माहेश्वरी, पंचानन (१९०४-१९६६ ई०), सुप्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी, का जन्म राजस्थान के जयपुर नगर में हुआ था, जहाँ इनकी प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय से आपने एम० एस-सी० की परीक्षा उत्तीर्ण की। वनस्पति के पादरी प्रोफेसर के चरित्र का इन पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा और उससे इनमें कर्मठता, स्पष्टवादिता तथा सहृदयता के गुण आए। अध्ययन के पश्चात् इनकी नियुक्ति आगरा कालेज में, १९३० में हुई। इन्होंने क्रमश: इलाहाबाद, लखनऊ तथा ढाका विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। १९४८ ई० में दिल्ली विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के अध्यक्ष होकर आए और तब से जीवनपर्यंत वहीं रहे। मस्तिष्क की सूजन से पीड़ित होकर १८ मई, १९६६ ई० को इनका निधन दिल्ली में ही हुआ।

माहेश्वरी का विशेष कार्य पादप भ्रूणविज्ञान एवं पादप आकारिकी पर हुआ है। वनस्पति विज्ञान की अन्य शाखाओं, विशेषत: पादप क्रिया विज्ञान, में भी इनकी रूचि थी। इनके अधीन अध्ययन करने के लिये छात्र विदेशों, विशेषत: अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटाइना इत्यादि देशों, से आते थे। आपके अधीन शोधकार्य करके लगभग ६० छात्र छात्राओं ने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। ३०० से ऊपर इनके शोधनिबंध अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी तथा अंग्रेजी भाषाओं के अतिरिक्त इन्हें जर्मन फ्रेंच भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था। इनकी लिखी पुस्तक, 'इंट्रोडक्शन टु इंब्रियो-लॉजी ऑव संजियो स्पर्मस्', जो मैकग्रॉहिल बुक कंपनी द्वारा १९५० ई० में प्रकाशित हुई थी, अंतरराष्ट्रीय महत्व की है और उससे इनका यश देश देशांतर में फैल गया। ये १९३४ ई० में नैशनल इंस्टिट्यूट ऑव सायंसेज के सदस्य मनोनीत हुए। १९५९ ई० में इंडियन बोटैनिकल सोसायटी ने इन्हें बीरबल साहनी पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया। माहेश्वरी ने विदेशों में भी काफी भ्रमण किया था और अनेक वैज्ञानिक संस्थाओं द्वारा ये आमंत्रित किए गए थे और वहाँ उन्होंने व्याख्यान दिए थे। मैकगिल विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० एस-सी० की संमानित उपाधि से सम्मानित किया था। इलिवायस विश्वविद्यालय ने इन्हें विजटिंग प्रोफेसर के पद पर नियुक्त कर सम्मानित किया था। भारत के प्रतिनिधि के रूप में इन्होंने अनेक अंतराष्ट्रीय वनस्पति विज्ञान के सम्मेलनों में भाग लिया था। भ्रूण विज्ञान और पादप क्रिया विज्ञान (Plant Physiology) के सम्मिश्रण से इन्होंने एक नई शाखा का विकास किया है, जिसमें फूलों के विभिन्न भागों को कृत्रिम पोषण द्वारा वृद्धि कराने की दिशा में इन्हें काफी सफलता मिली। टिशू कल्चर प्रयोगशाला की स्थापना तथा टेस्ट ट्यूब कल्चर पर शोध निबंध प्रस्तुत करने पर १९६५ ई० में लंदन की रॉयल सोसायटी ने इन्हें फेलो (F.R.S) नियुक्त कर सम्मानित किया था। जर्मन सरकार के निमंत्रण पर १९६१ई० में ये पश्चिम जर्मनी गए और अनेक विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिया। इनके महत्व के शोध कार्य पौधों की आकारिकी तथा जिमनोस्पर्म के अध्ययन पर हैं। [फूलदेव सहाय वर्मा]