मीर (मीर तक़ी) का जन्म सन् १७३८ के लगभग आगरे में हुआ। इनके पिता अब्दुल्ला इनके बचपन ही में मर गए, जिससे यह अपने मौसा सिराजुद्दीन खाँ 'आर्जू' के पास दिल्ली चले आए और यहीं शिक्षा प्राप्त की। दो वर्ष आगरे में रहने के अनंतर यह दिल्ली चले आए और इनकी कविता की प्रसिद्धि फैलने लगी। दिल्लीवालों ने इनका बहुत संमान किया। इन्होंने कभी दरबारों से या धनाढ्.यों से संबंध नहीं रखा, इसलिए इन्हें बहुत कष्ट उठाना पड़ा तथा ये दरिद्रावस्था में कालयापन करते रहे। दिल्ली पर बाहरी चढ़ाइयाँ होने से उसकी ऐसी दुरवस्था हुई कि मीर को बाध्य होकर सन् १७५२ ई० के लगभग लखनऊ जाना पड़ा। इनकी प्रसिद्धि वहाँ भी फैली और आसफुद्दौला ने इनको दो सौ रुपए की मासिक वृत्ति दी, जो इन्हें अंत तक मिलती रही। यह लखनऊ में सन् १८१० ई० में गत हो गए। मीर मझोले कद के दुबले पतले से थे, रंग गेहुँआ था और नेत्र तीखे थे। इनकी प्रकृति में अहंमन्यता अधिक थी पर इनका ्ह्रदय करुणा से पूर्ण था।
मीर की कविता में रुबाई, मुखम्मस, मुसद्दस, छोटो मसनवियाँ, वासोख्त सभी कुछ है पर वस्तुत: इनकी गज़लें ही इनके 'खुदाए सखुन' कहलाए जाने की आधार हैं। इन्हीं के कारण सभी परवर्ती कवियों ने इन्हें उस्ताद माना है। इनकी गज़लों में इतनी सरलता तथा सरसता है कि उनका एक एक शैर ्ह्रदय पर चोट करता है। अर्थसंकोच प्राय: इनके सारे जीवन में रहा और इसका भी प्रभाव इनपर पड़ा। इनकी शृंगारिक कविताएँ अत्यंत आकर्षक, विशिष्ट, तथा करुण रस से पूर्ण हैं। मीर का भाषा पर पूर्ण अधिकार था।
मीर की रचनाओं में एक दीवान फारसी का और छह दीवान उर्दू के हैं। मसनवियों, कसीदों, छोटी छोटी कविताओं का भी एक संग्रह है। गद्य में 'फैज़े मीर' एक छोटी पुस्तिका लिखी है, जिसमें शैर व शायरी पर कुछ तर्क वितर्क है। 'निकातुश्शोअरा' एक तजकिरा है, जिसमें फारसी भाषा में उर्दू के कुछ कवियों का अति संक्षिप्त परिचय दिया गया है तथा उदाहरणों में शैर भी दिए हैं। श् [रजिया सज्जाद जहीर]