मखौटा अपने मुख का कोई भाग या पूरा मुख, लोकदृष्टि से छिपाने के लिए जो कपड़ा मुख पर डाला जाता है उसे मुखावरण और किसी जीव अथवा देवता का रूप धारण करने के लिए जो मुख पर चित्रित आकृति का आवरण लगाया जाता है उसे मुखौटा कहते हैं। मुख की आकृति ढकने के लिए प्राय: आँख पर काली पट्टी बाँध ली जाती है या तुर्की स्त्रियों की भाँति आँख के नीचे का भाग ढकने के लिए या मुसलिम स्त्रियों की भाँति सिर से पैर तक शरीर को ढकने के लिए जो आवरण (बुर्का) डाला जाता है वह भी मुखावरण के अंतर्गत आ जाता है।
यूनान में यह प्रथा थी कि जो अभिनेता धार्मिक कर्मकांड के अवसर पर किसी देवता से आविष्ट होकर उसका अभिरूपण करता था, उसे उस देवता का मुखौटा लगा देते थे। हमारे यहाँ रामलीला में हनुमान, सुग्रीव, जांबवंत, अंगद या रावण का मुखौटा लगाकर अभिनय किया जाता है। काशी की नक्कटैया (शूर्पणखा के नाक कान काटने की लीला) की यात्रा में जो लोग काली आदि का स्वाँग बनाते हैं वे भी मुखौटा लगाते हैं। तिब्बत, चीन, जापान, ब्रह्मा, स्याम, श्रीलंका और जावा में मध्यकालीन यूरोप के चमत्कार नाटकों (मिरेकिल प्लेज़) के समान नृत्यों और नाटकों में मुखौटों का प्रयोग होता है।
यूनान में बाखस देवता की पूजा के उत्सवों में भी मुखौटों का प्रयोग होता था। यूनानी नाटकों में भी रँगे हुए टाट या मोटे कपड़े के ऐसे विचित्र और बड़े मुखौटे बनाए जाते थे कि उनपर बने हुए भाव सबको दूर से स्पष्ट दिखाई दें, दर्शकों को पात्र का परिचय मिल जाए और मुखौटे के भीतर से बोली हुई ध्वनि दूर तक सुनाई दे सके। प्रसिद्ध यूनानी नाटककार अस्कुलस ने केवल मुख ढकनेवाले ही नहीं वरन् पूरा सिर ढकनेवाले काँसे के मुखौटे बनाए थे जिनमें बाल भी लगे रहते थे और मुँह भी इतना ही खुला रहता था कि वाणी स्पष्ट निकल सके। उनमें आँखों के स्थान में आँखों की पुतलियों के बराबर छेद बने होते थे। त्रासदी के इन मुखौटों के अतिरिक्त प्रहसन के लिए बड़े कुदर्शन और विकृत मुखौटे बनाए जाते थे जिनके ओठ भोंपे के समान बड़ी सी दुहरी सीपी की आकृति के होते थे जिससे स्वर गूँज सके। यह मुखौटा सिर पर ढकी हुई टोपी के साथ जुड़ा रहता था। यूनान और रोम की रंगशालाओं में लगभग सभी पात्रों के लिए अलग अलग आकृति के इस प्रकार के मुखौटे बनाए जाते थे।
मिस्र में मृतकों के मुख पर उनकी मुख की आकृति के सोने के मुखौटे लगाए जाते थे। यूनान में भी समाधियों के भीतर संभवत: पाताल लोक की देवी परसर फोली को प्रसन्न करने के लिए उनकी आकृति के मुखौटे दीवार पर टँगे मिलते हैं।
जापान में सातवीं या आठवीं शताब्दी में चीन से मुखौटों का प्रयोग लिया गया। इनमें से सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक मुखौटे नोह नाटकों के होते हैं जिनका सबसे प्राचीन प्रयोग संबासो नामक मुखौटा नृत्य में होता है। जापानी राजसभाओं में बूकागू (सभानृत्य) में भी बहुत बड़े बड़े मुखौटों का प्रयोग होता है। नोह नाटकों के मुखौटे सौ प्रकार के मिलते हैं जिनमें पुरुष, स्त्रियाँ, देवता, राक्षस और पशुओं की आकृति बनी रहती है। नोह नाटक के ये मुखौटे लकड़ी के बने होते हैं जिसके भीतर भूमिका का नाम लिखा रहता है। इन नाटकों, नृत्यों और धार्मिक उत्सवों के मुखौटों के अतिरिक्त बच्चों के खेलने के लिए और शिरस्त्राण तथा ढालों पर शत्रुओं को डराने के लिए भी मुखौटे बना लिए जाते थे।
तिब्बत में लामा लोग वर्ष के निश्चित अवसरों पर भयोत्पादक मुखौटे लगाकर दुष्ट भूत, प्रेत, राक्षसों को भगाने के लिए देवताओं और राक्षसों का चरित्र प्रदर्शन करने वाला रहस्य नाटक, करते हैं जो आज भी लाल व्याघ्र या राक्षस का नृत्य कहलाता है। ये मुखौटे गला हुआ कागज कूटकर या कपड़े से बनाए जाते हैं। सिक्किम और भूटान में लकड़ी पर खोदकर मुखौटे बनाए जाते हैं। ये मुखौटे पाँच प्रकार के होते हैं -
१. दानवों के राजा का बड़ा और भयानक मुखौटा जिसमें बड़े बड़े दाँत और तीन आँखें होती हैं। २. दस भयानक दैत्य और दस बेतियानी के मुखौटे जिनपर साँड़, व्याघ्र, सिंह, गरुड़, वानर, हरिण और याक के मुख बने होते हैं। ३. शवभक्षक दैत्य का मुखौटा जो खोपड़ी जैसा होता है। ४. पृथ्वी के स्वामी के दैत्य मुखौटे जो विशाल और भयानक होते हैं और जिनमें आँखें बड़ी होती हैं। ५. भारत से तिब्बत में बौद्ध धर्मवाले भिक्षु, बौद्ध विद्वान् और विदूषकों के कपड़े के मुखौटे जो सफेद मिट्टी या काले रंग में रँगे हुए साधारण आकार के होते हैं।
चीनी रंगशालाओं में कुटे हुए कागज के बने हुए मुखौटे ही अप्रधान पात्रों के लिए काम में लाए जाते हैं। इनमें से दुष्ट शासक के लिए लाल और निर्दय के लिए काला मुखौटा होता है। इनके अतिरिक्त बौद्ध धर्म से संबंध रखनेवाले मुखौटे नाटकों में अधिक प्रयुक्त होते हैं। बौद्ध धर्म से प्रभावित तिब्बत, चीन, जापान तथा आसपास के देशों में सिंह के सिर का मुखौटा लगाकर किया जानेवाला सिंहनृत्य बहुत प्रसिद्ध है। इसमें सिंह के मुखौटे का नीचे का जबड़ा ताल के साथ डोरी खींचने पर खट खट करता चलता है। तायरोल, स्लावा और जूनी इंडियाना के विशाल मुखौटों में भी ऐसी ही यांत्रिक क्रिया होती है।
श्रीलंका में नाटकों, मुखावरण-संमेलनों या मुखावरण-नृत्यों (मास्करेड) और दैत्य नृत्यों में मुखौटों का प्रयोग होता है। भूत प्रेत भगाने के लिए विभिन्न रोगों का प्रतिनिधित्व करानेवाली आकृतियों के मुखौटों का प्रयोग होता है जो लकड़ी पर खोदकर बनाए जाते हैं। घातक रोगों के मुखौटे दैत्यों के आकार के होते हैं। पशुरोगों के मुखौटों में बड़े बड़े सींग और दाँत बने होते हैं। वहाँ गृहप्रवेश के समय गारा नामक राक्षस को भगाने के लिए भी मुखौटा पहना जाता है।
जावा में लकड़ी के बने हुए उपेंग नामक मुखौटे लगाए जाते हैं। यद्यपि वहाँ के निवासी सब मुसलमान हैं और मुखौटों का प्रयोग मुस्लिम धर्म के अनुसार वर्जित है, फिर भी उनके नाटकों की कथाएँ महाभारत और रामायण से ली गई हैं जिनमें वे मुखौटे लगाते हैं।
नीलेनेशिया के लोग अपनी गुप्त समितियों में खुदी हुई लकड़ी के मुखौटे लगाकर जाते हैं। अफ्रीका के पश्चिमी तट के कौंगो प्रदेश निवासी युद्ध, नृत्य और विनोद के मुखौटों का प्रयोग करते हैं। ये खुदी हुई लकड़ी के मुखौटे इतने कलात्मक होते हैं कि संसार में उनकी कहीं तुलना नहीं हो सकती। पूर्वी यूरोप में स्लाव लोग अपने उत्सवों में मुखौटों का प्रयोग करते हैं जिनपर बारहसिंगों के मुख बने रहते हैं जैसे यूरोप के अन्य भागों में मई उत्सव के नृत्यों में किसान लगाते हैं।
उदात्तवादी (क्लासिकल) नाटकों के ्ह्रास के पश्चात् मुखौटों का प्रयोग समाप्त हो गया किंतु फिर भी मध्य काल में मूक प्रहसन तथा इतालिया के लोकप्रिय सुखांत नाटक (कमीदिया दलातें) के द्वारा मूक नाट्य (पेंतौमीम) के रूप में विकसित हुआ। मास्करेड (मुखौटों का उत्सव) का प्रादुर्भाव भी इटली में हुआ जहाँ डोमिनो (अधमुखौटे) के साथ ढीला चोगा पहना जाता था। यह मुखौटा नृत्य (मास्करेड) १३ वीं शताब्दी में बड़ा लोकप्रिय था जिसमें लोग सिंह, हाथी या मनुष्य के सिर के मुखौटे बनाकर उसमें चमगादड़ के पंख बनवा लेते थे। शेक्सपियर के समय में तो प्राय: महिलाएँ अपनी आकृति छिपाने के लिए आँखों पर काला आवरण डालकर नाटकों में जाती थीं।
अमरीका की आदिम जातियों के धार्मिक जीवन में मुखौटे का बड़ा महत्व है। मेक्सिको में भी पत्थर पर खुदे हुए मुखौटे प्राप्त हुए हैं और लकड़ी पर खुदे हुए तथा वैडूर्य मणि जड़े हुए मुखौटे संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। दक्षिण पश्चिम अमरीका के रेड इंडियन देवता के मुखौटे लगाते हैं। प्रशांत महासागर के तटवासी दुहरे मुखवाले मुखौटे बनाते हैं जिनमें मानवीय आकृति के थूथन या चोंच इस प्रकार बनी होती है कि उत्सव के समय खुलकर झूल जाती है। अमरीका के दक्षिण पश्चिमी भाग के इंडियन लोग ऐसा ढोल के समान गोल मुखौटा लगाते हैं जो सिर को ढँकता हुआ कंधे पर टिक जाता है किंतु केवल मुख ढकनेवाले विचित्र मुखौटों का प्रयोग भी वहाँ होता है। ये मुखौटे दो प्रकार के होते हैं - गोल मुखौटे पुरुषों के और चौकोर स्त्रियों के होते हैं। क्लिफ्ट बैलूम में रहनेवाले लोगों के मुखौटे पक्षी, वृक्ष और देवताओं की आकृति के होते हैं। अमरीका की उत्तर पश्चिमी तटवासी जातियों में दो प्रकार के मुखौटे चलते हैं। एक तो साधारण नृत्य मुखौटे और दूसरे तीन से पाँच फुट तक ऊँचे वंशघोषक मुखौटे जो घरों के आगे खंभों पर टँगे रहते हैं। उनके नृत्य मुखौटों का प्रयोग पोबलाश नामक उत्सव पर और मूक नाट्य के मुखौटों का प्रयोग जाड़े में होता है। ये मुखौटे देवदार की लकड़ी के बने होते हैं। इक्वेडर और पीरू में भी मुखौटों का पहले बहुत महत्व था। अमेज़न प्रदेश में गायना की रहनेवाली जातियाँ मुखौटों का प्रयोग करती हैं और टिप्राडेलाफ्यूगो में वृक्ष की छाल और सील की खाल के और मछली के आकार के नृत्य मुखौटे बनाए जाते हैं। पीरुविया में मिट्टी के पके हुए मुखौटे समाधियों में मिले हैं और नीमा के पास पुरानी समाधि स्थली में मनुष्य की खोपड़ी के बने हुए मुखौटे मिले हैं। पीरुवियावाले भी लकड़ी का मुखौटा बनाकर मृतक के मुँह पर कील से जड़ देते थे।
हमारे यहाँ रामलीला के अतिरिक्त दक्षिण में कथकली नृत्यों में मुखौटे लगाने की प्रथा है जिसके साथ मुकुट भी बना रहता है।
संसार के ये सब मुखौटे पाँच प्रकार के होते हैं; १. जो केवल आँख ही ढके ; २. जो पूरा मुँह ढके ; ३. जो पूरा मुँह और खोपड़ी ढके ; ४. जो आगे पीछे पूरे सिर को ढके और ५. जो सिर को ढकता हुआ आकर कंधों पर बैठ जाए। इन मुखौटों में इतनी सुविधा अवश्य होनी चाहिए जिसमें देखने और साँस लेने के लिए पूर्ण अवकाश हो।
यूरोप में कुछ ऐसे चलते हुए यात्रा दृश्य (पेज़ेंट) दिखाए जाते हैं जिनमें बहुत बड़े बड़े १५-२० फुट ऊँचे अत्यंत हास्यजनक विनोदात्मक मुखौटे बनाए जाते हैं जो चारों ओर झूलते ऐसे प्रतीत होते हैं मानो कोई वास्तविक जीवित व्यक्ति ही सिर हिला रहा हो।
इस प्रकार संसार में कोई ऐसा सभ्य अथवा अविकसित देश नहीं है जहाँ धार्मिक कर्मकांड, नाट्य, नृत्य अथवा लोकव्यवहार में मुखावरण या मुखौटे का प्रयोग न होता हो।
[सीताराम चतुर्वेदी]