मेकियावेली, निकोलो (Machiavelli, Nicholo) का जन्म ३ मई, सन् १४६९ में फ्लोरेंस में हुआ था। सन् १४९४ में फ्लोरेंटाइन गणतंत्र की चांसरी में लिपिक के रूप में उन्होंने अपना सार्वजनिक जीवन प्रारंभ किया। सन् १४९८ में वे द्वितीय चांसलर तथा सचिव नियुक्त हुए और सन् १५०२ में सीज़रे बोर्जिया के पास भेजे गए। वापस आने पर सन् १५०६ में उनकी योजनानुसार एक विशेष सैन्य मंत्रालय की स्थापना हुई जिसके वे सचिव नियुक्त हुए। जब स्पेन की सैन्य सहायता से मेडिची परिवार ने पुन: फ्लारेंस में प्रवेश किया तब इन्हे सचिव पद से हटना पड़ा। कुछ समय कारावास में रहने के बाद सार्वजनिक जीवन से उन्होंने अवकाश ग्रहण कर लिया। फ्लोरेंस में २० जून सन् १५२७ को उनकी मृत्यु हो गई। उनके प्रमुख ग्रंथ हैं, फ्लोरेंटाइन हिस्ट्रीज, दि प्रिंस, स्केचेज ऑव फ्रेंच अफेयर्स, स्केचेज ऑव जर्मन अफेयर्स, दि आर्ट ऑव वार, डिसकोर्सेज ऑन दि फ़र्स्ट डिकेड ऑव टाइटस लिवियस।

मेकियावेली अपने युग के प्रतिनिधि दार्शनिक हैं। उनके विचारों में १६वीं शताब्दी की क्रांतिकारी प्रवृत्तियों की स्पष्ट छाप है। उनका दर्शन अधिकांशत: पैगनपाद की श्लाघा का प्रतिफल है। इटली में पैगनवाद के पुनरूदय से प्रेरणा प्राप्त मेकियावेली अपनी शिक्षा तथा स्वभाव दोनो से मध्ययुगीन यूरोपीय राजनीति के संवैधानिक तथा नैतिक आदर्शोे करे स्वीकार न कर सके। इस दृष्टि से उनका राजनीतिक दृष्टिकोण जितना व्यापक तथा स्पष्ट था, उनके राजनीतिक अभिसंधान उतने ही संकीर्ण तथा स्थानीय थे।

मेकियावेली के समय इटली पाँच राज्यों में विभक्त था। तथा कोई ऐसी शक्ति नहीं थी जो उसकी एकता स्थापित कर सके। पोप इटली में स्वयं एकता स्थापित करने के लिये अत्यधिक क्षीण होने के साथ ही साथ इतना शक्तिशाली अवश्य था कि किसी अन्य को ऐसा करने से रोक सके। वाणिज्य, बौद्धिक प्रखरता एवं कलात्मकसृजन शक्ति में अद्वितीय होने के साथ ही साथ इटैलियन समाज निकृष्टतम राजनीतिक तथा नैतिक भ्रष्टाचार का शिकार था। हिंसा और क्रूरता सरकार के सामान्य साधन हो गए थे, बल तथा धूर्तता सफलता की कुंजी थे। इस दृष्टि से मेकियावेली अंकुशरहित मनुष्य के राजनीतिक चिंतक हैं। वे ऐसे समाज के दार्शनिक हैं जिसमें व्यक्ति दंभ तथा स्वार्थपरता के अतिरिक्त अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रखता।

मेकियावेली के दर्शन में धर्म और राजनीति का केवल विच्छेद ही नहीं वरन् व्यावहारिक राजनीति के लिये धर्म को राजनीति के अंतर्गत रखा गया है। राजनीति उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये उन्होंने अनैतिक साधनों के प्रयोग की अनुमति दी। परंतु उन्होंने कभी इस बात पर संदेह नहीं किया कि किसी राष्ट्र का नैतिक पतन उसके लिये स्वस्थ सरकार असंभावित कर देता है। परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि शासक प्रजा का धर्म तथा उसके नैतिक मूल्य अपनाए। सेना के लिये अस्त्र भी उतने ही आवश्यक हैं जितना कि नैतिक स्तर, और बुद्धिमान शासक दोनों की उत्कृष्टता पर ध्यान देता है। अत: मेकियावेली ने नैतिकता के दो स्तर बताए, एक शासक के लिये तथा दूसरा शासित के लिये। पहले का मापदंड है शक्ति अर्जित करने में शासक की सफलता; दूसरे का, समाज को शासित के आचरण से प्राप्त होनेवाली शक्ति। शासक समाज से परे है, और इसलिये उसमें आरोपित होनेवाली नैतिकता से भी राष्ट्र की सुरक्षा शासक परधर्म है जिसकी प्राप्ति के लिये उसे नीति अनीति का विचार नहीं करना चाहिए। उनके ग्रंथ 'दि प्रिंस' में तथा अन्य रचनाओं में नैतिकता की अद्भुत असंगतियाँ देख पड़ती हैं। पढ़ते समय जो अंश आप के सामने ही उसके अनुसार आप उन्हें साधु समझ सकते हैं या असाधु।

मेकियावेली के दर्शन में राजनीति तथा नैतिकता के विच्छेद का दूसरा कारण है शक्ति के प्रति उनकी आस्था। तीसरे, आदर्श राज्य की कल्पना के बजाय उन्हें मानव अस्तित्व की वास्तविकताओं से अधिक रूचि थी। उनके अनुसार मनुष्य जिस प्रकार रहते हैं तथा जिस प्रकार उन्हें रहना चाहिए, इन दोनों स्थितियों में बहुत अंतर है। मनुष्य स्वार्थी आक्रमणकारी तथा लोभी है, उसकी इच्छाएँ असीमित हैं; फलत: मनुष्यों में परस्पर होड़ और संघर्ष चलतारहता है जिसे यदि विधान के पीछे विद्यमान बल द्वारा संयत न किया जाय तो अराजकता फैल जाएगी। अत: सरकार का विशेष उद्देय जीवन तथा संपत्ति की सुरक्षा प्रदान करना है। सफल राज्य की स्थापना एक व्यक्ति द्वारा होती हैं और उसके द्वारा निर्मित विधान उसकी प्रजा का चरित्र निर्धारित करते हैं। नैतिक मूल्य तथा सामाजिक सद्गुण विधान से नि:सृत होते हैं और जब कोई समाज इतना भ्रष्ट हो जाय कि वह स्वयं अपना सुधार न कर सके तो उसे एक सर्व-शक्तिमान् विधायक के हाथों सौंप देना ही श्रेयस्कर है ताकि वह उसे स्वस्थ सिद्धांतों पर सँजो सके।

परंतु मेकियावेली ने सर्वशक्तिमान् विधायक का विचार सामान्य सिद्धांत के रूप में नहीं प्रतिपादित किया। ऐसे विधायक की आवश्यकता केवल दो स्थितियों में ही है: नये राज्य के निर्माण या भ्रष्ट राज्य के सुधार के लिये। परंतु निर्माण या सुधार के अनंतर राज्य स्थायित्व तभी प्राप्त कर सकता है जब जनता को सरकार में भाग लेने का अवसर दिया जाय तथा शासक विधानानुकूल शासन करे और जनता की संपत्ति एवं अन्य अधिकारों का समुचित आदर करे। भ्रष्ट राज्यों के लिये अधिराजक शक्ति एक प्रबल ओषधि है, परंतु फिर भी वह विष की भाँति है जिसे पूर्ण सावधानी के साथ ही प्रयोग करना चाहिए। अंतत: मेकियावेली एक जनतंत्रवादी विचारक थे।

मेकियावेली को आधुनिक राजनीतिक विज्ञान का प्रवर्तक कहा जाता हे क्योंकि उन्होंने राजनीति विज्ञान में ऐतिहासिक पद्धति को महत्व दिया, धर्म तथा नीति का राजनीति से विच्छेद किया, शक्ति सिद्धांत तथा सैन्य कला को प्रश्रय दिया, मानव समाज के विश्लेषण का मनोवैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया तथा राष्ट्र प्रेम एवं उपनिवेशवाद को मान्यता प्रदान की। फिर भी दो कारणों से उन्हें पूर्ण रूप से आधुनिक राजनीतिक चिंतक नहीं कहा जा सकता। प्रथमत: उन्होंने मानवीय क्रियाओं के पीछे भाग्य शक्ति स्वीकार कर अपने विचारों में प्रौढ़ोक्ति (myth) का समावेश किया, जिसे वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता; दूसरे, उनके विचार सरकार के विज्ञान से उतने संबंधित नहीं हैं जितने सरकार की कला से।

सं० ग्रं०-----चैंबड, ए फ़०: मेकियावेली ऐंड दि रैनासँ, लंदन, १९५८; डायर, एल० मेकियावेली ऐंड दि मार्डन स्टेट, बोस्टन, १९०४; पुलवर, जे०: मेकियावेली, लंदन, १९२७; बटरफील्ड, एच०: दि स्टेट क्रैफ्ट ऑव मेकियावेली, लंदन, १९५५; विलारी, पी०: दि लाइफ ऐंड टाइम्स आव निकोलो मेकियावेली (दो भाग) लंदन, १८९२; व्हिटफोल्ड, जे० एच०: मेकियावेली, ऑक्साफोर्ड, १९४७। [राजेंद्र अवस्थी]