मिर्ज़ा मज़्हर जान जानाँ नक्शबंदी संप्रदाय को 'शम्सिया मज् हरिया' के नाम से उन्होंने पुनरुज्जीवित किया। अतएव उनको पुराने नक्शबंदी संप्रदाय के अंतर्गत इस संप्रदाय का संस्थापक कहना चाहिए।
शम्सुद्दीन हबीदुल्ला हजरत मिर्ज़ा मज़्हर जान जानाँ का, जो मज़्हर जान जानाँ के नाम से लोकप्रसिद्ध थे, जन्म १११/१६९९ अथवा १११३,१७०१ में हुआ था। पिता मिर्जा जान सम्राट औरंगजेब के प्रतिभाशाली सामंतों में थे तथा सूफ़ी विचारों और प्रवृतियों के थे। पुत्र की शिक्षा का उन्होंने सुप्रबंध किया। इसके अतिरिक्त मिर्ज़ा मज़्हर को कलाकौशल दरबारी शिष्टाचार तथा युद्धकला की भी शिक्षा दी। पिता की मृत्यु के उपरांत मिर्ज़ा मज़्हर का उत्तराधिकार में प्रभूत संपत्ति मिली जिसको उन्होंने शीघ्र ही उड़ा दिया। उस समय के महान् और सुप्रसिद्ध नक्शबंदी संप्रदाय के सूफ़ी हज़री नूर मुहम्मद बदायूनी की सेवा में उपस्थित होकर दीक्षित हुए तथा चार वर्ष उनकी सुसंगति में रहकर आध्यात्मिक अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त किया। मिर्ज़ा मज़्हर ने हजरत शूयखुल शयूख मुहम्मद आबिद सुनानी तथा अन्य सुफ़ियों से भी आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त की। मुहम्मद आबिद सुनामी के स्वर्गवास के उपरांत ११६०,१७४७ में मिर्ज़ा मज़्हर ने दिल्ली में अपनी स्वतंत्र खानकाह स्थापित की। थोड़े ही समय में उनकी प्रसिद्धि दूर दूर तक फैल गई और हर श्रेणी के व्यक्ति धार्मिक तथा आध्यात्मिक शिक्षाप्राप्ति के लिये आने लगे। इस प्रकार ३० वर्ष तक मिर्ज़ा मज़्हर अपने शिष्यों को मानसिक और आध्यात्मिक शिक्षा देने में व्यस्त रहे और नक्शबंदी संप्रदाय को, जिसकी केंद्रीय संस्था हजरत मुजद्दिद अल्फे सानी शैख अहमद सरहिंदी के देहावसान के उपरांत क्रमश: विशृंखलित हो चुकी थी, पुन: प्रकाश और पुनर्जन्म दिया तथा उसका नवीन संस्कार भी किया। मिर्ज़ा मज़्हर ने इस्लाम धर्म के प्रचार तथा आध्यात्मिक शिक्षा के लिये देश के विभिन्न क्षेत्रों में अपने खलीफा भेजे। अपने संप्रदाय के पूर्ववर्ती सूफियों के सिद्धांतों को दृढ़ता से पालन करते हुए मिर्ज़ा मज़्हर बादशाहों और सामंतो से किसी प्रकार का संबंध न रखते थे। यद्यपि १८ वीं शताब्दी की अराजकता और आर्थिक दुर्दशा काल से प्रत्येक व्यक्ति पीड़ित था, तथापि मिर्ज़ा मज़्हर ईश्वरीय कृपाओं के सहारे किसी तरह जीवन व्यतीत करते रहे और कभी किसी धनवान् की ड्योढ़ी पर नहीं गए। उन्होंने सम्राट मुहम्मद शाह और उसके सामंत निजामुल मुल्क आसिफ जाह के उपहारों को ठुकरा दिया था। किराए के मकान में रहकर और बाजार से पका हुआ खाना खाकर जीवन बिताया। पूर्व नक्शबंदी सिलसिले की विचारधारा तथा कार्यप्रणाली में उन्होंने परिवर्तन किया था। वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता का दृष्टिकोण रखते थे। मिर्ज़ा मज़्हर के 'मक्नूब चहार दहुम' (१४ वाँ पत्र) के अध्ययन से हिंदू धर्म के प्रति १८ वीं शताब्दी के मुसलमानों की विचारधारा का अच्छा ज्ञान होता है। उन्होंने हिंदुओं को 'मुर्शिकाने अरब' (नास्तिक अरबों) के समान स्वीकार करने से इंकार कर दिया और वेदों को रहस्योद्घाटित ग्रंथ स्वीकार करते हुए उन्हें 'अहले किताब' का स्थान दिया। नक्शबंदियों के इतिहास में यह अपूर्व और महत्वपूर्ण घटना है। इसी कारण हिंदुओं से उनके बहुत अच्छे संबंध हो गए। मिर्ज़ा मज़्हर ने १८ वीं शताब्दी की राजनीति पर भी प्रभाव डाला और नजीबुद्दौला को जाटों से समझौता करने से रोका। वह उर्दू फारसी में कविता करते थे। फारसी काव्य का संग्रह 'खरीता ए जवाहरात' के नाम से प्रसिद्ध है किंतु अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ। गद्य में उनके पत्र मिलते हैं जिनसे उस समय की सामाजिक, धार्मिक आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। १० वीं मुहर्रम ११९५/१७८० को एक शिया के हाथों उनकी हत्या हुई। दिल्ली में चितली कब्र नामक मुहल्ले में उनकी समाधि पर श्रद्धालु दर्शनार्थ जाते हैं।
सं० ग्रं०: शाह गुलाम अली: मकामे मज़हरी (दिल्ली, १३०९); नईमुल्ला बहराएची: मामूलात मज़्हरी (कानपुर, १२७५) ; रुक्क़ाते करामत सआदत: मिर्ज़ा मज़्हर शहीद (अलीगढ़, १२७१), तज़किरा जमी औलियाए देहली ( हस्तलिपि, कुतुब खाना आस्फ़िया, हैदराबाद, दखन ), मौलवी गुलाम सर्वर: खज़ीनतुल आस्फ़िया ( नवल किशोर,१२८२ ), १,६८४-६८७,मुहम्मद उमर: सूफ़ी संत मिर्ज़ा मज़्हर जान जाना ( अलीगढ़ ), अब्दुर्रज्ज़ाक्र कुर्रैशी: मिर्ज़ा मज़्हर जान जानाँ और उनका उर्दू कलाम ( बंबई १९६१ ), मिर्ज़ा अली लुत्फ: गुल्शने हिंद ( लाहौर, १९०६ ) १५९-६०, भगवानदास हिंदी: सफ़ीनाए हिंदी: ( पटना,१९५८ ), १८७-१८९, बिंद्राबनदास खुइगो: सफ़ीनाए खुइगो ( पटना, १९५९ ) ३०१-०८, नईमुल्ला:बशारते मज़हरिया ( ब्रिटिश म्यूजियम:या हस्तलिखित ग्रंथ, सैयद अकजद अली खाँ: नूरूल क़ुलूब: ( हस्तलिखित, रामपुर (२१७अ-ब )।(मुहम्मद उमर)