मूँगफली (Groundnut), या चीना बादाम, ब्राजील देश का देशज है। इसका वानस्पतिक नाम ऐरेकिस हाइपोजियआ (Arachis hypogea) है। भारत के किसी प्राचीन ग्रंथ में इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। १६ वीं शती के लगभग किसी पुर्तगाली पादरी द्वारा यह भारत लाई गई और मद्रास में इसकी खेती शुरू हुई तथा पनपी। फिर मद्रास से महाराष्ट्र और बाद में सारे देश में फैल गई। आज भारत के प्राय: सभी राज्यों में थोड़ी बहुत मूँगफली उपजती है, पर महाराष्ट्र और आंध्र राज्यों में अब भी यह सबसे अधिक उपजती है। इसकी पैदावार दिनों दिन बढ़ रही है। १९५५-५६ ई० में, जहाँ ३८ लाख टन मूँगफली पैदा हुई थी वहाँ १९६१-६२ ई० में बढ़कर ४६ लाख टन हो गई। आज समस्त संसार में प्राय: २,८०,००,००० एकड़ भूमि में इसकी खेती होती है। भारत के अतिरिक्त चीन पश्चिमी अफ्रीका और संयुक्त राज्य, अमरीका में इसकी खेती होती है।
बीज के आधार पर मूँगफली १२ किस्म की पाई गई है। इनमें से जो मूँगफली भारत में उपजाई जाती है, वह निम्मलिखित चार प्रकार की होती है :
कोरोमंडल किस्म, जिसे मॉरिशस किस्म भी कहते हैं। यह मोजैंबिक से आई है और मद्रास, सतारा तथाश् रायचूर में उपजाई जाती है। इसकी फसल साढ़े चार मास में तैयार हो जाती है। इसमें ४९ प्रतिशत तेल रहता है।
२ बंबई 'बोल्ड' किस्म, जो शोलापुर, बेलगाँव, अहमदाबाद तथा काठियावाड़ में उगाई जाती है। यह भी साढ़े चार मास में परिपक्व हो जाती है और इसमें ४९ प्रतिशत तेल रहता है।
(१) खानदेश किस्म, जो स्पेन से आई है। यह खानदेश, मध्यप्रदेश, गुंटूर और आर्कट में उपजाई जाती है। यह साढ़े तीनन मास में तैयार हो जाती है और इसमें ४८ प्रतिशत तेल रहता है।
(२) लाल नेटाल किस्म, जिसे लाल दाना भी कहते हैं सतारा, कोयंबतूर, अकोला, अमरावती, बुलदाना और बैतूल जिलों में उगाई जाती है। इसमें भी ४९ प्रतिशत तेल होता है।
मूँगफली खरीफ की फसल है। वर्षा ऋतु शुरू होने पर बोई जाती है। साधारणतया इसकी सिचाई नहीं होती, पर कहीं कहीं सिचाई की आवश्यकता पड़ती है। यह उष्णकटिबंधी और उपोष्ण कटिबंधी देशों में ३,५०० फुटश् की ऊँचाई तक उपजती है। यह सूखा, या पाला, या पानी लगना सहन नहीं करती। इसके लिये बलुई मिट्टी, दोमट मिट्टी और काली मिट्टी सर्वोत्कृष्ट होती है, भारी, चिकनी या कड़ी मिट्टी अच्छी नहीं होती।
मूँगफली में साधारणत: तेल लगभग ५०.० प्रतिशत, ऐल्युमिनायड २४.५ प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट ११.७ प्रतिशत, जल ७.५ प्रतिशत और राख १.८ प्रतिशत रहती है। भूनने से इसका समस्त जल और कुछ तेल नष्ट हो जाता है। मूँगफली का तेल खाया जाता और इससे वनस्पति घी बनता है। खली पशुओं को खिलाई जाती है, अथवा खाद के रूप में अकेले या अन्य खादों के साथ मिलाकर प्रयुक्त होती है। अन्य खलियों से इसमें नाइट्रोजन की मात्रा अधिक रहती है और इसका प्रभाव भी पौधों पर शीघ्र पड़ता है।
मँगफली की पैदावर बढ़ाने के लिये भारत के अनेक कृषि फार्मों में अनुसंधान कार्य हुए और हो रहे हैं। संकरण द्वारा ऐसे बीज प्राप्त हुए हैं जिनसे उपलब्धि २० प्रतिशत बढ़ गई है। मैसूर के हेब्बाल फार्मों में जो अनुसंधान हुए है, उनसे पता लगता है कि कितनी किस्म की कितनी दूरी पर पौधों के लगाने से उपज अधिकतम होगी। कुछ मूँगफली को ६�६ इंच की दूरी पर बोने से, कुछ किस्म की मूँगफली को ९ � ९ इंच की दूरी पर बोने से और कुछ किस्म की मूँगफली को १२�१२ इंच की दूरी पर बोन से सर्वाधिक उपलब्धि होती है। नेगी और दलाल ने पंजाब के समराला में जो अनुसंधान किए हैं, उनसे १२�९ इंच की दूरी पर बोने से सर्वाधिक प्राप्ति हुई है।
खाद के संबंध में, जो अनुसंधान हुए हैं, उनसे पता लगा है कि मूँगफली के लिये फास्फ़ेट और पोटैश विशेष रूप से लाभदायक हैं।
बी० वी० वेंकटराव �(B.V. Venkatrao)और गोविदराजन (Govind Rajan) द्वारा मैसूर में किए गए अनुसंधान से ज्ञात हुआ कि मूँगफली की उपज बढ़ाने में फ़ॉस्फोरस और चूने का विशेष हाथ है। केवल चूने से कोई लाभ नहीं पाया गया है।
पंजाब के समराला में मूँगफली के 'टिक्का' रोग पर विशेष कार्य हुआ है। 'बोर्डो' मिश्रण के साथ उर्वरर्को के व्यवहार से इस राग का प्रभाव बहुत कुछ कम किया जा सका है।
सं० ग्रं०- जी० वी० नारायण एवं सी० आर० शेषाद्रि : ग्राउंडनट कल्टिवेशन इन इंडिया, आई० सी० ए० आर० प्रकाशन, एल० एस० नेगी एवं जे० एल० दलाल : स्पेसिंग ऐंड मेन्युरिएल एक्सपेरिमेंट, पंजाब ऑयल सीड जर्नल, बी० वी० वेंकटराव एवं जी० वी० गोविदराजन : मेन्युरिंग ऑव ग्राउंडनट, मैसूर ऑयल सीड जर्नल (१९६०)। [ फूलदेव सहाय वर्मा]