मुहम्मदशाह (औरंगजेब का पुत्र और शाहजहाँ का पौत्र, रोशन अख्तार) १८ वर्ष की उम्र में २८ सितंबर, १७१९ ई० को सिंहासनरूढ़ हुआ और मृत्यु पर्यत (१५ अप्रैल, १७४८) शासन करता रहा। उसका पालन पोषण अंत:पुर के वातावरण में हुआ। वह सुंदर और बुद्धिमान था। उसका स्वभाव सर्वजनप्रिय और दृष्टिकोण उदार वा।

मुहम्मदशाह के समय तक मुगल साम्राज्य का विस्तार चरम सीमा पर पहुँच चुका था। सैय्यद भाइयों ने राजनीति पटल पर लगभग ७ वर्षों तक अपना प्रभुत्व स्थापित कर रखा था और मुहम्मदशाह तथा उसके पूर्वपुरुषों को नगण्य बना दिया था। मुगल दल के साथ संधि कर मुहम्मदशाह ने सैय्यद शासन का दमन कर दिया। भविष्य में उसने किसी भी मंत्री को इतना सशक्त नहीं बनने दिया जिससे उसकी सत्ता को आँच आती। जब वजीर निजामुलमुल्क अपनी राजनीतिक सत्ता का बढ़ाते हुए पाया गया तो उसे दक्षिण में शरण लेने पर बाध्य किया गया। क़मरुद्दीन खाँ को २२ जुलाई, १७२४ ई० का वजीर नियुक्त किया गया। यह बड़ा आलसी था। उसकी एकमात्र महत्वाकांक्षी बादशाह के कृपापात्र बनने की थी। मीर बख्शी खान-ए-दौरान इसका प्रतिद्वंद्वी था। वजीर और मीर बख्शी के परस्पर विरोध को प्रोत्साहन दिया जाता था। योग्य प्रांतीय शासकों को स्थानीय समस्याओं को सुलझाने में इतना व्यस्त रहना पड़ता था कि वे केंद्रीय दलबंदी में भाग लेने में असमर्थ रहते। बादशाह उन लोगों के विश्वासघाती कृत्यों की भी उपेक्षा करता और उनके साथ बड़ा घनिष्ठ संबंध रखता था। इस प्रकार ३० वर्ष तक मुहम्मदशाह ने राज्य किया किंतु मुगल साम्राज्य के विघटन की प्रवृत्ति को रोकना उसकी शक्ति के बाहर की बात थी।

पेश्वा बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठों ने गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया तथा बुंदेलखंड में प्रवेश किया और बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के पूर्वी प्रांतों को उजाड़ कर तत्कालीन राज्यपाल अलीवर्दी खाँ को चौथ देने के लिये विवश किया। मुहम्मद शाह ने इन प्रांतों की रक्षा करने के लिये घोर संघर्ष किया, परंतु असफल रहा। गुरिल्ला युद्ध में निपुण मराठों के सामने मुगल सेनाएँ न टिक सकीं। मुगल सेना के सरदारों के आपसी मतभेद के कारण सैन्यसंचालन भी ठीक न हो सका। राजधानी के समीप जाटों ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया और अलीमुहम्मद खाँ ने रोहिलखंड में अपना स्वतंत्र राज्य बना लिया। इसी प्रकार बंगाल में अलीवर्दी खाँ, अवध में सादत खाँ, इलाहाबाद में मुहम्मद खाँ, बंगाश, मालवा में राजा जयसिंह और दक्षिण में निजामुल्मुल्क प्रत्यक्ष रूप से स्वतंत्र हो गए, यद्यपि बादशाह से इनके कानूनी बंधन बने रहे।

नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण (१७३८-१७३९ ई०) कर मुगल साम्राज्य को गहरी क्षति पहुँचाई। करनाल के मैदान में भारतीय सेना को पराजित कर नादिरशाह ने मुगल बादशाह को हिरासत में ले लिया और दिल्ली पहुँचकर राजधानी को बड़ी नृशंसता के साथ लूटा। मयूर सिंहासन तथा अपार धनराशि प्राप्त करने के अतिरिक्त उसने सिंधु पार तक प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया। १० वर्ष के पश्चात् अहमदशाह दुर्रानी ने पंजाब पर आक्रमण कर दिया परंतु वह ११मार्च १७४८ ई० को सरहिंद के युद्धक्षेत्र में कमरुद्दीन खाँ और सफदरजंग मीर आतश से संचालित मुगल सेना के द्वारा पराजित कर दिया गया। विदेशी आंक्रामकों तथा सिक्खों और युद्धरत जमीदारों की हरकतों से पंजाब में अराजकता फैल गई।

मुहम्मदशाह ने जजिया को खत्म कर दिया तथा हिंदुओं को गोपनीय एवं शासन विभाग में नियुक्त किया। वह स्वामी नारायण सिंह का शिष्य था जिन्होंने १७३ ई० में शिवनारायणी संप्रदाय की स्थापना की थी। हिंदू एवं मुसलमानों के बीच उत्पन्न संघर्षों को दूर करने के लिये मुहम्मदशाह सहिष्णुता तथा उदारता का दृष्टिकोण अपनाता था और दोनों संघर्षरत वर्गो में समन्वय की स्थापना करता था। उसने जयपुर और मारवाड़ के राजपूत नेताओं के प्रति समझौते की नीति अपनाई। १७२४ ई० में महाराजा अजीत सिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अभय सिंह ७,०००/७,००० के पद पर नियुक्त कर दिया गया और १७३० ई० में उसे गुजरात का सूबेदार बना दिया जहाँ वह सात वर्षो तक शासन करता रहा। राजा जयसिंह, जिसने सैय्यदों के विरुद्ध मुहम्मदशाह का साथ दिया था, सशक्त हो गया। वह मालवा और आगरा के शासन के रूप में राज्य की सेवा करता रहा। वह मुगल एवं मराठों के बीच मध्यस्थता भी करता था। अन्य हिंदू शासक थे गिरधर बहादुर और भवानी राम। मालगुजारी विभाग में हिंदुओं को महत्वपूर्ण पद प्राप्त थे।

मुहम्मदशाह का काल कला और साहित्य के विकास तथा धार्मिक आंदोलनों की दृष्टि से बड़ा ही महत्वपूर्ण है। उर्दू साहिब की वृद्धि के लिये यह सबसे महत्वपूर्ण काल माना जाता है। वली, फैज, आर्जू, हातिम, सौदा, दर्द और मीर ताफी मीर आदि कवि इसी काल को अलंकृत करते हैं। मुहम्मदशाह के राजदरबार में तत्कालीन गणमान्य संगीतज्ञों का जमघट लगा रहता था। अदरंग और सदरंग के अतिरिक्त नइमत खाँ, रहीम सेन, देवी सिंह आदि कुछ प्रसिद्ध संगीतज्ञ थे। ज्योतिष विज्ञान का भी विकास हुआ और इसके लिये महाराजा जयसिंह का बड़ा ही योगदान रहा। शाह वलीउल्लाह, शाह कलीमुल्लाह, निज़ामुद्दीन औरंगाबादी तथा दिल्ली के शाह फखरुद्दीन से संबद्ध कुछ नए धार्मिक आंदोलन भी प्रकाश में आए। चिश्ती परंपरा को भी पुनर्जीवन मिला।

सं० ग्रं०- ईचिन, डब्लू० :लेटर मुगल्स, खंड २, कलकत्ता। सरकार, जे० एन० : फॉल ऑव द मुगल एंपायर, खंड १, कलकत्ता १९४९। [जहीरुद्दीन मलिक]