मेरी रीड (अमेरिकन मैथोडिस्ट इपिस्कोपल मिशन) का जन्म ४ दिसंबर, १८५४ ई० में ओहायो (अमरीका) के नगर लोवेल में हुआ था। उन्होंन एम० ए० की परीक्षा ओहायो विश्वविद्यालय से १८७५ ई० में पास की। इसके उपरांत उन्होंने दस वर्ष तक पढ़ाने का कार्य किया।

१८८४ ई० में वह भारत आकर उत्तर प्रदेश के नगर कानपुर में मिश्नरी कार्य करने लगीं। इस नगर में उनका स्वास्थ्य कुछ खराब होने लगा इसलिये उनको पिथोरागढ़ भेज दिया गया।

स्वस्थ होने के उपरांत वह पुन: कानपुर आई। १८९० में वे अपना इलाज कराने के लिये अमरीका वापिस गईं।

अमरीका से लौटने पर वे चंदग (पिथौरागढ़) के कोढ़ीगृह में नियुक्त हुई। कुष्ठगृह की उन्होंने उचित तथा नए ढंग की व्यवस्था की। वह प्रात: चार बजे बिस्तर से उठती थीं और रात्रि के दस बजे सोने के लिये जाती थीं। वह कोढ़ी गृह के प्रत्येक सदस्य की कठिनाइयों को दूर करने की सदैव कोशिश करती थीं।

कुमारी मेरी रीड ने कुछ कोढ़ियों को गाएँ चराने का कार्य दिया और कुछ को खेतों में तरकारियाँ उगाने तथा फलों के पेड़ों में पानी, खाद, आदि देने का कार्य करने को दिया। शिक्षित वर्ग को दफ्तर का कार्य करने तथा अनपढ़ कोढ़ियों को पढ़ाने का कार्य दिया। स्त्रियों को कपड़ों की सिलाई करने और भोजन बनाने का कार्य दिया गया। इससे कोढ़ीगृह का काफी पैसा बचने लगा और इस बचत के रूपए से वह अच्छी दवाइयाँ विदेशों से मगवाने लगीं।

१९०९ ई० में कुमारी मेरी रीड ने कुष्ठगृह को और अधिक बढ़ाया। आधुनिक पुस्तकालय की स्थापना की गई। कोढ़ियों को पढ़ाने का उचित प्रबंध किया गया। मनोरंजन के विविध साधन जुटाकर उन्होंने कुष्ठगृह को आनंदगृह में परिवर्तित कर दिया।

श्कुष्ठ रोग बरसों से संपर्क से ही लगता है। कुमारी मेरी रीड ने सब कोढ़ियों को इस बात पर राजी कर लिया कि वे अपने बच्चों को अपने पास नहीं रखेंगे और उन्हें छात्रावास में भेज देंगे। सन् १९१० में कुमारी रीड ने इन बालकों के लिये एक स्कूल स्थापित किया जहाँ उनको उचित शिक्षा दी जाती थी। माता पिता तथा भाई बहन इन बालकों और बालिकाओं से केवल शनिवार को ही मिल सकते थे।

१९१४ ई० में लड़ाई छिड़ जाने से सभी आवश्यक वस्तुओं के दाम चढ़ गए। कोढ़ियों, स्कूल के बालक, बालिकाओं और कुष्ठगृह के कर्मचारियों की खानपान की व्यवस्था करना कठिन हो गया। फिर भी धैर्यपूर्वक अपने काम में जुटी रहीं।

१९१७ में अकाल पड़ जाने, हैजा फैलने तथा भूकंप आने से कुष्ठगृह की इमारते क्षतिग्रस्त हो जाने से उन्हें फिर संकट का सामना करना पड़ा पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।

भारत सरकार उनके काम से प्रभावित हुई और उसने उनकी मूल्यवान सेवाओं के लिये उन्हें कैसरे हिंद स्वर्ण पदक दिया।

१९२३ ई० में डॉक्ट म्योर तथा श्री ए० डोनल्ड मिल्लर (मंत्री, भारत में कुष्ठ रोगी मिशन ) चंदग कुष्ठगृह को देखने के लिये आए। वे कुमारी मेरी रीड के कार्यों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। डॉक्टर म्योर ने कुष्ठ रोग के विषय में कुमारी मेरी रीड को नई नई खोजों के बारे में बताया और यह सलाह दी कि नई खोजों का प्रयोग कुष्ठगृह में अवश्य करें।

कुमारी रीड का १० अक्टूबर १९४० में चंदग कुष्ठगृह की सेवा में ५० वर्ष पूरे हो गए। इस अवसर पर चंदग की जनता से उनकी मूल्यवान सेवाओं के उपलक्ष में महान् उत्सव मनाया। यह दिन उनके जीवन का महत्वपूर्ण दिवस था। इसी दिन अपने मकान की सीढ़ी से फिसल जाने के २४ दिन बाद ८ अप्रैल, १९४३ को उनकी मृत्यु हो गई। [मिल्टन चरण ]