मूत्रतंत्र (Urinary System) मनुष्य के मूत्रतंत्र में निम्नलिखित अंग होते हैं:-
(क) वृक्क (Kidneys) : मूत्र उत्पत्ति के स्थान, (ख) मूत्रवाहिनी (Ureter) : वृक्क से मूत्राशय तक मूत्र ले जानेवाली नलियाँ, (ग) मूत्राशय (Urinary bladder) : मूत्र को थोड़े समय के लिये संचय करने का स्थान तथा (घ) मूत्रमार्ग (Urethra) : मूत्राशय से बाहर मूत्र निकलने का मार्ग।
भ्रौणिकी (Enbryology)- कार्यो में अंतर होते हुए भी मूत्र तथा जननतंत्र दोनोें ही मध्यजनस्तर (mesodern) के माध्यमिक कोशिका पुंज (intermediate cell mass) से उत्पन्न होते हैं। इस पुंज के पार्श्व (lateral side) से प्राकवृक्क (metanephros) क्रमश: कपाल से पुच्छ की ओर (cranio caudally) बनते हैं। अल्पकालीन प्राकवृक्क की बाहिनी (duct) ही केवल स्थायी होती है। इसमें मध्यवृक्क की नलिकाएँ खुलती है। पश्चवृक्क लगभग दस लाख उत्सर्गी (excretory) नलिकाओं के पालियुक्त पुंज (lobulated mass), अंतिम वृक्क जनन छंद (metanephrogenic cap) को कहते हैं। इसी मध्यवृक्कवाहिनी से मूत्रवाहिनी नलिका निकलती है, जो ऊपर दो भागों में विभाजित होकर वृहत् आलवालिका (major calyces) तथा फिर अंतर्व्भाािजित होकर लघु आलवाल तथा संग्राहक नलिकाएँ बनाती है, जिनमें पश्ववृक्क की संबलित नलिकाएँ (convoluted) खुल जाती है।
मुत्राशय, अवस्कर गुहा (cloaca) के अंदर जननमूत्र विवर भाग तथा मध्यवृक्क वाहिनी की उभय उत्सर्गी वाहिनी से बनता है। बाद में मूत्रवाहिनी का कुछ भाग इसकी दीवारों में आ जाता है। तुलनात्मक शारीर (Comparative Anatomy) कशेरूक श्रेणी (vertebrate scale) में तीन विभिन्न उत्सर्गी अंग प्राक्वृक्क, मध्यवृक्क तथा पश्चवृक्क होते हैं। प्राकवृक्क केवल भ्रूणमत्स्य में, मध्यवृक्क सब मछलियों एवं जलचरों में तथा पश्चवृक्क इनसे ऊँची श्रेणी के जीवों में होता है।
वर्णनात्मक (Descriptive) शारीर
(क) वृक्क- मेरूदंड के दोनों ओर उच्च कटिप्रदेश में दो अंडाभ (ovoid) ग्रंथीय अंग होते हैं, जिन्हें वृक्क कहते हैं। प्रौढ़ वृक्क लगभग ११ सेंमी० लंबा, ५.५ सेंमी० चौड़ा, ३ सेंमी० मोटा तथा १२५ ग्राम भार का होता है। दाहिना वृक्क बाएँ से थोड़ा नीचे होता है।
वृक्क के चारों और घनी परिवृक्क वसा (perirenal fat) अंतर्नत शंकु (inverted cone) के आकार में तथा अवकाशी ऊतक (areolar tissue) का पुँज होता है। ये सब एक तंतुमय संपुट परिवृक्क प्रावरणी से घिरे होते हैं। इन सब के तथा अपनी रुधिर वाहिकाओं के कारण ही वृक्क अपने स्थान पर रहता है।
वृक्क में उग्र तथा पश्च पृष्ठ, बाह्य उपांत उत्तल होते हैं। आंतरिक उपांत अवतल होता है, जिसे नाभिका (hilum) कहते हैं और इसमें से वृक्कद्रोणि (renal pelvis) रुधिर वाहिकाएँ, तंत्रिकाएँ तथा लसीका वाहिनियाँ (lymphatics) जाती हैं।
वृक्क की संरचना- काटे हुए वृक्क में संपुट के अंदर गहरा लाल संवहन वल्कुट (cortex) और फिर मज्जका (medulla) दिखाई पड़ती है। मज्जका में कई त्रिकोणात्मक घने धारीदार क्षेत्र होते हैं, जिन्हें सूची स्तंभ कहते है। इनके शिखाग्र त्रिविमितीय प्रकार से एक वृक्क पैपिला (papilla) में खुलते हैं। वल्कुट में केशिकागुच्छ (glomeruli) तथा संवलित नलिकाएँ होती हैं तथा मज्जा में सारी संग्राहक नलिकाएँ समांतर सी होती है।
वृक्क के शारीरिक तथा शरीर क्रियात्मक इकाई को वृक्काणु कहते हैं। प्रत्येक वृक्क में लगभग दस लाख वृक्काणु होते हैं। केशिका गुच्छ, समीपस्थ तथा दूरस्थ संवलित नलिकाएँ और हेन्लि का पाश वृक्काणु के भाग हैं।
वृक्क धमनियाँ उदर महाधमनी से आती हैं। कभी कभी सहायक वृक्क धमनियाँ (accessory renal arteries) भी होती हैं। वृक्क शिरा (veins) निम्न महाशिरा (inferior vena cava) में खुलती हैं। लसीका वाहिनियाँ द्वितीय कटि कशेरूक के पास की परामहाधमनी लसीका ग्रंथियों में जाती हैं। वृक्क में अनुकंपी (sympathetic) तथा परानुकंपी (parasympathetic) तंत्रिकाएँ उदरगुहा जालक (coelisc plexus) से आती हैं।
वृक्कद्रोणि (Pelvis of the kidney) - मूत्रवाहनी के ऊपरी भाग को वृक्कद्रोणि कहते हैं। इसकी ऊपरी तथा निचली शिराएँ वृहत् आलवाल कहलाती हैं, जिनमें लगभग एक दर्जन लघु आलवाल होते हैं। वृक्कद्रोणणि की श्लेष्मा कला संक्रमण उपकला की होती है।
(ख) मूत्रवाहिनी - यह वृक्कद्रोणि से मूत्राशय तक लगभग ३१ सेंमी० लंबी तंतुमय पेशीय नली होती है। वृक्कद्रोणि मूत्रवाहिनी संगम (pelvi-ureteric junction), वृक्कद्रोणि मुख (pelvic brim) के ऊपर तथा मूत्राशय के समीप यह सँकरी होती है। इसमें संक्रमण उपकला की शलेष्मा कला होती है।
मूत्रवाहिनी में रक्त वृक्क धमनी, मूत्राशय धमनियाँ, जनन ग्रंथीय (gonadial) धमनी तथा मूल श्रोणि (common iliac) धमनी से आता है। शिराएँ वृक्क, जनग्रंथीय शिराओं तथा मूल श्रोणि शिराओं में जाती है। लसीका तंत्रिकाएँ धमनियों के साथ साथ परामहाधमनी (para aortic) तथा आंतर श्रोणि लसीका ग्रंथि समूह (internal iliac group of lymph nodes) में जाती हैं। तंत्रिकाएँ उदरगुहा (coeliac) तथा वृक्क गुच्छिकाओं (ganglia) से आती हैं।
(ग) मूत्राशय्ा-यह एक थैलीनुमा कलामय आशय होता है, जो रिक्त होने पर श्रोणि (pelvis) में तथा भरा होने पर उदर में भी प्रविष्ट करता (project) है। प्रौढ़ मूत्राशय में लगभग २२० मिली० की क्षमता होती है। इसका वर्णन चापछद (vault), पार्श्वभित्ति, आधार त्रिकोण (trigone) में किया जाता है। त्रिकोण दोनों मूत्रवाहिनी रध्रं (orifices) तथा आंतरिक मुत्र कुहर के बीच के त्रिकोणात्मक स्थान को कहते हैं।
इसकी संरचना हर दिशा में जाते हुए चिकने पेशीय तंतुओं से होती है। श्लेष्मकला संक्रमण उपकला की होती है। मूत्राशय के अंदर का भाग मूत्राशय दर्शक (cystoscope) से देखा जा सकताश् है। मूत्राशय में रक्त उत्तल तथा मूत्राशय धमनियों से आता है। इसकी शिराएँ एक मूत्राशय जालिका बनाती हैं, जो आंतर श्रोणि शिराओं में खुलती है। लसीका तंत्रिकाएँ धमनियों के साथ साथ आंतरश्रोणि लसीकाग्रथि समूह में जाती हैं। तंत्रिकाएँ श्रोणि जालिकाओं से आती हैं।
(घ) मूत्रमागर्-यह पुरूष में १८ से २० सेंमी० लंबा मूत्राशय के आंतर मूत्रकुहर से शिश्न के अंत पर बाहृा मूत्रकुहर तक होता है। वर्णनात्मक दृष्टि से इसके प्रॉस्टेट ग्रंथीय, कलामय तथा शिश्नीय (penile) भाग होते हैं। मूत्र करते समय छोड़कर मूत्र मार्ग केवल चीर मात्र होता है। प्रॉस्टेट ग्रंथीय भाग तीन सेंमी०श् लंबी ग्रंथि के अंदर होता है। इसमें शुक्र प्रसेचिनी वाहिनियाँ (ejaculatory ducts) खुलती हैं। सबसे छोटा कलामय भाग दो सेंमी० लंबे मूलाधार (perineum) में मूत्रपथ संबरणी (sphincter urethrae) से घिरा होता है। १५ सेंमी० लंबा शिश्नीय भाग शिश्न के मूत्रपथकाय (corpus spongiosum) में होता है। मूत्रमार्ग की आंतर अवरोधिनी, (sphincter) अनैच्छिक होती है। यह मूत्राशय के आंतर मूत्रकुहर के चारों ओर होती है। बाहृा अवरोधिनी ऐच्छिक नियंत्रण अवरोधिनी होती है।
स्त्री में मूत्रमार्ग प्राय: ४ सेंमी० लंबा होता है। यह मूत्राशय के आंतर मूत्रकुहर से मूलाधार कला को छिद्रित करता हुआ बाहृा कुहर तक होता है। बाहृा कुहर प्रघाण (vestibule) में योनि के ठीक अग्र भाग में होता है। मूत्रमार्ग में मूत्रमार्ग ग्रंथियाँ खुलती हैं। तथा इसकी श्लेष्मा कला सक्रमण उपकला कला की होती है। (धनश्याम सिंहल)