मुगल चित्रकला मुगल साम्राज्य के आरंभ के साथ चित्रकला के मौलिक सृजन में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। मुगल साम्राज्य के संस्थापक, बाबर, तैमूर की पाँचवीं पीढ़ी में थे। उनकी माँ, चंगेज़ खाँ के वंश की अर्थात् 'मंगोल' थीं। इस प्रकार मुगल वंश में 'तुर्की' और 'मंगोल' दोनों संस्कृतियों और परंपराओं का संमिश्रण मिलता है। इसपर ईरान की सभ्यता और संस्कृति का गहरा प्रभाव पड़ा। इस काल में, कलाकारों ने धार्मिक संकीर्णताओं को त्यागकर, तथा ईरानी आदर्श और दृष्टिकोण को अपनाकर भारतीय कलातत्वों को ग्रहण करना शुरू किया। राजस्थानी चित्रों में अभिव्यक्ति और भावना प्रधान होती हैं। ईरानी शैली की चित्रकला में बाह्य सौंदर्य और अभिव्यंजना प्रमुख हैं और इनकी अभिव्यक्ति प्राकृतिक दृश्यों के माध्यम से की जाती है। मुगल शैली के विकास में मानवीय भावना और यथार्थता की अभिव्यंजना बनी रही। मुगल चित्रकला में सामयिक जीवन की व्याख्या है। इनमें व्यक्तियों, पशुओं और पक्षियों का सजीव चित्रण हुआ है। प्रकृति प्रेम, आखेट दृश्य और 'हाशिए' के अलंकरण मिलते हैं। इस प्रकार मुगल चित्रकला का अपना एक पृथक् अस्तित्व था।
बाबर : संस्कृति और कलाप्रेम (१५२६-१५३० ई०) - बाबर को संस्कृति और कला से बड़ा प्रेम था। ये गुण उसे कुलगत परंपरा से मिले थे। उसने तुर्की भाषा में अपना आत्मचरित्र 'बाबरनामा' लिखा है। 'बाबरनामा' से समकालीन घटनाओं और विशेष रूप से ईरानी कला की विशेषताओं का पता चलता है।
भारत आने से पहले बाबर हिरात गया था। वहाँ उसे ईरान के प्रसिद्ध चित्रकार 'विहज़ाद' के चित्रों को देखने का अवसर मिला था। 'विहजाद' ईरानी शैली का सर्वप्रसिद्ध चित्रकार माना जाता है। इसे 'पूर्व का रेफ़ल' कहा जाता है। बाबर ने 'विहज़ाद' के चित्रों की समीक्षा की है जो १५ वीं शती के अंत में तैमूर वंशी सुलतान, हुसैन मिर्जा के दरबार में चित्रकार था। इसी तरह बैसन्ग़्रा मिर्जा के दरबार में 'मीर अली' रहता था, जिसे फारसी लिपि के 'नस्तालीक' नामक भेद में प्रसिद्धि प्राप्त थी।
बाबर, भारत में मुगल राज्य की स्थापना के बाद, बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सका। अतएव चित्रकला के विकास का उसे अवसर नहीं मिला।
हुमायूँ (१५३०-१५५६)श् - हुमायूँ को कलाप्रेम विरासत में मिला था। जौहर के एक कथन से हुमायूँ की कलाप्रियता स्पष्ट हो जाती है। जिन दिनों हुमायूँ अमरकोट में ठहरा हुआ था, उसके खेमे में एक सुंदर चिड़िया आ गई थी। खेमे के दरवाजे एकदम बंद कर दिए गए और चिड़िया पकड़ ली गई। इसके बाद हुमायूँ ने चित्रकार को बुलवाकर उसका चित्र बनवा लिया।
सिंहासनारूढ़ होते ही हुमायूँ को संघर्षमय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। शेरशाह से परास्त होकर उसे ईरान के बादशाह 'शाह तहमास्प' के यहाँ शरण लेनी पड़ी। 'शाह तहमास्प' स्वयं उच्च कोटि का कलाकार था और उसने अपने दरबार में अनेक कलाकारों को आश्रय दे रखा था। यहाँ विहज़ाद और मीराक की शैली पर कलाकार अब भी चित्र बनाते थे। यद्यपि हुमायूँ के ईरान पहुँचने से बहुत पहले 'विहज़ाद' की मृत्यु हो चुकी थी लेकिन उनकी परंपरा को 'आगा मीराक मुहम्मद' और 'मुजफ्फर' ने बनाए रखा था। हुमायूँ की कलाप्रियता को यहाँ की चित्रकारी ने आकृष्ट किया। ईरान में हुमायूँ के संपर्क में अनेक कलाकार और कवि आए। 'तबरौज' में उसकी भेंट कलाकार 'मीर सय्यद अली' से हुई। 'तारीख-ए-खानदानी-ए-तैमूरिया' में उल्लेख है कि हुमायूँ और उसके पुत्र अकबर ने इस महा चित्रकलाकार से चित्रकला सीखी थी। 'मीर सय्यद अली' कवि भी था। उसने 'जुदाई' के नाम से काव्यरचना की थी। १५५० ई० में हुमायूँ ने 'मीर सय्यद अली' और 'अब्दुस समद' को भारत बुलाया और अपने दरबार में रखकर सेवा की। इन दोनों कलाकारों ने लगभग सात वर्ष मे 'दास्तान-ए-अमीर हमजाद' की सचित्र प्रति तैयार की थी। ख्वाजा अब्दुस समद ने चित्रकार और लिपिकार के रूप में बहुत ख्याति पाई। वह 'शीरीं' कलम का कुशल चित्रकार था। हुमायूँ की मृत्यु के बाद भी ये दोनों कलाकार अकबर के दरबार को सुशोभित करते रहे। इन दोनों कलाकारों ने ईरानी शैली को भारतीय शैली में ढाल कर चित्रकला की एक नई धारा प्रवाहित की।
अकबर (१५५६-१६०५) - हुमायूँ के काल तक मुगल चित्रकला की अपनी विशेषताएँ नहीं उभर पाई थीं। इन चित्रों में 'ईरानी' शैली के अंतर्गत 'हिरात' और 'शिराज' की कलम का ही प्राधान्य था। ईरानी कला का अपना वैशिष्टय है, जिसका संबंध चीन से है। ईरानी कला के अंतर्गत यह चीनी अंश १३ वीं शताब्दी से 'मंगोल' प्रभाव के रूप में चला आ रहा था। समय बीतने पर यह प्रभाव ईरानी चित्रों की सूक्ष्म रेखाओं में विलीन हो गया। ईरानी चित्रों की अपनी सबसे बड़ी विशेषता है - 'अलंकारिता'। नदी, पर्वत, आकाश और वृक्षों से लेकर पशु पक्षी तक का अंकन अलंकारिक किया जाता है। इनका नक्काशी के रूप में अंकन करके रंग भर देते हैं। इन रेखाओं में गत्यात्मकता रहती है। ईरानी चित्रकला में अलंकरण की प्रधानता संभवत: 'इस्लाम' के प्रतिबंध फलस्वरूप हो। वहाँ नक्काशी को ही कला की कोटि में रखा जाता है।
ईरानी कला की एक और विशेषता है। उसका नाजुकपन या कोमलता। किंतु ये आकृतियाँ, फारसी नाज़ोअंदाज लिए हुए भी वास्तविक दिखाई देती हैं। सूक्ष्म रेखाओं और रंगों का योग इनको सजीव बना देता है। चित्रकार जब किसी दृष्टांत या शुद्ध स्थल या घटना का अंकन करता है तो घटना या कथानक गौण और नक्काशी जैसी अलंकारिता प्रमुख हो जाती है।
अकबर शैली - वस्तुत: मुगल चित्रकला अकबर के संरक्षण में ही धार्मिक संकीर्णताओं को छोड़कर एक स्वतंत्र रूप की शैली में विकसित हो पाई। अकबर की नीति सामंजस्य की नीति थी। उसके संरक्षण में हिंदू, जैन, ईसाई, सूफी सिद्धांतोंश् को पनपने का अवसर मिला। ख्वाजा अब्दुस समद और मीर सैयद अली के निरीक्षण में कलाकारों ने अकबर की नीति और रुचि के अनुसार कला के क्षेत्र में भी सामंजस्य पैदा कर दिया। ईरानी कला के भारतीयकरण का प्रयास शुरू हो गया। भारतीय कला के आंतरिक सौंदर्य को ईरानी रेखाओं के सूक्ष्म आकार में ढाल दिया गया। यह अकबर जैसे महान् और दूरदर्शी शासक की ही क्षमता थी कि भारत की संस्कृति के साथ साथ ईरान ओर मध्य एशिया की परंपराओं को मिला दिया गया। ईरानी और भारतीय प्रभावों के संयोग से चित्रकला में एक वैशिष्ट्य आने लगा और एक अलग शैली बन गई। इस शैली में भारतीय प्रभाव मुख्य रहा। हिंदू रानियों के सान्निध्य से अकबर की कलात्मक रुचि को पुट मिला। फतहपुर सीकरी में हिंदू रानियों के महल, उनके अंत:पुर, शयन गृह, अतिथिगृह आदि स्थानों को चित्रों से सुसज्जित करवाया गया था। ये चित्र अधिकांशत: भित्तिचित्र थे। कलाकारों ने ईरानी आकृतियों और रेखाओं को भारतीय भावना और साजसज्जा में ढालकर, अकबर के विचारों को सजीव कर दिया। फतहपुर सीकरी में इनके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।
अकबर का कलाप्रेम - अबुल फजल की पुस्तक 'आईन-ए-अकबरी' से अकबर के कलाप्रेम की पुष्टि होती है। कला के विषय में अकबर के विचारों का आईन-ए-अकबरी में इस प्रकार उल्लेख है -
'बहुत से ऐसे व्यक्ति हैं जो चित्रों से नफरत करते हैं। उन लोगों को मैं पसंद नहीं करता। मुझे ऐसा लगता है कि कलाकार में ईश्वर को आत्मसात् करने की अद्भुत शक्ति होती है। चित्रकार जब कभी किसी प्राणी का चित्रांकन करने लगता है, उसके अंग, उपांगों का निर्धारण करता है तो वह इस बात का अनुभव करेगा कि वह अपने चित्र में किसी पृथक् व्यक्तित्व की प्राणप्रतिष्ठा करने में असमर्थ है। नि:संदेह, वह जीवनदाता, ईश्वर का चिंतन करने के लिए बाध्य होगा, साथ ही वह इस प्रकार चिंतन मनन द्वारा अपने ज्ञान को भी विकसित करेगा।'
शासनकाल के आरंभ से ही अकबर ने हस्तलिखित ग्रंथों की सचित्र प्रतियाँ बनवानी शुरू कर दीं। ज्यों ज्यों समय बीतता गया, भारतीय प्रभाव की देन बढ़ती गई और चित्रों का क्षेत्र भी विस्तृत होता गया। ख्वाजा अब्दुस समद, मीर सैयद अली, फरुख बेग खुसख कुली - इन दो चार मुसलमान कलाकारों के अतिरिक्त, अकबर के दरबार में कितने ही हिंदू कलाकार थे। आइन-ए-अकबरी में उस काल के प्रमुख चित्रकारों के नामों का उल्लेख है। हिंदू कलाकारों में 'दसवंत' और 'बसावन' के नाम प्रमुख हैं। दसवंत जाति के कहार थे और इन्होंने अपना सारा जीवन चित्रकारी में ही लगा दिया था। एक दिन अकबर की दृष्टि इन पर पड़ी। इनकी योग्यता देखकर अकबर ने इन्हें 'ख्वाजा' के सुपुर्द कर दिया। शीघ्र ही ये अन्य चित्रकारों से आगे निकल गए और इस समय के सर्वश्रेष्ठ उस्ताद हुए।
बसावन - ये भी अपने ढंग के सर्वोत्तम चित्रकार थे। पृष्ठिका के निर्माण, आकृति आलेखन, रंग संयोजन, और 'शबीह' (प्रतिमूर्ति) लगाने में अपनी सानी नहीं रखते थे।
फरुख क़लमाक - ये मध्य एशिया के निवासी थे। १५४५ ई० में इन्होंने अकबर के दरबार में सेवा शुरू की, अतएव अपने साथ चीनी गौर मंगोल परंपराओं को भी लाए थे।
निम्नलिखित चित्रकारों ने भी ख्याति प्राप्त की -
केशो, लाल, मुकुंद, मिस्कीन, माधो, जगन, खेमकरन, सांवला, हरबंस तथा राम।
'अबुल फजल' के कथानुसार, 'हिंदू चित्रकारों' के चित्र हम लोगों (मुस्लिम) की भावना से कहीं ऊँचे होते हैं। सारे संसार में ऐसे बहुत कम कलाकार हैं जो उनकी बराबरी कर सकें।'
अकबर के चित्रकलाप्रेम का उल्लेख करते हुए आईन-ए-अकबरी में लिखा है -
'किशोरावस्था से ही श्रीमान् की अभिरुचि चित्रकला की ओर रही है और वे सब तरह से उसे प्रोत्साहित करते रहे हैं। चित्रकला को वे अध्ययन एवं मनोरंजन का माध्यम मानते हैं। चित्रशाला का दरोगा प्रति सप्ताह चित्रकारों के काम श्रीमान के सामने रखता है और वे उत्कृष्ट चित्रों को संमानित करते हैं तथा कारीगरों को पुरस्कार देते हैं वा उनका वेतन बढ़ाते हैं। ................अब ऐसे उत्कृष्ट चित्रकार तैयार हो गए हैं कि इनके चित्र 'विहज़ाद' और यूरोप के चित्रों से टक्कर ले सकें। इन उत्तम चित्रकारों की संख्या सौ से ऊपर है।'
कलम की बारीकी, तैयारी आदि में जो उन्नति हुई, वह अद्भुत है। निष्प्राण वस्तुएँ भी सजीव जान पड़ती हैं।
कला के मूल्यांकन के उद्देश्य से कला की शैलियों में नए नए प्रयोग होने लगे। कलाकारों को प्रोत्साहन देने के लिए 'मनसब' और ऊँचे ओहदे दिए गए। ख्वाजा अब्दुस समद की अध्यक्षता में एक शाही चित्रसंग्रहालय भी स्थापित किया गया। वह अपने अतिथियों को बड़े शौक से यह संग्रहालय दिखाता था।
अकबर के काल में हस्तलिखित ग्रंथों को चित्रित कराने तथा धार्मिक पुस्तकों और किस्से कहानियों का दृष्टांत या घटना चित्रों से सजाने की प्रथा में विशेष रुचि हुई। ऐसी सचित्र पोथियाँ अकबर के शाही पोथीखाने में सहस्रों को संख्या में थीं। इसी प्रकार हिंदू प्रभाव के कारण, संस्कृत साहित्य के कुछ अंशों को लेकर सचित्र कृतियाँ भी तैयार कराई गई। संस्कृत और हिंदी के प्रमुख ग्रंथों को फारसी में और फारसी ग्रंथों को देशी भाषा में अनुदित कराया गया। ग्रंथों के आधार पर चित्रावली तैयार कराने का गौरव अकबर को ही प्राप्त है।
अकबर के तैयार कराए गए चित्रों में, समयानुक्रम
से, सबसे पहला किस्सा 'अमीर हम्ज़ावली' की चित्रावली है।
अकबर किस्सा अमीर हम्ज़ा का बड़ा शौकीन था और उसने इसे
दस भागों में पूर्ण कराया। इसमें ११ चित्रकारों ने १४०० किस्से
कहानियों को चित्रित किया। विधान की दृष्टि से अमीर हम्ज़ा के
चित्र भारतीय माने जाते हैं, क्योंकि ये सूती कपड़े पर बने
हैं। परिमाण में ये चित्र २२ २८ १/२ हैं, जो
कि भारतीय शैली की विशेषता है। ये आलंकारिक चित्र न होकर
घटना चित्र हैं।श् इनकी रेखाओं में गोलाई है और
एकचश्म (profile) चेहरों
की अधिकता है। ईरानी शैली के कुछ अंशों को छोड़कर इन
चित्रों का निजत्व है। जल, स्थल, पहाड़, बादल, आकाश तथा दानवों
का चित्रांकन विलक्षण है। वृक्षों में वट और पीपल तथा पशु
पक्षियों में हाथी, मोर आदि का चित्रण मुख्यत: भारतीय हैं।
अकबरकालीन कलाकारों ने भारतीय कथाओं और विषयों को लेकर चित्र तैयार किए जैसे रामायण, महाभारत, आदि। ऐतिहासिक चित्रों में 'तवारीखे खानदाने तैमूरिया', 'अकबर नामा' आदि पोथियाँ थीं। शाही पुस्तकालय, आगरे के साथ ही दिल्ली और लाहौर में भी रहता था। शाही पोथीखाने में एक चित्रशाला थी जिसका अध्यक्ष मकतब खाँ था। चित्रशाला में 'हिरात' और 'शीराज़', शैली के चित्र, तथा 'सफ़वी' और 'तिमूरिया' कलम के संग्रह मौजूद थे। शाही पोथीखाने में रखी हुई प्रतियों पर शाही मुहर लगी रहती थी।
व्यक्ति चित्रों में अकबर के चित्रकारों ने कमाल कर दिखाया। अकबर को व्यक्ति चित्र ('शबीह') का बहुत शौक था। अबुल फजल का कहना है -
'श्रीमान् ने स्वयं अपनी 'शबीह' लगवाई और आज्ञा दी कि राज्य के सभी उमराओं की शबीह तैयार की जाए। इस प्रकार, राज्य के सभी विशिष्ट व्यक्तियों और पूर्वजों के चित्रों का एक बहुत बड़ा एलबम तैयार हो गया जो शायद शाही पोथीखाने में रखा गया।
अकबर के काल में तैयार की गई सचित्र पोथियों की मुख्य सूची यह है -
१.'तवारीख-ए खानदाने-तैमूरिया' - इसमें तैमूरिया वंश के आंरभ से अकबर शासन के २२वें वर्ष तक का इतिहास है।
२. 'रज़मनामा' (महाभारत)
३. 'अकबरनामा'।
४. 'वाकआत बाबरी' (बाबर की आत्मकथा)
चंगेज़नामा, जफरनामा, शाहनामा आदि फारसी की चित्रित प्रतियाँ भी तैयार की गईं। अकबर की आज्ञा से 'पंचतंत्र' का संस्कृत से फारसी अनुवाद 'अयार दानिश' नाम से किया गया। अकबर कालीन' 'अनवर सुहेली' की चित्रित प्रति भी मौजूद है।
इनके अतिरिक्त, तारीख-ए-रशीदी, दराब नामा, खमूसा निज़ामी, बहारस्ताने, जाभी, रामायण, हरिवंश (फारसी अनुवाद) योग वाशिष्ठ, नल दमयंती कथा, कालिय दमन, शकुंतला, आईन-ए-अकबरी की चित्रित प्रतियाँ भी भारतीय और विदेशी संग्रहालयों में मौजूद हैं।
अकबर कालीन चित्रों की शैली, ईरानी शैली से भिन्न, तथा पूर्णतया भारतीय है। हमज़ा चित्रावली के बाद अकबर शैली के चित्र ईरानी और राजस्थानी अंशों को आत्मसात् कर, भारतीय एकता को प्रकट करते हैं। इन चित्रों की अपनी विलक्षणता है। रेखाओं में गोलाई, और गति है। पशु पक्षियों और वृक्षों में स्वाभाविकता है। 'शबीह' चित्रों में, विशेषकर हस्तमुद्राओं के चित्रांकन में, व्यक्तित्व है। इनमें एकचश्म चेहरे की ही अधिकता है। इनकी भावाभिव्यक्ति भी भारतीय परंपरा के अनुकूल है। भारतीय चित्रकार पटचित्रों में कुशल थे। ईरानी कलाकारों के सहयोग से रंग विधान की बारीकियों को अपना कर उन्होंने कला को सजीव बना दिया। भारतीय कला और ईरानी कला में एक बड़ा भेद आलंकारिक आलेखन में है। चित्रों को आकर्षक बनाने के लिए, ईरानी चित्रकार चित्रों को फारसी के शैर या नक्काशी से अलंकृत करते थे। एक ही पोथी को दो या तीन व्यक्ति पूरा करते थे। एक चित्रांकन करता, दूसरा लिखाई करता और तीसरा उसमें रंग विधान करता। अकबर शैली के प्राय: सभी चित्र दो या तीन चित्रकारों के संयोग से बने हैं। एक ही चित्र तैयार करने में कई चितेरों का हाथ होता था, यद्यपि चित्र पर चित्रकार का नाम अंकित करने की प्रथा भी प्रचलित थी। अधिकतर, एक चित्र को तैयार करने में दो चित्रकारों का ही संयोग होता था। एक रेखांकन करता, दूसरा उसमें चित्र अंकित करता। कभी कभी तीसरा चित्रकार भी होता जो 'चेहर नुमा' या व्यक्तिचित्र बनाता। चौथी श्रेणी का चित्रकार 'सूरत' या 'आकृतिचित्र' बनाता।
जहाँगीर (१६०५-१६२७) - अकबर के बाद, उसका पुत्र, जहाँगीर, राज्य का उत्तराधिकारी बना। हिंदू माँ से उत्पन्न होने के कारण, जहाँगीर में उदारता और कलाप्रेम दोनों का ही सामंजस्य था। उसके राज्यकाल में मुगल चित्रकला चरम विकास को पहुँच गई। कला के क्षेत्र में जिस भारतीयकरण की अकबर ने नींव डाली, जहाँगीर के संरक्षण में, वह परंपरा सर्वाधिक उन्नति करने लगी। उसकी उदारता ने हिंदू मुसलमान कलाकारों के भेदभाव को बहुत कुछ मिटा दिया था। अकबर कालीन चित्रों में, विशेषकर रेखाओं में, भारतीय परंपरा स्पष्ट हो उठती है। यह शैली जहाँगीर के आरंभिक काल तक बनी रही पर बाद में मुगल शैली का रूप फिर ईरानी शैली से मेल खाने लगा। धीरे धीरे मुगल कला ईरानी बारीकियों को अपनाकर यथार्थता की ओर प्रेरित हो गई। इसमें अब अकबर शैली की रुढ़ि और दृढ़ता का अभाव था।
जहाँगीर का कलाप्रेम - जहाँगीर ने 'तुजुक-ए-जहाँगीरी' नामक अपना आत्मचरित्र लिखा, और उसकी कई सचित्र प्रतियाँ तैयार कराईं। इससे हमें बादशाह के भावुक हृदय, और प्रकृति प्रेम का परिचय मिलता है। जहांगीर प्रकृति का उपासक था और चित्रकला से उसे विशेष प्रेम था। कोई सुंदर फूल, या विलक्षण पशु पक्षी दिखाई देता, तो जहाँगीर उसके चित्र तैयार करवाता था। एक कथनानुसार जहाँगीर ने कश्मीर में एक बहुत विशाल चित्रशाला का निर्माण किया था और इसमें अलग अलग शैली के चित्रकारों के चित्र संगृहीत किए थे।
अपनी रुचि के चित्र बनवाने में जहाँगीर अत्यधिक धन खर्च करता था, इसमें कोई संदेह नहीं। कितने ही कलाकार उसके संरक्षण में पल रहे थे। कुमारावस्था से ही उसके आश्रय में हिरात के आका रिज़ा चित्रकार रहते थे। उसके पुत्र अबुल हसन पर बादशाह की विशेष कृपादृष्टि थी और उसे 'नादिर-उल-ज़मा' की पदवी दी गई थी। जहाँगीर ने 'तुजुक-ए-जहाँगीरी' में लिखा है कि 'उसके चित्र उस युग के चमत्कार हैं। उसके सदृश अन्य कोई चित्रकार नहीं है। एक बार उसके एक चित्र पर प्रसन्न होकर जहाँगीर ने एक सहस्र मुद्राएँ उसे पुरस्कार में दीं। जहाँगीर शैली के चित्रों में इस चित्रकार का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
जहाँगीर के चित्रकारों में उस्ताद मंसूर उच्च कोटि के माने जाते थे। इन्होंने पशु पक्षियों और फूल पेड़ आदि के चित्रण में दक्षता प्राप्त की थी। इन्हें 'नादर-उल-असा' की पदवी प्राप्त थी। उस्ताद मंसूर ने सैकड़ों तरह के पुष्पों को चित्रित किया।
अपने हिंदू चित्रकार बिशन दास के विषय में जहाँगीर ने 'तुजुक-ए-जहाँगीरी' में लिखा है कि 'शबीह' लगाने में वह अपना जोड़ नहीं रखता। जहाँगीर ने जब अपने राजदूत ईरान के शाह अब्बास के यहाँ भेजे (१६१८-१६१९), तो उनमें बिशन दास चित्रकार भी था। जहाँगीर ने लिखा है -
'उसने मेरे भाई शाह अब्बास की ऐसी सच्ची शबीह लगाई कि मैने जो उसे शाह के नौकरों को दिखाया तो वे मान गए। मैने बिशनदास को एक हाथी और बहुत कुछ पुरस्कार दिया।
इन मुख्य चित्रकारों के अतिरिक्त मुहम्मद नादिर, मुहम्मद मुराद, गोवर्धन, मनोहर, दौलत, लाल, साँवला भी बादशाह के दरबार में रहते थे और दरबार से संबंधित घटनाओं को चित्रित करते थे।
कलापारखी- जहाँगीर कुशल कलापारखी भी था। इसको चित्र परखने का इतना अभ्यास था कि एक ही आकृति, एवं एक ही रंग रूप से तैयार किए गए अनेक चित्रकारों के चित्रों को अलग कर सकता था। यहाँ तक कि एक ही चित्र में विभिन्न कलाकारों द्वारा बनाए गए विभिन्न अंशों को वह एक दृष्टि में समझ सकता था और बता सकता था कि कौन सा अंश किस उस्ताद का बनाया हुआ है। जेम्स प्रथम के राजदूत, सर टॉमस रो ने, जो जहाँगीर के दरबार में १६१५ ई० में उपस्थित हुआ लिखा है कि जहाँगीर को यूरोपीय चित्रों का बहुत शौक था। जब उसने किसी यूरोपीय चित्रकार का बनाया हुआ चित्र बादशाह की सेवा में भेंट किया, तो उसने वैसी ही, नकल तैयार करने के लिए अपने दरबारीश् चित्रकरों को आज्ञा दी । उनकी प्रतिकृतियाँ तैयार होने पर सर टॉमस रो के संमुख रख दी गई, इन्हीं चित्रों में ईसाक ऑलिवर का भी एक चित्र था।
जहाँगीर शैली की विशेषताएँ- जहाँगीर को चित्रों को संगृहीत करने का बहुत शौक था। चित्रों को एल्बम में रखा जाता था। शाही पोथीखाने में रखे गए चित्रों पर शाही मुहर लगाई जाती थी। इस प्रकार हमें जहाँगीर के जीवन संबंधी तथा उस काल के सभी प्रमुख व्यक्तियों के चित्र मिल जाते हैं जिनका राजदरबार से संबंध था। चित्रों का विषय राजदरबार या राज उत्सवों तक ही सीमित न रहा। आखेट, और घुड़दौड़ के चित्र, हाथियों की लड़ाई, ऊँटों की लड़ाई, पशु पक्षियों से लेकर फूल और पौधे तक का चित्रण - ये सब विषय जहाँगीर की चित्रशाला की शोभा बढ़ाते थे। उस्ताद मंसूर के फूल और पशु पक्षियों के चित्रण में ऐसी सुकोमलता और स्वाभाविकता है कि दर्शक विमुग्ध हो जाता है। चित्रों की पृष्ठभूमि, व्यक्तियों की सूक्ष्मतमश् रूपरेखा, दृश्यों की योजना तथा रंगों के संयोजन में ये चित्र अकबरी शैली के चित्रों से कहीं आगे बढ़ गए हैं। अनुकृति मात्र न होकर ये अब ईरानी प्रभाव से मुक्त हो गए हैं, और स्वाभाविक प्रतीत होते हैं।
व्यक्तिचित्रों में, मानवीय संवेदना और व्यक्तित्व की प्रेरणा है, यद्यपि अंग प्रत्यंग का चित्रण और वस्त्राभूषण की योजना करने में चित्रकार की दृष्टि यर्थाथ पर ही टिकी रही। इन चित्रों की बारीकी बहुत ही आकर्षक है।
मुगल चित्र का विधान और उसकी सामग्री - मुगल चित्र प्राय: कागज़ पर ही बनाए जाते थे। बढ़िया 'ईरानी' या 'इसफहाली' किस्म के कागज के दो या तीन पर्त लेकर लेई से उन्हें एक में चिपटा दिया जाता था। इसके बाद सुलेमानी पत्थर से घुटाई की जाती थी। कागज मोटा और तसवीर बनाने के योग्य ही जाता था और कागज में आब आ जाती थी। चित्रकार, एक हल्के 'आब रंग' (मिली हुई स्याही, गुलाली और प्योड़ी) से 'शबीह' या 'ख्याली चित्र' को अंकित कर देता था। इसे 'टिपाई' कहते थे। इस पर फिर पतले सफेदे का अस्तर दिया जाता था, ताकि नीचे का 'खाका' दिखाई दे। इस खाके पर फिर रंग भर दिए जाते थे। इसे 'अमली' कहते थे। जहाँ वस्त्रों पर सजावट या श्रृगांर आदि करना होता, चित्रकार 'सोने' या 'स्याही' को घोलकर अलंकरण बना देते थे। अब चित्र की घुटाई करते थे। इससे चित्र के रंगों में आब आ जाती थी और चित्र मीनेकारी जैसा जान पड़ता था। चित्र को फिर 'बसतली साज' के सुपुर्द कर दिया जाता जो चित्र को बसतली पर सजाता था। (कागज के कई पर्त जमा कर बनाई गई दफ्ती को बसतली कहते हैं)। अब चित्र नक्काश या 'खतकश' के हाथ में आता था जो उसे 'नक्काशी' या खतकश बेलें, फूल पत्तियाँ, या कोण रेखाओं से सुसज्जित हाशिये में सजाया करता था। ये हाशिए मुगल दस्तकारी के उत्कृष्ट नमूने हैं और कभी कभी 'हाशिए' की चित्रकारी प्रधान चित्र से भी उत्कृष्ट हो जाती है। जहाँगीर के समय में हस्तलिखित पोथियों के बदले स्फुट चित्र बनाने की प्रथा ही प्रिय हो गई। इस तरह, 'लघु चित्र' या 'शबीह चित्रों' को बसतली पर, सुंदर हाशियों से जड़ने की प्रथा भी चालू हो गई। हाशियों पर ऐसे बेल बूटे और शिकारगाह के दृश्य अंकित होते थे जिनका मेलजोल चित्र से हो। कुछ हाशियों पर सोने या चाँदी का छिड़काव रहता था - जिसे अफशां कहते थे। बसतली के पिछले हिस्से पर फारसी सुलिपि के नमूने जमाए जाते थे। इनके भी हाशिए बने रहते थे।
मुगल चित्रकार अपनी 'कलम' को बड़े परिश्रम से तैयार करते थे। गिलहरी की पूँछ के बालों से तैयार किया हुआ बुरुश 'उमदा' और बारीक रेखाओं के लिए रखा जाता था। नेवले के बाल या बकरी के पेट के नीचे के बालों से भी बुरुश तैयार किए जाते थे। पुराने और घिसे हुए बुरुश 'खाका' खींचने और रूपरेखा'बनाने के काम आते थे।
अकबर के काल में रंगों के बनाने और प्रयोग में बहुत उन्नति हुई। जहाँगीर के चित्रकारों ने इन रंगों को बढ़िया सज्जा दी। रंगों की बड़े परिश्रम से घुटाई की जाती थी। मुगल चित्रों के रंग मजबूत और ठहराऊ हैं। ऐसे रंग खनिज से बनाए जाते थे - जैसे लाजवर्द। कुछ रंग मिट्टी और चूने (Earths) से भी तैयार किए जाते थे - जैसे गेरू, रामरज, शंगरफ। रासायनिक प्रभाव से रंग तैयार करने की विधि भी प्रचलित थी - जैसे सफेदा, सेंदुर, काजल, जंगाल। कुछ रंग वनस्पति और जीव पदार्थ से तैयार होते थे - जैसे - नील, गुलाबी, प्योड़ी।
ये सभी रंग, चित्र की घुटाई होने पर, मीना जैसे चमकने लगते थे, जिससे चित्र में 'ओप' आ जाती थी। इस पर चाँदी और सोने का प्रयोग चित्र को कहीं आकर्षक बना देते थे।
मुगल चित्रकारों को रंगों को मिलाकर या सफेदे के प्रयोग से रंगों को हल्का करके, स्वतंत्र रूप से चित्र बनाने की क्षमता थी। मुगल राज्य के उत्तरार्ध में, विशेषकर शाहजहाँ के राज्यकाल में चित्रों में विदेशी रंगों का प्रयोग भी शुरू हो गया।
पश्चिमी प्रभाव - जहाँगीर को यूरोप के चित्रों की कदर थी और उसके राज्य में यूरोप के चित्र, काफी संख्या में आए। बादशाह ने चित्रकारों से उनकी प्रतिकृतियाँ तैयार कराईं। इनके आधार पर स्वतंत्र चित्र भी बनाए जाने लगे। यूरोपीय चित्रों में 'साया' और 'उजाले' के प्रयोग से पूरा डौल दिखाया जाता है। जहांगीर शैली के चित्रकारों ने, विशेषकर उसके उत्तरार्ध में, साया और उजाले से डौल दिखाने का प्रयत्न किया है। किंतु इन चित्रों में कृत्रिमता सी उभर आई है और परिदृश्य भी यूरोपीय चित्रों से भिन्न हैं। इस प्रकार के चित्र दृश्यों से संबंधित हैं - जैसे लालटेन द्वारा आखेट के दृश्य, भीलों द्वारा हिरणों का शिकार या जंगल में झोपड़ी के सामने गोष्ठी। इन चित्रों में साया या उजाले का प्रभाव स्वाभाविक न होकर आलंकारिक सा रह जाता है।
जहाँगीर के काल में तैयार किए गए व्यक्ति चित्र या 'शबीहों' की संख्या अगणित है। शाही परिवार की तरह अमीर उमरा भी कलाकारों को शरण देते थे और उनसे अपनी 'शबीह' लगवाते थे। इन्हें देख कर हमें विशिष्ट व्यक्तियों के चरित्र का परिचय मिलता है। मुखाकृति और हाथों के चित्रण में तो इन चित्रकारों ने अद्वितीय कौशल प्राप्त कर लिया था। इस समय के शबीह चित्रों में - पृष्ठिका में - यूरोपीय ढंग के दृश्यों का प्रभाव स्पष्ट है।
शाहजहाँ (१६२८-१६५८) - शाहजहाँ में परंपरागत कला प्रेम की भावना भवन-कला-निर्माण की और प्रकट हुई। चित्रकला में उसे विशेष रुचि न थी, यद्यपि कुछ प्रसिद्ध चित्रकार उसके दरबार में काम करते थे। इनमें गोवर्द्धन, मोहम्मद नादिर, मनोहर, विचित्तर, चित्रमन मुख्य चित्रकार थे। उसके दरबार में, ईरानी चित्रकार, मुहम्मद ज़माँ ने भी कुछ वर्षों तक सेवा की। उसके कारण मुगल चित्र कला पर पश्चिमी प्रभाव शुरू हो गया।
शाहजहाँ की उदासीनता के कारण, दरबारी चित्रकारों में भी कला के लिए उत्साह न रहा। इस समय के तैयार किए गए चित्रों में कृत्रिमता के भाव प्रकट होते हैं। कला का उद्देश्य मुगल साम्राज्य के वैभव, तथा अमीर उमरावों के व्यक्तिगत ऐश्वर्य का प्रदर्शन-मात्र रह गया। दरबार संबंधी चित्रों का आकर्षण रंगों की सजावट, स्थल की व्याख्या, अंग प्रत्यंग का चित्रांकन, और वस्त्राभूषणों की अलंकारिकता पर केंद्रित होने लगा। अब रेखाओं की सूक्ष्मता और बारीकीपन प्रधान हो उठे।
अकबर के समय में, स्त्रियों के चित्र या उनकी शबीह लगाने का कोई भी चिह्न नहीं मिलता। यह निश्चित है कि जहाँगीर के समय में कुछ राजकीय सदस्यों की शबीहें तैयार की गई थीं। इस काल में स्त्रियों के अंत:पुर आदि के दृश्य भी चित्रित किए गए थे। शाहजहाँ के राज्य के आरंभ से ही बादशाहों के अंत:पुर के दृश्यों की लोकप्रियता बढ़ गई। कलाकारों का ध्यान अब दैनिक जीवन और सामान्य विषयों की ओर आकर्षित होने लगा। चूंकि स्त्रियों ने राजनीति में प्रमुख भाग लिया था, स्त्रियों के दैनिक जीवन के दृश्य उनके श्रृगांर और अमोद प्रमोद के विषय चित्रकारों को विशेष प्रिय हो गए।
इन चित्रों में श्रृगांर और सौंदर्य की प्रधानता है। कई ऐसे चित्र हैं जहाँ बादशाह अंत:पुर में परिचारिकाओं से घिरे हुए, उद्यानों के बीच या संगमरमर की छत पर चाँदनी रात में नाट्य उत्सव देख रहे हैं। सेज पर अधलेटे हुए बादशाह के साथ कीमती वस्त्रों और झीने दुपट्टों से सुसज्जित सुंदरियाँ रूपछवि लुटा रही हैं। कहीं कहीं श्रृगांर कक्ष में सुंदरी बाल सँवार रही है या उसकी परिचारिकाएँ उसका श्रृगांर कर रही हैं। ऐसे प्रसंग जन साधारण के लिए विशेष रोचक थे। चित्रकला का ्ह्रास आरंभ हो गया।
दारा शिकोह - शाहजहाँ के बेटे शाहज़ादा दारा को चित्रों से बहुत प्रेम था। उसका चालीस चित्रों का एल्बम इंडिया हाउस लाइब्रेरी में सुरक्षित है। यह एल्बम दारा ने अपनी पत्नी नादिरा बेगम को १६४४ ई० में उपहार में दिया था। इस संग्रह में उस्ताद मंसूर के फूलों के चित्र भी मौजूद हैं।
औरंगज़ेब (१६५८-१७०७) - औरंगज़ेब धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसकी अनुदारता और संकीर्णता से चित्रकला को बहुत धक्का लगा। शाही संरक्षण समाप्त होने से कला का विकास अवरुद्ध हो गया और चित्रकार अमीर उमराओं की शरण में चले गए जहाँ उनका संमान पूर्ववत् बना रहा। यहाँ चित्रकला का क्रमश: विकास प्रांतीय शाखाओं के रूप में हुआ। [(कु.) कौमुदी]