मिश्र, सदल खड़ी बोली के गद्य का प्रारंभिक रूप उपस्थित करने वालेश् चार प्रमुख गद्यलेखकों में सदल मिश्र का विशिष्ट स्थान है। इनमें से दो गद्यलेखकों लल्लूलाल और सदल मिश्र ने फोर्ट विलियम कालेज में रहकर कार्य किया और मुंशी सदासुखलाल तथा सैयद इंशाउल्ला खाँ ने स्वतंत्र रूप से गद्यरचना की। अपने ग्रंथ 'नासिकेतो पाख्यान' में मिश्र जी ने अपनी भाषा को खड़ी बोली लिखा है। इससे प्रकट होता है कि उस समय यह नाम प्रचलित हो चुका था। उन्होंने लिखा है, ''अब संवत् १८६० में नासिकेतोपाख्यान को जिसमें चंद्रावली की कथा कही गई है, देववाणी में कोई समझ नहीं सकता। इसलिये खड़ी बोली से किया।'' वास्तव में लल्लूलाल के साथ फोर्ट विलियम कालेज में इनकी नियुक्ति प्रचलित भाषा में गद्य ग्रंथों के निर्माण के लिये हुई थी। ईसाई धर्मप्रचारकों एवं शासकों को गद्य के ऐसे स्वरूप एवं साहित्य की आवश्यकता थी, जिनके माध्यम से वे जनसाधारण में अपना धर्मप्रचार कर सके, अपनेश् स्थापित स्कूलों के लिये पाठय् पुस्तकों का निर्माण कर सकें तथा अपना शासकीय कार्य चला सकें अत: जान गिलक्राइस्ट की अध्यक्षता में फोर्ट विलियम कालेज में इस कार्य का सूत्रपात किया गया। यहीं अपने कार्यकाल में लल्लूलाल ने अपने प्रमुख ग्रंथ 'प्रेमसागर' और सदल मिश्र ने 'नासिकेतोपाख्यान' तथा 'रामचरित्र' लिखा। ये मूल ग्रंथ न होकर अनुवाद ग्रंथ हैं। फोर्ट विलियम कालेज के विवरणों में इनके पद 'भाखा मुंशी' के लिखे गए हैं।
'नासिकेतोपाख्यान' में नचिकेता ऋषि की कथा है। इसका मूल यजुर्वेद में तथा कथा रूप में विस्तार कठोपनिषद् एवं पुराणों में मिलता है। कठोपनिषद् में ब्रह्मज्ञान निरूपण के लिये इस कथा का उपयोग किया गया है। अपने स्वतंत्र अनुवाद में मिश्र जी ने ब्रह्मज्ञान निरूपण को इतनी प्रधानता नहीं दी जितनी घटनाओं के कौतूहलपूर्ण वर्णन को। पुस्तक के शीर्षक को आकर्षक रूप देने के लिये उन्होंने चंद्रावली नाम रखा। उन्होंने अध्यात्म रामायण का 'रामचरित्र' नाम से अनुवाद किया। इस पुस्तक पर कंपनी की ओर से पुरस्कार भी मिला।
हिंदी और फारसी की शब्दसूची तैयार करने पर भी इन्होंने पुरस्कार प्राप्त किया।
इन प्रारंभिक गद्य लेखकों में मिश्र जी की भाषा खड़ी बोली के विशेष अनुरूप सिद्ध हुई, यद्यपि वह बिहारी भाषा से प्रभावित है। परंतु लल्लुलाल की भाषा के समान न ता उसमें ब्रज भाषा के रूपों की भरमार है और न पद्यानुकूल वाक्यगठन और तुकबंदी की।
सदल मिश्र का प्रयास इसलिये विशेष अभिनंदनीय है कि उनमें खड़ी बोली के अनुरूप गद्य लिखने और भाषा को व्यवहारोपयोगी बनाने का प्रयास विशेष लक्षित होता है।
आरा (बिहार) निवासी सदल मिश्र सीदे सादे स्वभाव के कर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। अंग्रेजों के निरंतर संपर्क में रहते हुए भी अपने खानपान और रहनसहन में आप कट्टर परंपरावादी थे। वे जीवन भर स्वयंपाकी रहे। किसी के हाथ का भोजन तो क्या, जल भी ग्रहण नहीं किया। फोर्ट विलियम कालेज की नियुक्ति के पूर्व आप प्राय: कथावाचन का कार्य करते थे। पटना में कथावाचन करते समय उनका कुछ अंग्रेज अधिकारियों से परिचय हुआ, जिनके प्रभाव से उनकी नियुक्ति फोर्ट विलियम कालेज में हुई।
राष्ट्र भाषा परिषद् (पटना) के कुछ अधिकारी विद्वान् उनके वंश और जीवनवृत्तों की खोज में संलग्न हैं। अभी तक उन्हें जो सामग्री उपलब्ध हुई है उसके अनुसार सदल मिश्र नंदमणि मिश्र के पुत्र तथा लक्ष्मण मिश्र के प्रपौत्र थे। बदल मिश्र और सीताराम मिश्र उनके दो भाई थे। अपने भाइयों के पुत्रों से ही आगे इनका वंश चला। वे निस्संतान थे। इनका जन्म अनुमानत: १७६७-६८ ई० तथा मृत्यु १८४७-४८ ई० के लगभग ८० वर्ष की अवस्था में हुई।
[डा. रघुराजशरण शर्मा]