मीर कासिम यह सन् १७६० से १७६३ तक बंगाल का नवाब रहा। सन् १७६० से पहले बंगाल का नवाब मीर जाफर था। अंग्रेजों ने मीर जाफ़र को लाभ की शर्तों पर नवाब बना दिया था, पर उन्होंने नवाब से इतना धन ऐंठना शुरू किया कि वह परेशान हो गया। इस समय मीर जाफ़र का दामाद मीर कासिम बंगाल की नवाबी के लिए अधिक उपयुक्त समझा गया। इसका कारण यह था कि मीर कासिम का बंगाल की सेना पर काबू था। इसके अतिरिक्त उसने अंग्रेजों को कुछ धन तथा प्रदेश भी देने का वचन दिया था। इसलिए अक्टूबर, सन् १७६० में मीर जाफ़र को गद्दी से उतारकर मीर कासिम को बंगाल का नवाब बना दिया गया।

मीर कासिम अपने युग का प्रतीक था। वह एक कुशल शासक था। नवाब बनते ही उसने बंगाल प्रांत की स्थिति बहुत कुछ सुधार दी। मीर जाफ़र से मीर कासिम कई अर्थों में अच्छा शासक था। मानव होने के नाते मीर कासिम के व्यक्तित्व में कुछ बुराइयाँ होना स्वाभाविक था। वह स्वभाव से बड़ा शक्की था तथा हर काम बहुत सोच समझकर करता था, पर कभी कभी वह अपने व्यवहार में कठोर भी हो जाता था। जमीदारों से पैसा लेने के बारे में उसने कुछ सख्ती दिखाई।

मीर जाफ़र के समय से ही बहुत से जमीदारों ने रुपया देना बंद कर दिया था जिससे सरकार की आय में कमी हो गई थी। कंपनी तथा उसके अधिकारियों को प्रसन्न रखने के लिए मीर कासिम को धन की आवश्यकता थी और प्रांत की सरकार में सुधार करने के लिए भी उसे धन चाहिए था। यह धन वह जमींदारों से ही वसूल कर सकता था।

नवाब बनाने के बदले में मीर कासिम ने अपने मुख्य सहायक अंग्रेज अधिकारियों तथा काउंसिल के सदस्यों को बहुत सा धन दिया तथा कंपनी को चटगाँव, बर्दवान तथा मिदनापुर के जिले दे डाले। उसने मीर जाफ़र के समय की कंपनी तथा सेना की बकाया धनराशि जल्दी ही चुका दी। वह महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह दबकर रहना नहीं चाहता था। वह अपने राज्य के निवासियों का शुभेच्छु था और कंपनी के भ्रष्ट सेवकों की दाल नहीं गलने देना चाहता था।

जबश् मीर कासिम के सुधारों से कंपनी के सेवकों का व्यक्तिगत अहित होने लगा तब कंपनी से उसका संघर्ष होना निश्चित हो गया। मीर कासिम के सेना संबंधी सुधारों का अर्थ अंग्रेजों ने यह लगाया कि वह कंपनी के विरुद्ध लड़ाई की तैयारी कर रहा है। व्यापार के क्षेत्र में अंग्रेज बड़ी बेईमानी कर रहे थे। भारतीय व्यापारियों को कुछ घूस देकर बिना महसूल दिए व्यापार करने की अनुमति मिल जाती थी। अंग्रेज व्यापारी स्वयं कई वस्तुओं का व्यापार करते थे और उनपर कोई महसूल नहीं देते थे। इससे नवाब को बड़ी आर्थिक हानि होती थी। हारकर मीर कासिम ने एक आज्ञा द्वारा अंग्रेज तथा भारतीय व्यापारियों का एक ही स्तर कर दिया और व्यापारिक माल पर चुंगी लेने की प्रथा ही उठा दी। इससे अंग्रेज बहुत चिढ़ गए और उन्होंने मीर कासिम को नवाब के पद से हटाने का निश्चय कर लिया।

एक घटना और हुई जिससे स्थिति और भी बिगड़ गई। मीर कासिम ने पटना के धृष्ट नायब रामनारायण को पदच्युत कर दिया पर अंग्रेजों ने उसे अपने यहाँ शरण दे दी। पटना की अंग्रेजी फैक्ट्री के प्रधान पद पर कूट तथा एलिस आए। इन दोनों ने मीर कासिम को काफी परेशान किया। नवाब ने स्थिति को चतुराई से सम्हालने का प्रयत्न किया और काफी धैर्य दिखाया। पर इस धैर्य का बाँध भी टूट गया और नवाब भी युद्ध की तैयारी में तत्पर हो गया। मीर कासिम तथा कंपनी के झगड़ों का चरमोत्कर्ष सन् १७६४ में आया जब बक्सर का युद्ध हुआ। इस युद्ध में मीर कासिम ने बड़ी वीरता दिखाई पर अर्थाभाव के कारण वह अंग्रेजों का बहुत दिनों तक मुकाबला न कर सका और अंत में हार गया। इधर सन् १७६३ में कलकत्ता की काउंसिल ने मीरजाफ़र से एक नई संधि करके उसे पुन: नवाब बना दिया। [मिथिलेशचंद्र पांड्या]