मिश्र, चंद्रशेखरधर 'रत्नमाला' पंडित चंद्रशेखरधर मिश्र का जन्म बिहार प्रांत के चंपारन जिले में स्थित रत्नमाला नामक गाँव में पौष बदी २ संवत् १९१५ में हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित कमलाधर मिश्र था जो संस्कृत के अच्छे विद्वान और कवि थे। विद्या की ओर प्रारंभ से ही रुचि होने के कारण इन्होंने विभिन्न विद्वानों से संस्कृत व्याकरण, ज्योतिष, साहित्य और आयुर्वेद की अच्छी शिक्षा प्राप्त कर ली। संस्कृत के साथ इन्होंने प्रसिद्ध हिंदी काव्यों का भी सम्यक् अध्ययन किया। बंगला और उर्दू भाषा में भी इनकी अच्छी गति थी। समाजसेवा की प्रबल कामना से इन्होंने चंपारन के अतिरिक्त गोरखपुर, बस्ती, अयोध्या, काशी, प्रयाग आदि नगरों में 'विद्या धर्म वर्द्धिनी सभा' की स्थापना की। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र और चौधरी बदरीनारायण 'प्रेमघन' से इनकी घनिष्ठ मित्रता थी।
विभिन्न नगरों में स्थापित सभाओं के सुचारु संचालन के लिये इन्हें भारतेंदु, मझौली के राजा खड्गबहादुर मल्ल और पंडित उमापति शर्मा ने (जिन्हें पं० नकछेदराम के नाम से लोग जानते थे) आर्थिक सहायता दी थी। चंपारन में त्रिवेणी नहर का निर्माण इन्हीं के प्रयत्न का फल था। संवत् १९४० में इनके पिता का देहावसान हो गया। उसके पश्चात् इन्हें अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा था। इन्होंने वैद्यक को अपनी जीविका का साधन बना लिया था। हिंदी सेवा की लगन के कारण अपने व्यस्त कार्यक्रम से थोड़ा बहुत समय निकाल ये हिंदी में रचनाएँ किया करते थे। संवत् १९४४ में इन्होंने 'विद्या-धर्म-दीपिका' नाम की मासिक पत्रिका निकाली थी। 'चंपारन चंद्रिका' नामक साप्ताहिक पत्रिका का भी इन्होंने संपादन किया था। ये आशुकवि थे। एक बार कलकत्ते में एक राजा के परीक्षा लेने पर इन्होंने अनेक विद्वानों के सामने एक मिनट में तीन कविताएँ करके सुनाई थीं। पंडित सत्य्व्रात सामश्रयी ने इनकी कविता पर मुग्ध होकर इन्हें 'कवींद्र' की उपाधि दी थी। महामना मदनमोहन मालवीय जी भी इनका बड़ा सम्मान करते थे। संवत् १९५८ में ये बाबू श्यामसुंदर दास से परिचय होने पर नागरीप्रचारिणी सभा के संपर्क में आए। फाल्गुन शुक्ला ४, संवत् २००५ में इनका स्वर्गवास काशी में ही हुआ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के कथनानुसार हिंदी में वर्णवृत्तों में सर्वप्रथम रचना करने वाले ये ही थे। इन्होंने संस्कृत में काव्य, नीति, और वैद्यक के १२ ग्रंथ तथा हिंदी कविता की तीस पुस्तकें लिखी थीं। इनके अतिरिक्त इन्होंने एक नाटक, पाँच उपन्यास, और अनेक पुस्तकें विविध विषयों पर रची थीं। एक पुस्तकालय और दो पाठशालाएँ इन्होंने खोली थीं। [लालधर त्रिपाठी 'प्रवासी']