मेचनिकाफ़ एली, (१८४५-१९१६) इस रूसी यहूदी का जन्म सन् १८४५ में खारकोव प्रदेश में हुआ था। इसने खारकोव विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वह इधर-उधर की किताबें ज्यादा पढ़ता, कक्षा में कम जाता और परीक्षा आने पर कुछ ही दिनों में रट रटाकर प्रथम स्थान प्राप्त कर लेता था और उनके न छपने पर आत्महत्या करने की सोचता था। उसके स्वभाव की विशेषता थी कि जहाँ विचार आया, बिना शोध या प्रयोग के सिद्धांत बना डाला और प्रचारित कर दिया। विरोध हुआ तो प्रमाण ढूँढने निकलता और असफल होने पर मरने की बात सोचने लगता।
अध्यापकों से लड़कर वह जर्मनी गया, रास्ते में डार्विन की किताब तो 'विकासवाद' का प्रचारक बन गया। वह लड़ता रहा ओर रूस, जर्मनी, इटली की प्रयोगशालाओं में काम करता रहा। १८६८ ई० में उसने क्षयरोगिणी लुडमिला से विवाह किया जो चार वर्ष बाद मर गई। सन् १८७० में वह ओडेसा आया और विश्वविद्यालय में जंतुविज्ञान और तुलनात्मक शरीर प्रसिद्ध थे। यहीं उसने ओल्गा से विवाह किया। सन् १८८२ में फिर झगड़ा कर के वह सिसली चला आया।
यहाँ सन् १८८३ में वह स्पंज और स्टारफिश का अध्ययन कर रहा था। इन पारदर्शक जीवों में उसने कुछ 'घुमंतू कोशिकाएँ' देखीं जो खाद्यकरण गटक जाते थे। मेचनिकाफ ने कार्मिन नामक रंजक का एक कण स्टारफिश के लार्वा में प्रविष्ट किया। तुरंत घुमंतू कोशिकाओं ने उसे घेर लिया। 'तो ये कोश बाहरी चीज हजम कर जाते हे!' बस जीवाणु देखने से पूर्व ही मेचनिकाफ ने सिद्धांत प्रस्तुत किया कि ये कोशिकाएँ जीवाणु चट कर जाती हैं और इसी से शरीर की प्रतिरक्षा होती है। महान् फिर्खों ने उसका विश्वास किया पर विज्ञान जगत् में घोर विवाद उठ खड़ा हुआ, वेहरिंग और काख ने उसे झूठा बताया। क्लास के सुझाव पर इन कोशिकाओं का नाम रमा 'भक्षक कोशिका' (फैगोसाइट) रखा गया। शीघ्र ही मेचनिकाफ ने प्रयोग किए और उन्हें जीवाणु भक्षण करते देखा। जलकीट और खमीर के बीज ने पहले प्रयोग में भाग लिया और शरीर प्रतिरक्षा विज्ञान का अनजाने ही जन्म हुआ।
१८८६ ई० में उसे लुई पास्चर का सहयोग मिला और वह पेरिस में काम करने लगा। यहाँ उसने शानदार तमाशे रचे, भक्त शिष्य पाए। उन्हीं की सहायता से विरोध पक्ष की यह धारणा कि भक्षक कोशिकाएँ केवल मृत जीवाणु खाती हैं, गलत सिद्ध की। उसके शिष्य बोर्डे ने उपदंश रोग की परीक्षा के लिये रक्त परीक्षा का सूत्रपात किया। सन् १८९२ में उसका भक्षण सिद्धांत मान लिया गया। १९०८ ई० में उसे नोबेल पुरस्कार मिला।
बाद मे उसे 'वृद्धाबस्था' के अध्ययन काश् शौक हुआ। रक्तवाहिनियों के कड़ी होने का कारण ढूँढते हुए उसने वनमानुष पर प्रयोग किए और उपदंश चिकित्सा के लिये प्रसिद्ध कैलोमेल मलहम ढूँढ निकाला। फिर उसने कहा कि सब रोगों की जड़ आँत के जीवाणु का विष होता है जिसका निवारण बलगेरियन दंडाणुओं से हो सकता है, जो खट्टे दूध में होते हैं। जीवन के अंत समय तक वह स्वयं सेरों मट्ठा पीता रहा। पर मट्ठा आँत के रोगों में लाभ करता है, वृद्धावस्था नहीं रोक सकता। इस विचित्र वैज्ञानिक का सन् १९१६ से में पेरिस में देहांत हो गया:
[भानुशंकर मेहता]