मुखाकृति विज्ञान (Physiognomy) मनोविज्ञान और शरीर-क्रिया-विज्ञान से संबंधित विज्ञान की एक शाखा है। इस विज्ञान के अंतर्गत मानव की मुखाकृति और अभिव्यक्ति का अध्ययन किया जाता है। इस विज्ञान के बारे में विभिन्न प्राचीन विचारकों के विचार विभिन्न रहे हैं। प्लेटो और उसके बाद अरस्तू का मत था कि प्रकृति आत्मा की प्रवृत्तियों के अनुरूप शरीर को ढालती है। अरस्तू ने मुखाकृति विज्ञान पर एक किताब लिखी थी। विकासवादी न होने पर भी प्लेटो ने मानव आकृति की तुलना पशु आकृति से की। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि सिंह का वंशगुण उदारता और साहस है। अत: चौड़े सीने, दृढ़ कंधों और कठोर मुखाकृति वाला मनुष्य उदार और साहसी होगा। जी० देला पोर्ता (G. della Porta) ने मोर, कुत्ता, घोड़ा, गदहा, साँड, मुर्गा, सूअर आदि पशुओं की आकृति से मानव की आकृति की तुलना की। लावाटर (Lavater) ने आकृतिविज्ञान में वैज्ञानिक कार्य किया। यद्यपि डिक्तेनबर्ग (Dichtenberg) ने 'दुम आकृतिविज्ञान' शीर्षक से व्यंग्यलेख लिखकर लावाटर का मजाक उड़ाया, परंतु आकृति विज्ञान के इतिहास में लावाटर चिरस्मरणीय रहेगा। इस विज्ञान का वास्तविक आरंभ कैंपर (Camper) के समय से हुआ जब उसने मुखकोण (facial angle) की जो, इस विज्ञान की सबसे प्रतिभाशाली शोध रही है, खोज की, १८०६ ई० में चार्ल्स बेल (Charles Bell) का 'अभिव्यक्ति का शरीर-क्रिया-विज्ञान और दर्शन' प्रकाशित हुआ। प्रख्यात सेरातायोलेत (Cera Tiolet) ने सॉरबॉन (Sorbonne) में अभिव्यक्ति पर एक सार्वजनिक भाषण दिया, जो १८६५ ई० में प्रकाशित हुआ। पिडरिट (Piderit) ने १८५९ ई० में अभिव्यक्ति, और १८६७ ई० में मुखाकृति विज्ञान और अभिव्यक्ति पर एक वैज्ञानिक प्रबंध प्रकाशित किया।
आदमी आदमी में पहचान करने की दृष्टि से चेहरे के सभी भागों का महत्व समान नहीं है। मुख के लक्षण दो प्रकार के होते हैं, मुख्य और सहायक। यदि किसी व्यक्ति की आँख, नाक और ऊपरी होंठ खुले हों और बाकी चेहरा ढका हो, तो उसे पहचाना जा सकता है, परंतु यदि ये भाग ढके हों और बाकी के भाग खुले हों तो व्यक्ति पहचान में नहीं आता। इसी प्रकार चेहरे का वह भाग जो नाक की हड्डी से मस्तक के मध्य भाग तक जाता है और दोनों कनपटियों के बीच स्थित है चेहरे की पहचान का अनिवार्य प्रभेदक लक्षण है और गंडास्थि तथा नाक का निचला भाग सहायक प्रभेदक लक्षण है। मानव-जाति-विज्ञानीय (ethnological) तथा सुरुचिपूर्ण विशेषताएँ शारीरलक्षणों (anatomical characters), पर लगभग पूर्णतया निर्भर करती हैं, जबकि इसके विपरीत शरीरात्मक (physiological), नैतिक और बौद्धिक गुण, शारीर (anatomy) से अधिक, अभिव्यक्ति पर निर्भर करते हैं। मुखाकृति विज्ञान में चेहरे का प्रत्येक भाग विचारणीय है।
ललाट - ललाट आँखों के बाद बुद्धि का सबसे विश्वस्त सूचक है।
आँख - मुखाकृति विज्ञान में आँखें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। आँखों की अभिव्यक्ति का अध्ययन करते समय उनकी बनावट, स्थिति, रंग और भौंह तथा बरौनियों के विन्यास का विचार किया जाता है। बड़ी आँख पूर्णता की आदर्श स्थिति है और छोटी आँख भद्दी लगती है। यदि आँखें काफी दूर दूर हों, या बहुत निकट हों, तो भी भद्दी लगती हैं। विशेषकर पहली स्थिति में आँखों में, पाश्विक अभिव्यक्ति और प्रतिकर्षकता आ जाती है। आँखों का अतिशय रूप से नेत्र कोटर में धँसा होना अतिशय दुर्बलता के कारण, या कोटर की छत के बाहर निकले हुए होने के कारण, होता है। उक्त दोनों स्थितियों में आँखों से दुखी या हिंस्र प्रकृति का बोध हो सकता है। आँखों का रंग परितारिका (iris)� और पुतलियों के प्रभाव पर निर्भर करता है। भिन्न भिन्न प्रजातियों में आँखों का रंग भिन्न भिन्न होता है। काली आँखें आवेश और अनुभूतिशीलता के लिए उपयुक्त जान पड़ती हैं, नीली और भूरी आँखें स्वभाव की मृदुता और सौजन्य को अभिव्यक्त करती हैं। आँखों में परिवर्तनशील चमक होती है, जो उनकी व्यंजना को रूपांतरित करने में सहायक होती है। हँसते, बोलते और तेजस्विता के साथ सोचते हुए व्यक्ति की आँखें बहुत चमकदार रहती हैं और बुद्धिहीन, दुर्बल या बीमार आँखों की चमक बहुत क्षीण होती है।
नाक - यदि नाक छोटी हो और उसका सिरा ऊपर की ओर मुड़ा हो, तो उससे मुख पर चंचलता और अशिष्टता का भाव आ जाता है। आवेश और आह्लाद की स्थिति में नथुने स्पष्ट रूप से फूलने तथा सिकुड़ने लगते हैं।
मुँह - यह भावना और कामुकता की अभिव्यंजना का केंद्र है। अत्यधिक माँसल होंठोंवाला मुँह भद्दा प्रतीत होता है और यह स्थिति प्राय: उभरे हुए थूथनवाले मूँह, या वैज्ञानिक शब्दों में बहि:क्षेपात्मक (prognathous) मुँह, में होती है। ऐसे मुँह में ऊपरी होंठ निचले होंठ को छोपकर बाहर निकला होता है। यह सहृदयता का स्पष्ट चिह्न है। ऐसे मुँह को भावुक मुँह कह सकते हैं। बराबर होंठवाले मुँह ईमानदार और विश्वसनीय व्यक्तियों में पाए जाते हैं। जिस व्यक्ति के मुँह का निचला होंठ ऊपरी होंठ से बाहर निकला होता है उसे चिड़चिड़ा कह सकते हैं।
चिबुक (chin) - इसका बहुत प्रशस्त होना इच्छाशक्ति की प्रबलता का सूचक है। लावाटर के अनुसार पश्चप्रवण ठुड्डी सदा अभावात्मक विशेषता की परिचायक है।
मुख के अन्य भाग भी व्यक्ति को परखने में सहायक होते हैं और उनका अध्ययन मुखाकृतिविज्ञान का अंग है, परंतु ये अपेक्षाकृत कम महत्व के हैं।
सं० ग्रं० - डार्विन : दि एक्सप्रेशन ऑव दि इमोशन्स इन मैन एंड ऐनिमल्ज, लंदन, १८७२; टोपिनार्ड : द ला, मॉर्फ़ोलोजिया दू नेज़, बुलेटिन द ला सोसाइटी ऐंथेपॉलोजी, खंड ८, १८७३; सी - थोर : डिक्शनेयर द ला फ्रेनॉलोजी एट द ला फ़िज़िऑग्नोमी ब्रसेलीज़, १८३७।