मुलर, जोहैनीज़ पीटर (१८०१-१८५८ ई०) जर्मनी के सुप्रसिद्ध शरीरक्रिया विज्ञानी (physiologist) तथा तुलनात्मक शरीर रचनाविज्ञान (antaomy) विशेषज्ञ थे। इनका जन्म सन् १८०१ में कॉब्लेंज नगर में हुआ था। शिक्षा जर्मनी के विख्यात बॉन विश्वविद्यालय में हुई तथा इसी विश्वविद्यालय में इन्होंने १८२३ से १८३३ ई० तक अध्यापन कार्य भी किया। बाद में ये बर्लिन विश्वविद्यालय के शरीररचना और शरीरक्रिया विज्ञान विभाग के अध्यक्ष हुए।

मुलर ने प्रथम बार कहा कि शरीरक्रिया विज्ञान अन्य विज्ञानों पर निर्भर है। इसको पाठ्यक्रम में अलग विषय के रूप में मान्यता दिलाने का श्रेय भी मुलर को है। मुलर ने तंत्रिका और संवेदना की क्रिया पर विशेष शोध किया। इनका 'विशिष्ट तंत्रिका ऊर्जा नियम' प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार एक तंत्रिका एक ही संवेदना ग्रहण करती है। मुलर ने ही बताया कि संवेदना के अनुरूप ही बाह्य जगत का अनुभव होता है। सन् १८३० में प्रथम बार मुलर ने स्राव और उत्सर्जन का भेद बताया - स्राव विशिष्ट द्रव होते हैं, जो शरीर की किसी क्रिया के लिए आवश्यक होते हैं और उत्सर्जन शरीर के लिए अनुपयोगी पदार्थों का निष्कासन है। गर्भस्थ शिशु में मुलर नलिका (१८२५ ई०) तथा मेढक में लसिकाहृदय (१८३२ ई०) के अनुसंधान का श्रेय भी मुलर को ही है। इन्होंने अबुंदों पर कार्य किया (१८३८ ई०) और सोरोस्परमोसिस नामक परजीवी रोग का वर्णन किया (१८४१ ई०)। मुलर ने शरीर रचना के अध्ययन में तिल्ली, थाइमस, अवटु ग्रंथि और नाभिनाल को एक वर्ग में रखा और बताया कि ये ऐसी ग्रंथियाँ हैं जिनमें बाहर से संबंध स्थापित करने वाली वाहिनी नहीं है। उस समय नि:स्रोत ग्रंथियों और हॉरमोनों की कल्पना भी न थी।

जीवन के अंतिम भाग में ये समुद्री जीवजंतुओं और तुलनात्मक शरीर-रचना-विज्ञान पर कार्य करते रहे। १८५८ ई० में केवल ५७ वर्ष की आयु में इनका निधन हो गया। [भानुशंकर मेहता]