मुंशी सदासुखलाल खड़ी बोली के प्रारंभिक गद्यलेखकों में मुंशी सदासुखलाल का ऐतिहासिक महत्व है। फारसी एवं उर्दू के लेखक और कवि होते हुए भी इन्होंने तत्कालीन शिष्ट लोगों के व्यवहार की भाषा को अपने गद्य-लेखन-कार्य के लिए अपनाया। इस भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग करके भाषा के जिस रूप को इन्होंने उपस्थित किया, उसमें खड़ी बोली के भावी साहित्यिक रूप का आभास मिलता है। अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त इन्होंने उस गद्य परंपरा का अनुसरण किया जो रामप्रसाद 'निरंजनी' तथा दौलतराम से चली आ रही थी। खड़ी बोली का यह रूप 'भाखा' नाम से संबोधित किया जाता था। इसके प्रति इनका अगाध स्नेह था। इसीलिए फारसी मिश्रित गद्य की प्रतिष्ठा होते हुए देख इन्होंने खेद प्रकट करते हुए लिखा था 'रस्मोरिवाज भाखा का दुनिया से उठ गया'। लल्लूलाल तथा सदल मिश्र ने अंग्रेजों की अधीनता में फोर्ट विलियम कालेज में गद्यरचना की। इनकी तथा मुंशी इंशाउल्ला खाँ की स्वतंत्र रूप से 'स्वांत:सुखाय' गद्यरचना थी। इन चारों प्रारंभिक गद्यलेखकों की भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम देखते हैं कि लल्लूलाल की भाषा में ब्रजभाषा के रूपों की भरमार है। पद्यमय वाक्यविन्यास और तुकबंदियाँ होने के कारण वह व्यवहारानुकूल और संबद्ध विचारों को व्यक्त करने में यथेष्ट सक्ष्म नहीं है। यद्यपि मुंशी इंशाउल्ला खाँ ने 'हिंदवी छुट किसी बोली का पुट न रहे' के अपने कथनानुसार हिंदी केअतिरिक्त किसी भाषा का पुट न रखने का निश्चय किया था, फिर भी अपने लेखनकौशल के प्रदर्शन की धुन में चुलबुली भाषा में उर्दू के ढंग का वाक्यविन्यास रखने और सानुप्रास विराम की छटा दिखाने के लोभ का वे त्याग न कर सके। अत: इन चारों प्रारंभिक गद्यलेखकों में व्यवहारानुकूल गद्य लिखने का प्रयास सदासुखलाल तथा सदल मिश्र में ही दृष्टिगोचर होता है। परंतु इन दोनों गद्यलेखकों में कुछ ऐसे दोष रह गए थे जिनसे इनकी गद्यपरंपरा का आगे अनुसरण न किया जा सका तथा इनका गद्य, गद्य साहित्य के इतिहास में ऐतिहासिक उल्लेख मात्र करने के लिए रह गया।

मुंशी सदासुखलाल की भाषा शिष्ट होते हुए भी पंडिताऊपन लिए हुए थी। उसमें 'जो है सो है' 'निज रूप में लय हूजिये' 'बहुत जाधा चूक हुई' स्वभाव करके दैत्य कहाए' 'उन्हीं लोगों से बन आवे है' जैसे रूपों का बाहुल्य है। इसी प्रकार सदल मिश्र की भाषा में पूर्वीपन है (दे० सदल मिश्र)।

दिल्ली निवासी मुंशी सदासुखलाल सरल स्वभाव के हरिभक्त थे। सन् १७९३ के लगभग ये कंपनी सरकार की नौकरी में चुनार के तहसीलदार थे। बाद में नौकरी छोड़कर प्रयाग निवासी हो गए और अपना समय कथा वार्ता एवं हरिचर्चा में व्यतीत करने लगे। आपने श्रीमद्भागवद् का अनुवाद 'सुखसागर' नाम से किया। अपनी रचना 'मुतख़बुत्तवारीख' में अपना जीवनवृतांत लिखा है। इनका जन्म सन् १७४६ में तथा देहावसान ७८ वर्ष की आयु में सन् १८२४ में हुआ। [डा. रघुराजशरण शर्मा]