मुसहिफ़ी इनका नाम शेख गुलाम हमदानी था और ये मुरादाबाद-अमरोहा के निवासी थे। ये सन् १७७६ ई० में लखनऊ आए। इसके पहले इन्होंने दिल्ली में प्राय: १२ वर्ष तक रह कर कविता की शिक्षा प्राप्त की थी। उस समय नवाब आसफुद्दौला लखनऊ की गद्दी पर थे। मुसहिफ़ी मिर्जा सुलेमान शिकोह के यहाँ नौकर हो गए। आजाद का मत है कि अस्सी वर्ष अवस्था में सन् १८२४ ई० में इनकी मृत्यु हुई। इनका एक तजकिरा सन् १७९४ ई० में लिखा गया था। हसरत ने इनका जन्म ११६४ हि०, (सन् १७५१ ई०) में और मृत्यु छिहत्तर वर्ष की अवस्था में लिखी है।

मुसहिफ़ी ने उर्दू भाषा को स्वच्छ रूप देने तथा उसके उत्कर्ष के लिए बहुत प्रयत्न किया। बहुत से शब्दों का बहिष्कार किया और बहुत से नए शब्द प्रयोग में लाए। इनकी 'बहरुल् 'मुहब्बत' मसनवी प्रसिद्ध है। इन्होंने उर्दू कवियों के दो तजकिरे लिखे हैं तथा एक फारसी के कवियों का। इन्होंने बहुत सी ग़्ज़ाले तथा कसीदे लिखे हैं, जो कई दीवानों में संगृहीत हैं। इनकी शैली पर मीर, सौदा, इंशा, जुरअत तथा सोज़ सभी का थोड़ा थोड़ा प्रभाव है। यह बड़ी बहरों में शेर अच्छे कहते थे। क्लिष्ट काफिओं तथा नियमों का यह सरलता से प्रयोग कर लेते थे। आतिश, खलीक़, जमीर, असीर आदि इनके कई प्रसिद्ध शिष्य थे।

[रजिया सज्जाद जहीर]