मुद्रण या छपाई वह तकनीक है जिसमें यांत्रिक और प्रकाश यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा पाठ्य पुस्तक, आलेख, निदर्शचित्र आदि का पुनरुत्पादन और अनुलिपि की जाती है। दूसरे शब्दों में कागज, कपड़ा, लकड़ी, धातु, कांच या किसी संश्लिष्ठ पदार्थ पर पाठ्यपुस्तकों और निदर्शचित्रों की कई प्रतियाँ बनाने की कला का नाम मुद्रण है।

इतिहास - मुद्रण का जन्म एशिया में मृद्गुटिका, मिट्टी के बरतन और पपीरस पदार्थों को चिह्नित करने के अविकसित रूप में हुआ। चिह्नित करने के प्रमुख साधन साँचे और लकड़ी के ब्लॉक थे। सुमेरिया, बैबिलोनिया, मिस्त्र, चीन, भारत, जापान और कोरिया में मुद्रण का यह प्रारंभिक रूप सामने आया। कोरी छाप के बाद मसीकृत मुद्रण का युग आया। उभारदार डिज़ाइन स्याही लगाने के बाद चर्मपत्र और पपीरस पदार्थ पर दबाए जाते थे। सुनिश्चित ब्लॉक मुद्रण का जन्म चीन में ७७० ई० के कुछ पहले हुआ। इसके बाद ब्लॉक से किताबें छपने लगीं। ब्लॉक से छपे हुए पृष्ठों की जिल्द बाँधकर किताबों का रूप दिया जाने लगा।

ब्लॉक मुद्रण बहुत ही धीमी और भद्दी प्रक्रिया थी। लगभग १०४० ई० में पी-शेंग नामक एक चीनी छापेखाने वाले ने मिट्टी के चल टाइप बनाए। प्रत्येक अक्षर और लिपि के लिए अलग अलग टाइप बनाए गए। इन टाइपों को मजमून छापने के लिए, अलग अलग, बार बार जोड़ा जा सकता था। लेकिन एशियाई देशों में चल टाइप लोकप्रिय नहीं हुए, क्योंकि चीनी, जापानी और कोरियाई भाषाओं में हजारों अक्षर हैं। काठ के ब्लाकों से छापने पर लागत में कमी और छापने में सहूलियत होती थी।

ब्लॉक मुद्रण को मुसाफिरों, मिशनरियों और व्यापारी कारवाँओं ने यूरोप में पहुँचाया। वहाँ प्रारंभ में ताश के पत्तों और धार्मिक चित्रों को छापने में इस कला का उपयोग हुआ। कागज बनाने की मशीन का आविष्कार होने पर और दस्तकारी 'श्रेणी' के उत्थान से जब मठ सुलेख तथा पुस्तकों के निदर्शचित्रण में पिछड़ गए, तो सस्ती और शीघ्रता से छपी पुस्तकों की माँग बड़ी तेज हुई, जिसके फलस्वरूप आधुनिक मुद्रण का जन्म हुआ। आधुनिक मुद्रण के अविष्कार का श्रेय जॉन्स गुटेनवर्ग को है जिनका नाम सर्वप्रथम छपी और अत्यंत प्रसिद्ध पुस्तक, गुटैनवर्ग बाइबिल से संबद्ध है।

गुटेनवर्ग ने अपने समय तक की सारी खोजों को एकत्रित कर उन्हें आधुनिक मुद्रण के रूप में संघटित किया। इन्होंने टाइप ढालने के लिए समंजनीय साँचा और टिन तथा सीसे की मिश्रधातु का आविष्कार भी किया एवं छापने के लिए काठ के हस्तमुद्रणयंत्र का उपयोग किया। छापने की यह सुनिश्चित विधि १४४० ई० में आई। इसका खूब प्रचार हुआ। किताबें सस्ती मिलने लगीं और यूरोप तेजी से शिक्षित होने लगा। १५६६ ई० में विश्व का पहला समाचार पत्र ''गज़ेटा'' वेनिस से प्रकाशित होना प्रारंभ हुआ। १४७५ ई० में कैक्सटन ने छपाई इंग्लैंड में प्रसारित की।

हस्तमुद्रण यंत्र द्वारा चल टाइपों को छापने का क्रम लगभग ४०० वर्षों तक चला। औद्योगिक क्रांति काल में १८०० ई० में अर्ल स्टैनहोप ने लोहमय हस्तमुद्रण यंत्र का आविष्कार किया। औद्योगिक क्रांति की गतिविधि के साथ हस्तमुद्रणयंत्र पीछे पड़ गए और उनका सथान सिलिंडर प्लैटेन और रोटरी मशीनों ने लिया। १७२५ ई० में विलियम गेड ने दुहरी प्लेट तैयार करने की विधि, स्टीरियोटाइपिंग, का आविष्कार किया, जिसके कारण छपाई सस्ती हो गई और छपाई का प्रसार हुआ। १८८६ ई० में ऑटमर मरगैनथेलर ने लाइनो टाइप का आविष्कार किया और १८९८में टाल बर्ट लैंस्टन ने मोनोटाइप का आविष्कार किया जिससे कि टाइप कैरेक्टरों को यंत्रों से ढाला और जोड़ा जाने लगा। कागज एवं स्याही निर्माण और टाइपोग्रैफिक डिज़ाइन में भी क्रांतिकारी उन्नति हुई। १८४० ई० में गिलॉट ने जे० एन० नीप्से और डेगरे के फोटोग्राफी संबंधी प्रयोगों से लाभ उठाकर जिंक प्लेटों के निक्षारण की विधि निकाली और १८५१ ई० में स्कॉट आर्चर ने गीले कोलोडियन विधि से निगेटिव तैयार करने की विधि निकाली। इसके बाद कंटिनुअस टोन (continous tone), हाफटोन (halftone), या जस्ते और ताँबे के ब्लॉकों का आविष्कार हुआ। फोटोग्राफी के तमाम टोन पुनरुत्पादित किए जाने लगे। निदर्शचित्रों की प्रकाशयांत्रिक छपाई के बाद रंगीन निदर्शचित्रों का पुनरुत्पादन होने लगा, जिसमें हर रंग को दिखाने के लिए ब्लॉकों का अध्यारोपण करना पड़ता था। एलायस सेनेफेल्डर ने १७९५ ई० में छपाई की प्लेनोग्राफ़िक, या लियोग्राफ़िक विधि निकाली, जिसे १९०५ ई० में रूबेल ने वर्ण छपाई की लोकप्रिय विधि ऑफसेट छपाई का आविष्कार कर पूर्णता प्रदान की। १८९० ई० में कार्ल क्लिक ने उत्कीर्ण आकृति या ग्रेवुर विधि को पूर्णता तक पहुँचाकर सस्ते से सस्ते कागज पर वर्ण छपाई संभव कर दी।

२० वीं शताब्दी का आगमन होते ही छपाई की विविध प्रक्रियाओं में यंत्रीकरण, स्वचलीकरण और सुवाहीकरण बड़े स्तर पर होने लगे। अविश्वास्य गति और दक्षता की प्रिसिशन (precision) मशीनें अब प्राप्त हो रही हैं। छपाई टेक्नॉलोजी में इलेक्ट्रॉनिकी, प्रकाशिकी, यांत्रिकी और रसायनविज्ञान की प्रयुक्ति से यह संभव हो सका है। अब शीघ्र ही और सस्ते दामों में छपाई में विशेषता, नवीनता, सुंदरता और वर्ण आ सकता है और ये सब सस्ते तथा सजीव होते हैं। आधुनिक प्रेस में स्टूडियो, सुवाही कैमरा, सुसज्जित प्रकाशीय यंत्र, चकाचौंध करनेवाले आर्क लैंप, बोतल और जार के आकर्षक रैक, परिशुद्ध निर्मित, रोटरी मशीन आदि, भव्य साज सामान होता है।

भारत में छपाई का इतिहास - आधुनिक छपाई की तकनीक भारत में १५६६ ई० में आई, अर्थात् अमरीका से सौ वर्ष पूर्व। गोआ में एक पुर्तगाली जहाज काठ का एक हस्तदाब मुद्रणयंत्र, जिसमें नक्काशी के औजार भी थे, सौंप गया। ये सब उपकरण अबीसिनिया के लिए रवाना किए गए थे। गोआ के मिशनरियों ने इस यंत्र के धार्मिक साहित्य छापने के लिए गोआ में स्थापित करने का निश्चय किया। तमिल लिपि में बाइबिल का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। १५७६ ई० में एक ब्राह्मण ईसाई, पीरोलुइस, तमिल भाषा में धार्मिक साहित्य मुद्रण का कार्यभारी हुआ। १५५८ ई० में कोल्लम और बाद में कोचीन के मिशनरियों ने हस्तदाब मुद्रणयंत्र स्थापित कर धार्मिक साहित्य छापना प्रारंभ कर दिया। १५८० ई० तक मिशनरियों ने सारे भारत में हस्तदाब मुद्रणयंत्र स्थापित किए और देवनागरी, कन्नड़ और तमिल लिपि के टाइप ढाले। सरकार ने भी मुद्रण का महत्व समझा और सरकारी प्रेसों में स्टेशनरी, फॉर्म, गजट आदि छपने लगे।

चूँकि छपाई अभी तक सरकार और मिशनरी तक ही सीमित थी, अत: उसका व्यापक विकास न हो सका। शिशिक्षुता (apprenticeship) की व्यवस्था के अभाव में भारतीयों के लिए इसका ज्ञान शक्य नहीं था। भारत में कोई औद्योगिक क्रांति नहीं हुई और यहाँ की अर्थव्यवस्था प्रधानतया कृषि पर निर्भर थी। अंग्रेज शासक भारत में शिक्षा का व्यापक प्रसार करना नहीं चाहते थे, अत: मुद्रित सामग्री की माँग सीमित थी। इन सभी कारणों से भारत में मुद्रण का विकास अवरुद्ध रहा। मद्रास, कलकत्ता आदि के मिशनों के बंद हो जाने पर, जब उनके प्रेस बिके तब भारत में छपाई का प्रसार हुआ। बंद हुए प्रेस के कर्मचारियों ने बंबई, कलकत्ता और मद्रास में अपने प्रेस स्थापित किए और इस प्रकार भारतीय प्रेस उद्योग का जन्म हुआ। श्री रुस्तमजी कार्शपजी के निर्देशन में भारत का पहला समाचार पत्र, बांबे करीयरश् (Bombay Career), का प्रकाशन १७७५ ई० में प्रारंभ हुआ।

स्वतंत्रता के बाद पंचवर्षीय योजनाओं ने साक्षरता की वृद्धि की है और देश का औद्योगिकीकरण किया है। देश में पुस्तकों की आवश्यकता दिनोंदिन बढ़ रही है। अमृतसर, आगरा, दिल्ली और बंगलौर में छोटे स्तर की इकाइयों ने मशीनरी निर्माण करने का काम अपने हाथ में लिया है। मशीन बनाने की बृहदाकार इकाई हावड़ा में विकसित हो रही है। ऑल इंडिया फेडरेशन ऑव मास्टर प्रिंटर्स क अंतर्गत, उद्योग का संगठन हुआ है और विदेशों से होड़ लेने के प्रयत्न चल रहे हैं।

मुद्रण की परिक्रियाएँ - मुद्रण की लोकप्रिय विधियाँ निम्नलिखित हैं :

(१) रिलीफ (Relief) मुद्रण या अक्षर मुद्रण, २. प्लेनोग्राफिक (Planographic) या लिथोऑफसेट मुद्रण, तथा ३. इंटैल्यो (Intaglio) या ग्रेवुर (Gravur) मुद्रण, ४. सिल्क स्कीन मुद्रण, ५. कोलोटाइप (Collotype) श्या फोटोजिलेटिन मुद्रण तथा ६. इस्पात और ताँबे की खुदाई से मुद्रण आदि विशेष रीतियाँ हैं। मुद्रण की इन विधियों ने इस उद्योग को प्रशस्त बनाया है।

अक्षर मुद्रण (Letterpress Printing)

रिलीफ़ मुद्रण या अक्षर मुद्रण टाइप, ब्लॉक, प्लेट आदि से छापने की तकनीक का नाम है। इसमें डिज़ाइन और लिपि रिलीफ में, यानी उभरे हुए, होते हैं। दूसरे शब्दों में, ये मुद्रणीय क्षेत्र की अपेक्षा ऊँचे तल पर रहते हैं। जब स्याही चढ़ाई जाती है, तब वह केवल मुद्रणीय क्षेत्र पर ही पड़ती है, क्योंकि अमुद्रणीय क्षेत्र निचाई पर होता है। इस प्रकार स्याहीयुक्त मुद्रणीय क्षेत्र जब कागज के संपर्क में आते हैं, तो स्याही को कागज पर स्थानांतरित करते हैं और कागज पर मुद्रणीय क्षेत्र की छाप पड़ जाती है।

अक्षर मुद्रण की विशेषता सत्य और निश्चित छाप है। लिपि का प्रत्येक बिंदु और उसकी सारी रूपरेखा सफाई के साथ, ज्यों की त्यों पुनरुत्पादित होती है। स्याही का स्थानांतरण निर्दोष होता है। मुद्रण की इस विधि को हाशिया छोड़कर छापने के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। मुद्रण की सभी अवस्थाओं में त्रुटिका निरास और संशोधन संभव है। चल टाइपों के उपयोग के कारण यह बहुत ही लचीली विधि है। उभरे हुए तल को स्याही लगाकर उसकी छाप ले लेने के सरल सिद्धांत पर आधारित होने के कारण इस विधि में स्याही भरना, संपर्क, दाब और स्थानांतरण निर्दोष होता है। इस विधि का यदि कोई दोष है तो यही कि निदर्शचित्रों के लिए लाइन और हाफटोन ब्लॉक का निर्माण और मुद्रण खर्चीला है।

अक्षर मुद्रण प्राचीनतम विधि है और आज भी छपाई की बुनियादी विधि यही है, तथापि दुनिया के सभी देशों में पर्याप्त परिवर्तन हुए हैं। लगभग सभी समाचारपत्र, पुस्तकें, पत्रिकाएँ, विज्ञापन, वाणिज्य प्रपत्र और विविध अन्य छपाइयों में अक्षर मुद्रण विधि का उपयोग होता है। अक्षर मुद्रण की बुनियादी क्रियाएँ निम्नलिखित हैं :

(१) डिज़ाइन और अभिन्यास - डिज़ाइन विभाग में हस्तलिखित प्रति को छापने की विशद योजना बनाई जाती है। मूलपाठ की डमी या अभिन्यास तैयार किया जाता है।

(२) टाइप सेटिंग - कंपोज़िंग (composing) या टाइप सेटिंग विभाग में कॉपी सेट की जाती है। पहले स्टिक और बाद में गैलियों में कॉपी के अनुसार टाइपों को जोड़कर शब्द, पंक्ति और पृष्ठों की रचना की जाती है। टाइपों को जोड़ने का काम कंपोज़िटर या अक्षरयोजक (compositors) करते हैं। बड़े स्तर के मुद्रणालयों में टाइपों को जोड़ने का काम मशीनें करती हैं, जिन्हें लाइनोटाइप और मोनोटाइप मशीन कहते हैं।

(क) लाइनोटाइप मशीन - यह टाइपों की एक समूची पंक्ति को धातुखंड के रूप में सेट कर देती है। लाइनोटाइप परिचालक कुंजीफलक की सहायता से कॉपी को टाइप करता है। मशीन टाइप के साँचों या मैट्रिक्सों को पंक्ति में जोड़ती है। जब मैट्रिक्सों की एक पूरी पंक्ति जुड़ जाती हैं। तब मशीन के साँचे में पिघली धातु जमकर कठोर हो जाती है और तैयार धातुखंड एक धानी में गिरता है।

(ख) मोनोटाइप - इसकी दो इकाइयाँ हैं कुंजीफलक और ढालक। मोनोटाइप परिचालक कुंजीफलक पर कापी टाइप करता है। फलत:, एक कागज के गोले में, जिसे स्पूल (spool) कहते हैं, छिद्रण होता है। छिद्रण संयोजन में किया जाता है, अर्थात् विभिन्न संयोजन द्वारा प्रदर्शित किए जानेवाले हर अक्षर के लिए एक बार में दो या तीन छिद्र किए जाते हैं। छिद्रण के स्पूल का भरण ढालक से किया जाता है। यह मशीन टाइपों को स्वचालित विधि से ढालती है और उन्हें ठीक क्रम से जोड़ती है। मोनोटाइप का एक लाभ यह भी है कि किसी भी टाइप के स्थान पर दूसरा टाइप रखकर संशोधन करना संभव होता है।

(ग) टेलीटाइपसेटर (Teletype-setter) - १९५०-५९ ई० में विश्व के बहुत से समाचारपत्रों ने टेलीटाइपसेटर का उपयोग प्रारंभ कर दिया। यह यंत्र समाचार एजेंसी से कापी को समाचार पत्र को पारेषित करता है और एक कागज के फीते में छेद करता है। जब यह फीता टाइपसेटिंग मशीन में लगा दिया जाता है, तब कापी अपने आप अक्षरयोजित हो जाती है।

(घ) मेकअप (Make up) - टाइपसेटिंग के बाद टाइप का मेकअप किया जाता है, अर्थात् सीमाबद्ध पृष्ठ तैयार किए जाते हैं। इसी अवस्था में लाइन और हाफटोन ब्लॉक भी जोड़ दिए जाते हैं और शब्दों तथा पंक्तियों के बीच अंतर को ठीक कर पृष्ठों को सँवारा और उनका समकरण किया जाता है। प्रूफ दाब में प्रूफ तैयार किया जाता है और संशोधन के लिए लेखक, या प्रूफ संशोधक, के पास भेजा जाता है। जब प्रूफ संशोधित होकर लौट आता है, तब आवश्यक संशोधन कर लिए जाते हैं। जब सभी संशोधन कर लिए जाते हैं, तब पृष्ठों को एक धातु के चौखटे में, जिसे परिबंध या चेस (chase) कहते हैं, कस दिया जाता है और छपाई विभाग में भेज दिया जाता है।

(३) लाइन और हाफ़टोन ब्लॉक - अक्षरमुद्रण छपाई की विधा में शब्दों और वाक्यों के समूह से पाठ्य सामग्री को हाथ या मशीन से योजित करना होता है, किंतु निदर्श चित्रों के पुनरुत्पादन के लिए उन्हें लाइन या हाफ़टोन ब्लॉक का रूप देकर पृष्ठों और फर्मों में अक्षरयोजित पाठ के साथ निविष्ट करना पड़ता है। लाइन और हाफ़टोन ब्लॉकों को अक्षरमुद्रण के बुनियादी सिद्धांत के अनुसार मुद्रणक्षेत्र की अपेक्षा ऊँचे तल पर होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, ब्लॉक का मुद्रणकारी प्रतिबिंब उभरा हुआ होना चाहिए और यह प्रकाशयांत्रिकी विधि से प्राप्त किया जाता है (देखें ब्लॉक बनाना)।

(४) द्वितक प्लेटें (Duplicate plates) - बड़े बड़े प्रकाशनों को एक ही स्थान पर, या कई स्थानों पर, छापने के लिए द्वितक प्लेटों की आवश्यकता होती है। इससे मूल ब्लॉक और टाइप की टूट फूट नहीं होती और दो या चार पृष्ठों को एक साथ छापना संभव है। इस प्रकार सुगमता और कम व्यय में अलग अलग स्थानों पर विज्ञापनों की छपाई संभव है। लोकप्रिय द्वितक प्लेट बनाने की विधियाँ निम्नलिखित हैं:

(क) स्टीरियोटाइपिंग (Stereotyping) - द्रवचालित दावक में मोटे कागज या प्लास्टिक का साँचा ढालकर पृष्ठ का स्टीरियोटाइप बनाया जाता है।

(ख) वैद्युत् मुद्रण (Electrotyping) - मोम या टेनाप्लेट (tenaplate, धातु और घातवर्ध्य पदार्थों का मिश्रण) का एक साँचा तैयार करते हैं। इसे ग्रैफाइट का आवरण देकर विद्युत् का सुचालक बनाया जाता है। इस साँचे को विद्युत्लेपन कुंड में लटकाकर धातुखोल तैयार किया जाता है। यह खोल धातु को पिघला और भरकर पृष्ठपोषित होता है। इस रीति से वैद्युतब्लाक (electrotype) तैयार हो जाते हैं। स्टीरियोटाइप और वैद्युतब्लाक का संमुख भाग कभी कभी निकल या क्रोमियम का होता है, जिससे उनका टिकाऊपन बढ़ जाता है।

(५) अक्षरमुद्रण छपाई यंत्र - गुटेनबर्ग द्वारा आविष्कृत हस्तदाब मुद्रण यंत्र का स्थान परिशुद्धता से निर्मित स्वचालित प्लैटेन, सिलिंडर और रोटरी यंत्रों ने लिया है, जो आश्चर्यजनक तेज गति से चलते हैं :

(क) प्लैटन (platen) प्रेस - इनमें परिबंध में स्थित और मशीन के शीर्ष पर अवस्थित स्याही चढ़े हुए टाइपों को कागज पर दबाने के लिए प्लैटन नामक चौरस सतह का उपयोग होता है। प्लैटनों का उपयोग छोटे कामों में, जैसे लिफाफा, पोस्टकार्ड, स्टेशनरी, वाणिज्य प्रपत्र आदि की छपाई में, होता है। यंत्र सीपी के खोल के समान खुलता और बंद होता है। अधिकतर आधुनिक प्लैटन प्रेसों में स्वचालित संभरक (feeders) होते हैं।

(ख) सिलिंडर (cylnder) प्रेस या चौरस तल प्रेस - छोटे क्षेत्र की अक्षरमुद्रण छपाई प्राय: सिलिंडर प्रेसों पर होती है। तल अनुकूल रीति से दोलन करता है और सिलिंडर द्वारा आलंबित और सँभारित कागज को छापकर निकाल देता है। इसमें सिलिंडर भी एक या दो बार परिक्रमा करता है। स्याही चढ़ाने का काम रोलर करते हैं। आधुनिक सिलिंउर मशीनों में निरपवाद रूप में स्वचालित संभरक होते हैं, जिनसे तीव्र गति और उत्तम कोटि का कार्य संपादित होता है।

(ग) रोटरी प्रेस - समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें, व्यापारिक प्रपत्र आदि के बड़े पैमाने पर मुद्रण के लिए रोटरी प्रेसों का उपयोग किया जाता है। ये प्रेस भारी भरकम होते हैं और बहुत ही तेज चलनेवाले होते हैं। ये तीव्रगति यंत्र प्रति घंटे समाचार पत्रों की ६० हजार प्रतियाँ छापकर, काटकर, मोड़कर और गिनकर तैयार कर देते हैं। पत्रिका, सूची तथा अन्य प्रकाशनों से संबंधित छिद्रण, गणना, सिलाई आदि कई अन्य क्रियाएँ रोटरी प्रेस से की जाती हैं। रोटरी प्रेसों में दो या दो से अधिक सिलिंडर होते हैं, जो एक दूसरे केश् मेल में चलते हैं। इनमें से एक सिलिंडर पर, जिसे प्लेट सिलिंडर कहते हैं, वक्र स्टीरियो प्लेट चढ़े रहते हैं। दूसरे सिलिंडर पर वह कागज होता है जिसका भरण कागज का एक रील एक बड़े गोले के रूप में करता है। आधुनिक रोटरी मशीनों में प्लेट सिलिंडर और इंप्रेशन (impression) सिलिंडरों की संख्या अधिक होती है, जिससे अनेक पृष्ठों की छपाई एक साथ हो सकती है।

(घ) जिल्दसाजी - पुस्तक, पत्रिका, सूचीपत्र आदि के सभी पृष्ठों के छप जाने के बाद जिल्दसाजी विभाग में उनका बंधन होता है। हाथ से या वाहक पट्टा और अन्य उपकरणों से चलनेवाली मशीनों, या संगति में काम करने वाली मशीनों, से कागज को काटकर मोड़कर, जोड़कर और सीकर आवरणयुक्त कर दिया जाता हैं। (देखें जिल्दसाजी)।

प्लैनोग्रैफिक या लिथोऑफसेट मुद्रण

(Piganographic or Litho-offset Printing)

प्लैनोग्राफिक छपाई का सिद्धांत यह है कि पानी और ग्रीज़ मिश्रित नहीं होते। डिज़ाइन या पुस्तक का पाठ्य भाग, जिसे छापना है, चित्रित कर एक प्लेट पर अंतरित करते हैं, या फोटोग्राफी से छापते हैं और उसे चिकना रखते हैं। प्लेट के अमुद्रणीय भागों पर चिकनाहट नहीं होती और उन्हें छापते समय बराबर पानी से तर रखा जाता है ताकि वे मसि का प्रतिरोध कर सकें। इस विधि में मुद्रणीय और अमुद्रणीय भागों की सतह एक ही होती है। उनकी पृथकता रसायनत: होती है, न कि भौतिक जैसी अक्षरमुद्रण में होती है।

इस मुद्रण की यह विशेषता है कि छपाई छूट आदि से विहीन होती है। इसमें बिंदुओं के कोर उतने साफ और तेज नहीं होते जितने अक्षरमुद्रण में होते हैं। पानी के प्रभाव के कारण रंग कुछ धुले से जान पड़ते हैं। लागत की कमी के कारण यह विधि वर्ण छपाई के दिनों दिन लोकप्रिय होती जा रही है। सूक्ष्म लाइन काम, सूक्ष्म छाया और टिंट, कोमल विनेट (vignette), पेंसिल चित्र आदि की छपाई इस विधि से बहुत अच्छी होती है। इस छपाई में महँगे आर्ट पेपरों की कोई आवश्यकता नहीं है। प्लेटोंश् के द्वितकीकरण के क्रम और आवृत्तिविधियों के कारण समय और लागत की बचत होती है। लोकप्रियता की दृष्टि से ऑफसेट छपाई का दूसरा स्थान है।

(क) लिथोग्राफी - प्लैनोग्राफिक मुद्रण का मूल रूप, जो सैनेफेल्डर ने आविष्कृत किया लिथोग्राफी कहलाता है। चिकनी स्याही से प्रतिबिंब को सरध्रं लिथोस्टोन, जस्ता या ऐल्युमिनियम की प्लेटों पर चित्रित, अंतरित या छाप लिया जाता है। स्टोन या प्लेट को जब चौरस तल वाली लिथो छपाई मशीन पर, या रोटरी मशीन के प्लेट सिलिंडर पर, चढ़ाया जाता है, तब वह सिलिंडर द्वारा आलंबित कागज को छाप देता है। मुद्रणीय ओर अमुद्रणीय क्षेत्रों के विभाजनार्थ पानी और स्याही बराबर पर्यायक्रम से प्रयुक्त किए जाते हैं।

(ख) ऑफसेट (offset) मुद्रण - प्लैनोग्राफिक छपाई की इस लोकप्रिय विधि में प्लेट और कागज के बीच निर्दोष संपर्क और निर्दोष मसि अंतरण में रबर चादर की लचक का लाभ उठाया गया है। सिलिंडर पर आरोपित चादर प्लेट सिलिंडर से स्याही की छाप लेकर इस मसी प्रतिबिंब को इंप्रेशन सिलिंडर द्वारा आलंबित कागज पर ऑफसेट कर देती है। ऑफसेट प्लेटों का निर्माण फोटोग्राफी द्वारा अर्थात् सूक्ष्मग्राहीकृत प्लेटों को निगेटिव के अंतर्गत छापकर होता है। तीव्र वैषम्य, विशेष विवरण और बड़े पैमाने पर छपाई के लिए गहरा तक्षण प्लेट निर्माण विधि का उपयोग करते हैं। इसमें निगेटिवों के स्थान पर फोटोग्राफिक पाज़िटिव का उपयोग होता है और छपे हुए प्रतिबिंब को हल्का निक्षारित किया जाता है ताकि प्लेट अधिक स्याही ले सके और देर तक छाप सके।

(ग) फोटोटाइप योजन - पाठ्यसामग्री को ऑफसेट द्वारा छापने के लिए टाइपों को अक्षरमुद्रण छपाई के समान ही योजित किया जाता है और पुनरुत्पादन प्रूफ तैयार किया जाता है। इस प्रूफ को मूल के रूप में इस्तेमाल कर प्रकाशयांत्रिकी विधि से निगेटिव और ऑफसेट प्लेटों को तैयार किया जाता है।

पाठ्य सामगी को ऑफसेट द्वारा छापने की दिशा में हुई आधुनिक खोज के परिणामस्वरूप फोटोटाइप योजकमशीनों का विकास हुआ है। मोनोफ़ोटो, इंटरटाइपयोजक, लाइनोफिल्म आदि, इसके उदाहरण हैं। मूल को कुंजीफलक पर चढ़ाया जाता है और मैट्रिक्सों (matrixes) को, जिनमें विभिन्न लिपियों के निगेटिव हैं, सूक्ष्मग्राहीकृत फिल्म के संपर्क में उद्भासित किया जाता है। यह डेवेलप किया गया फिल्म ऑफसेट द्वारा प्रकाशयांत्रिकी पुनरुत्पादनों के लिए विशिष्ट तकनीकों द्वारा संशोधन के बाद निगेटिव के रूप में काम आता है।

(घ) ड्राइ ऑफसेट - ड्राइ ऑफसेट छपाई में अक्षरमुद्रण और ऑफसेट दोनों प्रकार की छपाइयों की तकनीकों का उपयोगश् किया जाता है। प्लेट पर मुद्रित प्रतिबिंब उसी प्रकार तक्षित किया जाता है,जैसे अक्षरमुद्रण प्लेट में। इस विधि में ऑफसेट छपाई के ही समान रबर चादर का उपयोग होता है। जल प्रयुक्ति इसलिए जरूरी नहीं है कि मुद्रणीय क्षेत्र उभरा हुआ होता है। रबर चादर प्रतिबिंब को कागज पर ऑफसेट करती है और यह अंतरण लगभग ऑफसेट छपाई के ही समान निश्चित होता है। छपाई की यह विधि स्टांप, मुद्रानोट, व्यापारिक प्रपत्र, लेबल आदि की छपाई में अत्यधिक काम आ रही है।

उत्कीर्ण आकृति (Intaglio) या ग्रेवुर मुद्रण

उत्कीर्ण आकृति छपाई में मुद्रणीय और अमुद्रणीय क्षेत्र उसी प्रकार अलग होते हैं, जैसे अक्षरमुद्रण छपाई में। इसमें अक्षरमुद्रण के विपरीत मुद्रणीय क्षेत्र का तल अमुद्रणीय क्षेत्र की अपेक्षा नीचा होता है। दूसरे शब्दों में, प्रतिबिंब को उत्कीर्ण, तक्षित या निक्षारित करना होता है। छापने के लिए प्लेट को स्याही से आप्लावित कर ऊपरी अमुद्रणीय क्षेत्र साफ कर लिया जाता है और ग्रेबुर छपाई मशीन में दाब कर प्रतिबिंब को कागज पर अंतरित कर दिया जाता है। तक्षित बिंदुओं की विविध गहराई के फलस्वरूप छपे बिंदुओं की विविध स्थूलता के कारण रंग की गहराई, रंगाभास और छाया की आकर्षक क्रम स्थापना, इस प्रकार की छपाई की अपनी विशेषता है। अक्षर मुद्रण और प्लेनोग्राफिक छपाई में बिंदु रूप और आकार कई प्रकार के होते हैं, जिनका आकार सूची बिंदु से लेकर अतिव्यापी वर्ग और वक्र तक का हो सकता है। इसके विपरीत उत्कीर्ण आकृति छपाई में घटिया से घटिया कागज पर वर्ण मुद्रण हो सकता है। प्लेट और सिलिंडरों का निर्माण अपेक्षाकृत महंगा है। बड़े स्तर में वर्णो के पुनरुत्पादन के लिए यह विधि सस्ती है और अत्यंत आकर्षक छपाई करती है।

उत्कीर्ण आकृति मुद्रण में इस्पात और ताँबा प्लेट तक्षण विधि, पैतृक विधि है और वय में अक्षरमुद्रण से स्पर्धा करती है। डिज़ाइन को साँचे या प्लेट पर चित्रित या अंतरित कर टाँकी, रुखानी, या मशीन द्वारा तक्षित किया जाता है। साँचा या प्लेट को स्याही से आप्लावित करने के बाद पोंछ कर दाब प्रयोग करने में कागज पर बहुत ही सुंदर छाप उभर आती है। प्रिंट पर प्रतिबिंब हल्का उभरा होता है और रंग बड़ा आकर्षक होता है। यह विधि नामपत्रक और कार्यालय लेखन सामग्री की बड़े पैमाने पर छपाई में काम आती है।

उत्कीर्ण आकृति विधि की बुनियाद पर तीन विधियों का विकास हुआ है, जिनके नाम हैं : प्रकाश ग्रेवुर, (photogravure), रोटोग्रेवुर (rotogravure) और शीटफेड ग्रेवुर (sheetfed gravure)। इनका सामूहिक नाम ग्रेवुर है। इनमें सबसे महत्व का रोटोग्रेवुर है। इसमें तक्षित ताँबे की सतहवाली या ताँबे के जैकेटदार सिलिंडरों का उपयोग कगज के अविच्छिन्न जाल को छापने के लिए होता है। प्लेट निर्माण में होनेवाले विलंब और अर्थव्यय के कारण रोटोग्रेवुर का उपयोग बड़े पैमाने के उत्पादनों तक ही सीमित है। फोटोग्रेवुर हाथ की विधि है। सीमित या डिलक्स प्रकाशनों के लिए यह उपयुक्त है, जिनमें सर्वोत्तम कोटि की छपाई वांछनीय होती है (देखें,फोटोग्रेवुर)। शीटफेड ग्रेवुर मध्यम उत्पादन के लिए उपयुक्त है।

ग्रेवुर विधियाँ फोटोग्राफ और गहरी या हल्की आभाओंवाली कलाकृतियों के लिए अत्यंत उपयुक्त हैं। ग्रेवुर पर्दे के कारण टाइप पर आड़ी तिरछी रेखाएँ बनती हैं, जिससे उसकी पठ्यता कुप्रभावित होती है और इससे टाइप पुनरुत्पादन में हानि होती है। पर्दे के दोष का कारण यह है कि ग्रेवुर प्लेट निर्माण में प्रयुक्त पर्दा अक्षरमुद्रण और प्लेनोग्राफिक छपाई पर्दे का उल्टा होता है।

रेशम-पट-मुद्रण (Serigraphy)

रेशमपट छपाई स्टेंसिल छपाई विधि है। इसमें एक स्टेंसिल का उपयोग किया जाता है, जो मुद्रणीय क्षेत्रों में स्याही का प्रवाह होने देता है, किंतु अमुद्रणीय क्षेत्रों में उसका प्रवेश रोक लेता है।

स्टेंसिल पर डिज़ाइन हाथ से काटते हैं। स्टेंसिल का निर्माण प्रकाशयांत्रिकी विधि से, विशिष्ट रूप से तैयार फिल्म का इस्तेमाल करते हुए, किया जाता है। चौखटे पर स्टेंसिल चढ़ाया जाता है। स्याही या रंग को स्टेंसिल रबर बेलन या रबर प्लेट से कागज पर, या जिसपर छपाई करनी है उस पर, प्रणोदित करते हैं। चूँकि छपाई की सतह पर स्याही की मोटी परत अंतरित होती हैं, अत: छपा हुआ ताब काफी देर में सुखता है। फलत: इस विधि में समय काफी लगता है। इधर हाल ही में इस विधि का यंत्रीकरण हुआ है और रेशमपट छपाई मशीन अब मिलने लगी हैं। यह विधि विज्ञापन, ताश के पत्तों आदि की छपाई में, जहाँ कि भड़कदार रंगों में छपाई होती है, प्रयुक्त होती है।

फोटोजिलेटिन या कोलोटाइप छपाई

इस विधि में प्रिंटिंग प्रतिबिंब तैयार करने में सीसे या धातु की प्लेट पर सूक्ष्मग्राहीकृत जिलेटिन की पतली परत का उपयोग किया जाता है। प्लेट का निर्माण प्रकाशयांत्रिकी विधि से बेपरदा (unscreened) नेगेटिव के नीचे प्लेट को उद्भासित कर होता है। उद्भासित सूक्ष्मग्राहीकृत जिलेटिन उसके विभिन्न भागों में आयात प्रकाश के अनुपात में विभिन्न अंशों में प्रभावित होता है। जब प्रिंटिंग प्रतिबिंब तैयार हो जाता है, तब वह स्याहीधारक या निस्सारक सामर्थ्य के अनुसार मोटाई और आर्द्रता में भी विभिन्न होता है। प्लेट को गीला रखा जाता है और प्रेस कक्ष को उपर्युक्त आर्द्रता पर व्यवस्थित रखते हैं। स्टॉप सिलिंडर प्रेसों पर छपाई होती है। शीटफेड रोटरी प्राप्य है। कोलोटाइप प्राय: थोड़ी छपाई की विधि है। अब यह विधि विज्ञापन और फोटोग्राफ तथा वर्णचित्रों की अनुप्रति पुनरुत्पादन के काम बहुत आने लगी है। पर्दा न होने के कारण इस विधि से प्राचीन हस्तलेखों का पुनरुत्पादन किया जाता है, क्योंकि इस विधि से अत्यंत निर्दोष पुनरुत्पादन होता है।

ज़ेरोग्राफी (Xerography)

इस विधि में स्याही का उपयोग नहीं होता और दाब के स्थान पर स्थिर विद्युत् के उपयोग से प्लेट का डिज़ाइन कागज पर स्थानांतरित कर लिया जाता है। प्रतिबिंब के काले भाग विद्युत से धन आविष्ट किए जाते हैं और हल्के भागों पर हल्का आवेश दिया जाता है। आविष्ट प्लेट पर सूक्ष्म चूर्ण का बादल छोड़ा जाता है, जो कागज पर स्थानांतरित हो जाता है। कागज को गरम करने पर चूर्ण का रेज़िन पिघल जाता है और परिणामस्वरूप डिज़ाइन कागज पर छप जाता है। इस विधि से इंजीनियरी के चित्र, रूल, फार्म आदि छापे जाते हैं और कार्यालयों में अभिलेख और पत्रव्यवहार आदि का त्वरित प्रतिलिपिकरण भी किया जाता है।

ऐनिलीन मुद्रण - यह भी एक प्रकार का अक्षरमुद्रण है। इसमें रोटरी मशीनों पर तीव्र गति से इश्तहारी कागज, पैकेट बनाने वाले पदार्थ आदि की छपाई के लिए रबर और प्लास्टिक के स्टीरिओ का उपयोग किया जाता है। पानी या ऐल्कोहॉल आदि द्रवों में विसरित ऐनिलीन रंजक ही प्रयुक्त होनेवाली स्याही है। संक्षेप में यह बड़े पैमाने पर छपाई की सस्ती विधि है।

मुद्रण शिक्षा

भारत में मुद्रण उद्योग की शिथिल प्रगति का एक कारण यह है कि यहाँ शिल्पी, पर्यवेक्षक और कार्यकारी आदि, तीनों प्रकार के कर्मचारी वर्ग के लिए प्रशिक्षण व्यवस्था का अभाव है। १९४६ ई० में मुद्रण औद्योगिकी सहित प्रयुक्त कला में प्रशिक्षण व्यवस्था के लिए ऑल इंडिया काउंसिल ऑव टेकनिकल एडुकेशनल के अंतर्गत ऑल इंडिया बोर्ड ऑव टेक्निकल स्टडीज़ इन ऐप्लाइड आर्ट्स का निर्माण हुआ। इस बोर्ड ने इलाहाबाद, बंबई, कलकत्ता और मद्रास में चार प्रादेशिक मुद्रण शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर मुद्रण शिक्षा में महत्वपूर्ण कार्य किया। शिक्षा संस्थाओं की स्थापना क्रमश: १९५७,१९५५ और १९५६ ई० में हुई।

मुद्रण शिल्पविज्ञान की प्रादेशिक शालाओं ने अक्षर मुद्रण ओर लिथोग्राफी का तीन साल का पूर्णकालिक और चार साल का अंशकालिक नैशनल सर्टिफिकेट पाठ्क्रम लागू किया है। स्टेट बोर्ड ऑव टेकनिकल एडुकेशन द्वारा राज्य स्तर पर परीक्षाएँ चलती हैं और दोनों पाठ्यक्रमों में डिप्लोमा मिलता है। जहाँ तक इन प्रशिक्षितों को काम देने का सवाल है, केंद्रीय सरकार और कई राज्य सरकारों ने इन पाठ्यक्रमों को मान्यता दे रखी है। ये प्रादेशिक विद्यालय पर्यवेक्षक और योग्य प्राविधिज्ञ का प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। भारत सरकार ने मुद्रण की एक केंद्रीय संस्था स्थापित करने का निश्चय किया है। संस्था मुद्रण में कार्यकारी प्रशिक्षण देगी। प्रशिक्षण अवधि स्नातकों के लिए तीन वर्ष और डिप्लोमाधारियों के लिए दो वर्ष होगी। यह संस्था एक सूचना केंद्र और ग्राफिक आर्ट्स के लिए एक अनुसंधानशाला की व्यवस्था करेगी। आशा है कि संस्थाएँ शीघ्र ही साकार होगी।

जहाँ तक शिल्पी प्रशिक्षण का प्रश्न है, कुछ औद्योगिक संस्थाओं में शिल्पियों की मुद्रण में प्रशिक्षण की व्यवस्था है। ये सुविधाएँ नगण्य हैं और इनका अतिशय प्रसार आवश्यक है। कुछ अन्य संस्थाएँ, जैसे स्कूल ऑव प्रिंटिंग ऐंड ऐलाइड ट्रेडस, कटक, कलानिकेतन, जबलपुर, पूना प्रेस ओनर्स ऐसोसियेशन स्कूल, बंगलौर पॉलिटेक्निक आदि, मुद्रण शिल्पविज्ञान में प्रशिक्षण दे रही हैं। मुद्रण उद्योग में प्रशिक्षित कर्मचारियों को तैयार करने के लिए वैज्ञानिक आधार पर प्रशिक्षार्थियों के प्रशिक्षण को संगठित करना आवश्यक है।

[लेखराज नागपाल]