मुद्रास्फीति और अवस्फीति इन शब्दों का उपयोग प्रथम महायुद्ध के पूर्व भी किया गया था। किंतु इनका वैज्ञानिक ढंग से प्रचलन प्रथम महायुद्ध के पश्चात् ही आरंभ हुआ जबकि मुद्रा और कीमत संबंधी गड़बड़ियाँ उत्पन्न होने लगीं। युद्ध के बाद लगभग प्रत्येक देश ने स्वर्ण मान का परित्याग कर दिया जिससे स्वर्ण और विनिमय के माध्यम का संबंध ढीला पड़ने लगा और प्रजातांत्रिक सरकारों को लचीली मौद्रिक प्रणाली मिल गई। इसका समय समय पर उपयोग करके मुद्रा के परिमाण को सरलतापूर्वक परिवर्तित किया जाने लगा जिसके फलस्वरूप मौद्रिक गड़बड़ियों में उग्रता अधिक आने लगी और मुद्रास्फीति तथा अवस्फीति की समस्याएँ उत्पन्न होने लगीं।
परिभाषा - इन विचारों के संबंध में मतैक्य न होने के कारण १९३० तक मुद्रास्फीति वह अवस्था कही गई जिसमें मुद्रा का परिमाण वस्तुओं की मात्रा की अपेक्षा अधिक बढ़ जाता है जिससे कुछ वस्तुओं को खरीदने के लिए अपेक्षाकृत मुद्रा का अधिक परिमाण हो जाता है और वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। इस प्रकार कीमतों की वृद्धि को ही मुद्रास्फीति समझ लिया गया। जब मुद्रा की पूर्ति मुद्रा की माँग से अधिक हो जाती है तो वस्तुओं की कीमतें बढ़ने लगती हैं परंतु मुद्रा का मूल्य कम होने लगता है जिसके कारण मुद्रा की एक इकाई पहले की अपेक्षा कम वस्तुओं की मात्रा क्रय कर पाती है। मुद्रा की माँग वस्तुओं और सेवाओं को क्रय करने के लिए की जाती है जबकि उसकी पूर्ति मौद्रिक संस्थाओं के द्वारा की जाती है। इसी कारण जब मुद्रा का परिमाण देश की उचित व्यापारिक आवश्यकता से अधिक हो जाता है तो वस्तुओं की कीमतें बढ़ने लगती हैं जिसको मुद्रास्फीति कहा जाता है। परंतु जब मुद्रा का परिमाण देश की व्यापारिक आवश्यकता से कम रहता है तो अवस्फीति उत्पन्न हो जाती है। ऐसी अवस्था में वस्तुओं की अधिक मात्रा की मुद्रा की कुछ इकाइयाँ पीछा करती हैं। इस प्रकार का (मुद्रा परिमाण संबंधी स्फीति और अवस्फीति का) विचार, मुद्रा परिमाण संबंधी अर्थशास्त्रियों का ही था, जो मुद्रा के परिमाण की वृद्धि को ही कीमतों की वृद्धि या मुद्रास्फीति का कारण समझ लिया करते थे। यह वैज्ञानिक प्रतीत नहीं होता।
परंतु सब प्रकार की कीमतों की वृद्धि मुद्रास्फीति नहीं कहीं जा सकती। पूर्ण रोजगार से कम की दशा में कीमतों की वृद्धि को स्फीति न कहकर संस्फीति कहना अधिक उचित है। इस प्रकार की कीमत की वृद्धि मजदूरी बढ़ने और उत्पत्ति ्ह्रास मान के कारण प्रति इकाई उत्पत्ति की लागत की वृद्धि के कारण हो जाती है। ऐसी कीमत की वृद्धि लाभदायक होने के कारण उत्पादकों को विनियोजन की वृद्धि के लिए प्रोत्साहित करती है। प्रो० जान मेनर्ड कींस ने मुद्रास्फीति को उस कुल खर्च से संबंधित किया जिसे समाज सामान्यत: उपभोग ओर विनियोजन की वस्तुओं पर व्यय करता है। उपभोग और विनियोजन पर किया गया व्यय प्रभावशील माँग निश्चित करता है जो राष्ट्रीय आय और रोजगार को निर्धारित करता है। इस प्रकार पूर्ण रोजगार की स्थापना के पश्चात् भी जब विनियोजन बढ़ता जाता है तो स्फीतिक अंतर उत्पन्न हो जाता है। जिसके कारण मुद्रास्फीति और कीमतों में तीव्र गति सेश् वृद्धि होने लगती है। क्योंकि पूर्ण रोजगार में वस्तुओं की मात्रा बढ़ती नहीं है, वस्तु की पूर्ति शून्य लोचदार हो जाती है। ऐसी दशा में यदि कुल खर्च बढ़ता जाता है तो वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ने लगती हैं। अत: वास्तविक रूप में स्फीति दशा तभी उत्पन्न होती है जब पूर्ण रोजगार स्थापित हो जाता है। प्रो० कींस का कहना है कि 'जब तक पूर्ण रोजगार नहीं रहता तब तक मुद्रा के परिमाण के परिवर्तन के अनुपात में ही रोजगार परिवर्तित होगा, परंतु पूर्ण रोजगार के पश्चात् कीमतों में परिवर्तन मुद्रा के परिमाण के परिवर्तन के अनुपात में ही होगा।' इस प्रकार की स्फीति कीमत की वृद्धि या प्रभावशील माँग के पूर्ण रोजगार की आय से अधिक बढ़ जाने के कारण है, न कि मुद्रा के परिमाण के कारण।
प्रकार एवं कारण - युद्धकाल में जब सरकार उपभोक्ताओं की बढ़ी हुई आय के प्रभाव को मूल्य नियंत्रण या राशनिंग के द्वारा वस्तुओं की कीमतों पर नहीं पड़ने देती है तो बंद स्फीति की दशा उत्पन्न हो जाती है जो युद्ध के पश्चात् भिन्न नियंत्रणों के हटाए जाने पर खुली मुद्रास्फीति में परिणत हो जाती है। यदि कीमत स्थिर भी रहती है तो भी वैज्ञानिक आविष्कारों एवं औद्योगिक संगठन की उत्तमता के कारण प्रति इकाई उत्पत्ति की लागत गिरने लगती है जिससे स्फीति की अवस्था पैदा हो जाती है जिसको प्रो० कींस ने लाभस्फीति कहा । स्फीति, लागत या प्रभावशील माँग की वृद्धि या दोनों के फलस्वरूप उत्पन्न हो सकती है।
स्फीति सरकारी वित्त से अधिक संबंध रखती है। जब सरकार युद्ध या अन्य रचनात्मक कार्यों के लिए करों और ऋणों से पर्याप्त आय नहीं प्राप्त कर पाती तो घाटे की अर्थव्यवस्था करती है और बजट के घाटे को बैंकों से उधार लेकर या नई मुद्रा की मात्रा को बढ़ाकर पूर्ण करती है, जिसके कारण मुद्रा का कुल परिमाण बढ़ जाता है परंतु उसी अनुपात में वस्तुओं की मात्रा की वृद्धि नहीं हो पाती जिससे स्फीति की दशा उत्पन्न हो जाती है। ऐसी अवस्था में जब तक सरकार को आय प्राप्त हो तब तक उसका खर्च, कीमतों के बढ़ जाने के कारण, पहले की तुलना में कई गुना बढ़ जाता है। बजट के घाटे की पूर्ति वह और अधिक नई मुद्रा की निकासी से करती है। अत: मुद्रास्फीति पुन: स्फीति को जन्म देती है जिससे मुद्रास्फीति का द्रूतगामी स्वरूप उत्पन्न हो जाता है। इसके मूल में मुद्रा के औसत चलन की गति की वृद्धि ही है। जर्मनी में १९२३ में मुद्रा का परिमाण ५००,०००,०००,०००,०००,०००,००० मार्क्स हो गया जिसके कारण अमेरिका का एक सेंट १०००,०००,०००,००० मार्क्स के बराबर हो गया और १०००,०००,०००,००० मार्क्स एक स्थानीय पत्र का पोस्टेज हो गया था। इस द्रूतगामी स्फीति से बचने के लिए जर्मनी ने मार्क्स के स्थान पर रैनटन मार्क्स का प्रचलन किया। युद्धकाल में लगभग सभी देशों में कम अधिक मात्रा में स्फीति की अवस्था उत्पन्न हो गई थी।
अत: जहाँ मुद्रास्फीति में वस्तुओं की कीमतें बढ़ती हैं और मुद्रा की क्रयशक्ति गिरती है वहाँ अवस्फीति में वस्तुओं की प्रचुरता रहती है और कीमतों की गिरावट होती है तथा मुद्रा की औसत क्रयशक्ति बढ़ जाती है। स्फीति (या अवस्फीति) का कारण (१) मुद्रा के परिमाण की वृद्धि (या कमी), (२) वस्तुओं की मात्रा की न्यूनता या प्रचुरता या वस्तुओं की लोचहीन पूर्ति (या लोचदार पूर्ति), (३) मुद्रा के चलन की गति की वृद्धि (या कमी), (४) साख का अधिक विस्तार (या संकुचन), (५) प्रभावशील माँग की वृद्धि (या कमी), तरलता की कमी (या अधिकता) पसंदगी हो सकती है। मुद्रास्फीति और अवस्फीति का आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण हो सकता है जिसका संबंध व्यापारिक चक्र से है।
माप - मुद्रा के परिमाण और कीमतों में प्रत्यक्ष संबंध है परंतु मुद्रा का मूल्य वस्तुओं की कीमत से परोक्ष रूप से संबंद्ध है। इसीलिए मुद्रा के मूल्य के परिवर्तनों के लिए निर्देशांकों का उपयोग किया जाता है। जब किसी वर्ष का निर्देशांक आधार वर्ष से अधिक हो जाता है तो सामान्य मूल्यस्तर अधिक समझा जाता है और मुद्रा क मूल्य गिरा हुआ समझा जाता है जो स्फीति का द्योतक है।
प्रभाव - स्फीति और अवस्फीति का प्रभाव भिन्न वर्ग पर अलग अलग पड़ता है। स्फीति (या अवस्फीति) में सभी वस्तुओं की कीमतें एक ही अनुपात में परिवर्तित नहीं होतीं - कुछ अधिक तो कुछ कम, तो कुछ में गिरावट भी हो सकती है। परंतु इनका औसत अधिक वृद्धि (या कमी) की ओर संकेत करता है। इस प्रकार स्फीति से विनियोजकों और उद्योगपतियों को लाभ प्राप्त होता है। ऋणी को लाभ होता है, क्योंकि भुगतान में उसको कम क्रयशक्ति देनी पड़ती है। सरकार अपने ऋण के भार को कम कर लेती है। कृषकों को भी लाभ होता है। रोजगार और श्रमिकों की आय में वृद्धि होती है। परंतु स्फीति में सरकार के बजट का घाटा बढ़ जाता है - आय कम और खर्च अधिक हो जाता है। मध्यम और स्थिर आय वाले व्यक्तियों को हानि होती है। कीमतों में अधिक वृद्धि होने के कारण मजदूरी कीमतों से संतुलित नहीं हो पाती, मजदूरी और भत्ते की माँग के बढ़ने के कारण औद्योगिक अशांति उत्पन्न होने लगती है। धन और आय के वितरण की असमानता बढ़ जाती है। रहन सहन का स्तर, बचत और पूँजी का निर्माण कम हो जाता है। पूँजी का विदेशों को पलायन होने लगता है। सट्टे की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। अस्थिरता एवं अनिश्चितता का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। निर्यात कम और आयात बढ़ जाते हैं। भुगतानतुला विपरीत हो जाती है जिससे देश का दिवाला भी निकल सकता है। विदेशी विनिमय की दर और विदेशी विनिमय कोष गिर जाता है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार और लेनदेन तथा आर्थिक विकास की दर मंद हो जाती है। ऋणदाता को भी हानि होती है। परंतु अवस्फीति में उपर्युक्त दशा की विपरीत अवस्था होती है। अवस्फीति में कीमत, लाभ और रोजगार कम होता जाता है। बेरोजगारी विस्फीति का अभिशाप है। दोनों ही अवस्थाएँ साम्य से विचलन को बताती हैं। अत: दोनों ही अनुपयुक्त हैं। प्रो० कींस के कथनानुसार 'मुद्रास्फीति अन्यायपूर्ण तथा अवस्फीति अव्यावहारिक और अनुचित है परंतु दोनों में अवस्फीति ही सबसे खराब है।' [कृष्णकुमार कौल]