मियाँ मीर हजरत मियाँ मीर विन काजी सानीदन: बिन कलंदर फारूकी का असली नाम शेख मुहम्मद फारूकी था। मियाँ मीर तथा बालापीर के नाम से इसलिये प्रसिद्ध हुए क्योंकि जहाँगीर, शाहजहाँ, राजकुमार दाराशिकोह जैसे मुगल राजवंश के लोग तथा उनके सामंत आपके भक्त थे। ९५७/१५५० में सीस्तान में जन्म हुआ। प्रारंभिक शिक्षा माता तथा सीस्तान के कई विद्वानों से प्राप्त की। तत्पश्चात आध्यात्मिक गुरु की खोज में निकल पडे। सौभाग्य से शेख खिज्र सीस्तानी नामक एक महापुरुष से आपकी भेंट हुई तथा कादिरी संप्रदाय में दीक्षित होकर अध्यात्म की शिक्षाएँ प्राप्त की। २८ वर्ष की उम्र में लाहौर पधारे तथा जीवन के अंतिम समय तक वहीं निवास करके हजारों पथभ्रष्टों का मार्गदर्शन किया। मियाँ मीर फाक़ामस्ती, निस्पृहता, तपस्या तथा ईश्वरनिर्भरता में अद्वितीय समझे जाते थे। आपके ही कथनानुसार 'सूफी' वह है जिसका अस्तित्व 'फ़ना' हो जाए। वह सुन्नत (हजरत मुहम्मद साहब के कथन और आचरण) का कठोरता से पालन करते थे तथा शरीयत (आचरण पक्ष) के विपरीत एक पग बाहर नहीं निकालते थे। तरीकत (अध्यात्मवाद) में आप अपने समय के जुनेद बगदादी समझे जाते थे। सर्वेश्वरवादी थे। आप आजन्म कुँवारे रहे। जहाँगीर बादशाह ने आपको आगरे आमंत्रित किया था। वहाँ जाकर अपने बादशाह को सदुपदेश दिए और अंत में कहा, 'मुझे आगरे आने का पुन: कष्ट न देना'। जहाँगीर ने आदेश का अक्षरश: पालन किया परंतु पत्र व्यवहार द्वारा उनसे कंधार विजित होने के बारे में ईश्वर से प्रार्थना करने का निवेदन किया था। इसी प्रकार सम्राट शाहजहाँ ने भी मियाँ मीर से दो बार भेंट की थी और आध्यात्मिक विषयों पर वाद विवाद भी किया था। वह मियाँ मीर के साधारण जीवन तथा कोमल आचरण से बहुत प्रभावित हुआ था। आपका स्वर्गवास १०४५/ १६३५.३६ में हुआ। लाहौर से पाँच कोस की दूरी पर स्थित ग्राम में समाधि है जो मियाँ मीर के नाम से प्रसिद्ध है। दारा शिकोह आप पर बड़ी श्रद्धा रखता था। समाधि पर एक भव्य भवन निर्मित कराने के लिये उसने सामग्री जुटाई थी परंतु भवन का निर्माण कुछ वर्षों के उपरांत औरंगजेब ने कराया। समाधि के निकट एक बारहदरी है जिसमें दाराशिकोह की धर्मपत्नी की कब्र है।
सं ग्रं०-दाराशिकोह- सकीनतुल औलिया (उर्दू अनुवाद, लाहौर), दाराशिकोह: सफ़ीनतुल औलिया, (उर्दू अनुवाद, कराँची १९६१), १०१-१०५, जहाँगीर:तुजुके जहाँगीरी, (मूल फारसी ग्रंथ), २८६-२८७, अब्दुल हमीद लाहौरी: बादशाह नामा (कलकत्ता, १८६७-१८६८), मुहम्मद सालिह कम्बो : अम्ले सालिह (कलकत्ता,१९२३-१९२७), मौलवी गुलाम सर्वर: खजीनतुल आस्फ़िया, (नवल किशोर), १,१५४-१६०, शेख मुहम्मद इक्राम: रौदे कोसरे, (कराँची), २५१-२५५, मुहम्मद वारिस कामिल: तजकिरा औलियाए लाहौर, (कराँची, १९६३), ११६-११४०। [मुहम्मद उमर]