मीरा (मीराँ) इस नाम से सात व्यक्ति प्रसिद्ध हैं। (१) राजस्थान की राजरानी मीरा सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त हुईं। मेड़ता का राठौड़ वंश इनका पितृकुल तथा चित्तौड़ का सिसोदिया राजवंश इनका श्वसुर कुल था। कर्नल टॉड ने इनको रावदूदा की पुत्री तथा राणा कुंभ की रानी माना है। स्व० देवीप्रसाद मुंसिफ के मतानुसार मीरा राव दूदा के द्वितीय पुत्र रत्नसिंह की एक मात्र संतान थी। इनका विवाह राणा साँगा के युवराज भोजराज से हुआ था जिनकी मृत्यु संभवत: कानवा के युद्ध में हुई।

इनके जन्म तथा मृत्यु को लेकर कई मत हैं। एक मतानुसार विक्रम की चौदहवीं शताब्दी मीरा का जीवनकाल है। अन्य मतानुसार इनका जन्म सं० १५५५ में मेड़ते में, विवाह १५७३, वैधव्य १५८३, तथा मृत्यु वि० सं० १६०३ में द्वारिका में हुई। अन्य एक मत इनका जन्मकाल १५६१, कुड़की में, विवाह १५७५, वैधव्य तथा मृत्यु १६२०-३० के बीच किसी समय मानता है।

मीरा के माता पिता तथा अन्य पारिवारिक संबंधों को लेकर भी पर्याप्त मतभेद है। उपलब्ध पदों में 'माई', 'ननद', 'ऊदा बाई' राणा और गुरु रैदास की बारंबार चर्चा है। मान्य इतिवृत्त के आधार पर इन विभिन्न संबंधों पर कोई समीचीन प्रकाश नहीं पड़ता।

१. नरसी जी राँ माहिरी - (माहिरा, मायरा) (वि० सं० १९००)। यह रूणीजा गाँव, गोलमंडी के रामानुज़ी साधु मीरादास की रचना है।

२. गीत गोविंद की टीका - (अप्राप्य)।

३. फुटकर पद - इनकी प्रामाणिकता निर्विवाद नहीं। ये दो मोटे भागों में विभक्त किए जा सकते हैं। प्रथमत: वे पद जिनमें मीराँ के जीवन का वर्णन है। दूसरे वे जो साधना से संबंधित हैं। इन पदों पर नाथ पंथ, संत मत, तथा पौराणिक परंपरानुमोदित वैष्णव मत का प्रभाव है। नाथ पंथ से प्रभावित पदों में कृष्ण नाथ जोगी के रूप में वर्णित हैं। सेली, नाद, बपुवो आदि की चर्चा के अतिरिक्त कुछ पदों में 'सुर', 'निरत', 'त्रिकुटी महल' आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है।

लोकप्रिय होने से इन पदों का प्रचार देश भर में हुआ। फलत: इनपर कई भाषाओं का प्रभाव है। इनमें अनेक गुजराती और ब्रजभाषा में, कुछ राजस्थानी में और कुछ पंजाबी, अवधी, मैथिली आदि में भी हैं किंतु ये स्वतंत्र न होकर अन्य पदों के भाषांतर ही हैं।

वैष्णव-प्रभाव-द्योतक कुछ पदों में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन हुआ है, अधिकांश पदों में आराध्य के प्रति अनन्य समर्पण, विरह-जनित वेदना और मिलनजनित आनंद आदि भावों की गंभीर अभिव्यक्ति हुई है। संपूर्ण उपलब्ध पदावली एक आर्त स्वरलहरी से अनवरत गुंजरित है, 'मीरा के प्रभु गिरधर नागर' ही उसकी टेक है - यह वैशिष्टय ही मीरा का व्यक्तित्व है।

अन्य मीराएँ ये हैं - (१) बाँसवाड़े के पास किसी गाँव की निवासिनी। (२) मारवाड़ नरेश राव मालदेव (वि० सं० १५६८-१६१९ जीवनकाल) की तेरह पुत्रियों में से एक, (४) वृंदावन में राधा मोहन मंदिर के स्थान पर रहनेवाले गोस्वामी तुलसीदास की पुत्री जो कृष्णप्रेम के कारण आजन्म कुँवारी रहीं। [प० श०]

गुजराती रचनाएँ - मीरा को नरसी के समकक्ष रखकर 'नरसिंह मीरा युग' की कल्पना करनेवाले गुजराती इतिहास के आगे दो मुख्य आधार थे। एक यह कि गुजराती भाषा में मीरा के बहुसंख्यक पद प्राप्त होते हैं तथा दूसरा यह कि गुजरात में भक्तिभावना के प्रसार की दृष्टि से नरसी के अतिरिक्त यदि कोई अन्य व्यक्तित्व महत्वपूर्ण है तो वह मीरा का ही है। वास्तव में मीरा पर राजस्थान, मध्यदेश और गुजरात तीनों का समान अधिकार है क्योंकि उनका जन्म राजस्थान में, दीक्षा मध्यप्रदेश में और देहावसान गुजरात में हुआ तथा उनके पद राजस्थानी, ब्रजभाषा और गुजराती तीनों में ही उपलब्ध होते हैं। कुछ पद ऐसे भी हैं जो भाषाभेद के साथ उक्त तीनों क्षेत्रों में प्राय: समान रूप से प्रचलित हैं; और जिनके विषय में अंतिम रूप से यह निर्णय करना कठिन है कि मूलत: उनकी रचना किस भाषा में हुई। द्वारका में मीरा के जीवनकाल का पिछला अंश व्यतीत हुआ अतएव मीरा द्वारा गुजराती पदों की रचना तथा गुजरात में उनकी लोकप्रियता इसी समय विशेष संभावित प्रतीत होती है। लोकप्रिय कवि की रचनाओं में प्रक्षेप और परिवर्तन की भी पर्याप्त संभावना रहती है और मीरा के गुजराती पदों को इससे परै नहीं माना जा सकता।

मीरा के समस्त गुजराती पद 'बृहत् काव्य दोहन' भाग १, २, ५, ६ और ७ में संकलित हैं। 'सत्य भामानु रूसणु' नामक एक रचना भी प्राप्त होती है पर यह कोई विस्तृत कृति न होकर बीस कड़ियों का एक पद मात्र है। इन पदों की संख्या १६० है। 'सेलेक्शन्स फ्रॉम क्लैसिकल गुजराती लिटरेचर' में जो १०६ पद प्रकाशित हैं वे उक्त पदों में से ही संगृहीत हैं। 'प्राचीन काव्यसुधा', भाग ४ में अनेक पद छपे हैं जिनका अंतर्भाव प्राय: निर्दिष्ट पदों में हो जाता है। सभी पद गुजराती लिपि में छपे हैं पर ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि इनमें गुजराती भाषा के अतिरिक्त खड़ी बोली और ब्रजभाषा के भी कुछ पद हैं तथा बहुत से पदों की भाषा मिश्रित कही जा सकती है। पदों का शीर्षक 'कृष्ण कीर्तन' दिया गया है। 'मीरा स्मृति ग्रंथ' में मीरां के राजस्थानी पद तथा 'मीरा की पदावली' में हिंदी के पद प्रकाशित हैं।

मीरा की कृष्णभक्ति संपूर्ण कृष्णसाहित्य में अपना विशिष्ट एवं स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। उसमें पुष्टिमार्गीय पद्धति के लीला भाव के स्थान पर वैयक्तिक मधुर संबंध की कल्पना से संपन्न उत्कट प्रेमानुभूति उपलब्ध है। चैतन्य और रामानंद की भक्ति परंपरा से प्रभावित होकर भी उसकी विशिष्टता सर्वथा अकुटित दिखाई देती है। मिलन और विरह सूक्ष्म एवं तीव्र अनुभूतियों की स्त्रीसुलभ भाव भंगिमाओं के साथ जैसी सहज अभिव्यक्ति मीरा के पदों में मिलती है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। कृष्ण काव्य की स्थूल शृंगारिकता एवं विलास का उसमें आभास भी नहीं है। केवल मर्मस्पर्शी रागात्मिका वृत्ति का ही उत्कृष्ट भक्तिमय परिविस्तार मिलता है। [जगदीश गुप्त]