

डाट की ऊँचाई और पायों की ऊँचाई मिलाकर पाट से अधिक हो, तो अंत्याधारों, पायों, और पाखा-दीवारों में अत्यधिक सामग्री लगती है। बड़े पुलों में यह ऊँचाई पाट की आधीसे दो तिहाई के बीच में हो, तो अच्छा रहता है।

शीर्ष पर डाट-छल्ले की मोटाई म =१/३० पाट +१.१ फुट। बादामी डाट के लिये म = त्र, जहाँ त्र वक्र की त्रिज्या है और ग एक गुणांक, जिसका मान ईटं-चिनाई की अकेले पाट की डाट के लिये ०.४ और एकाधिक पार्टो के लिये ०.४५ होता है। पत्थर की डाटों के लिये ये मान क्रमश: ०.३ और ०.३५ हैं। रैंकिन सूत्र के अनुसार म = ०.१२ त्र; इसमें ग का मान ०.३५ निकलता है।

कंक्रीट, प्रबलित कंक्रीट और लोहे की डाटें---सादी कंक्रीट की डाटों के कुछ प्राचीन अवशेष मिलते हैं, किंतु इनका प्रचलन न लोकप्रिय हे और न कभी लोकप्रिय रहा ही प्रतीत होता है। उत्कृष्ट सामग्रियों और वैज्ञानिक विधियों के वर्तमान युग में इनके निर्माण का प्रश्न ही नहीं उठता। इतना कहा जा सकता है कि यदि ये डाटें कुछ समय टिकी रह सकी हैं, तो रैखिक डाट के ही सिद्धांत पर। प्रबलित कंक्रीट की और लोहे की डाटों में यह सिद्धांत लागू नहीं होता, क्योंकि इनमें तनाव ले सकने की भी क्षमता रहती है। प्रबलित कंक्रीट में तनाव लेने के लिये उपयुक्त मात्रा में इस्पात डाला जाता है। रैखिक डाट का सिद्धांत केवल इसलिये दृष्टिगत रखा जाता है कि रचना किफायती हो। लोहे की डाट में भी नितल्ले और उपरले भागों में जहाँ जितना प्रबलित दबाब, या तनाव, आने की संभावना होती है, उसी के अनुरूप इस्पात खंड लगाए जाते हैं। प्रबलित कंक्रीट, और विशेषकर पूर्व प्रतिबलित कंक्रीट, के इस क्षेत्र में आ जाने से लोहे की डाटें भी अब प्राय: नहीं बनतीं। लखनऊ में गोमती नदी पर लोहे की डाट का पुल, और पास ही प्रबलित कंक्रीट का तदनुरूप पुल, दर्शनीय है। इनका अभिकल्पन जटिल होता है। प्रतिबलों का अनुमान लगाने के लिये दुकीली डाट, या तिकीली डाट, की कल्पना की जाती है, अर्थात यह मान लिया जाता है कि डाट दो, या तीन कीलियों द्वारा जुड़े हुए खंडों की बनी है।

[विश्वंभरप्रसाद गुप्त]