मारुफ़ कर्ख़ी, शेख मारुफ अल कर्खी, उपनाम अबू महफ़ूज, बिन फ़ीरोज़ अथवा फीरोज़ाँ की गणना बगदाद स्कूल के प्रसिद्ध सूफियों में होती है। साधारणत: यह कहा जाता है कि आपके वंशज परंपरागत ईसाई धर्मावलंबी थे। आपका निवासस्थान वासित जिले में था। अपने हज़रत अली बिन मूसा रज़ा के हाथों इस्लाम धर्म अंगीकार किया। हजरत इमाम रजा आप पर बहुत कृपालु थे और आपके आध्यात्मिक तथा पुस्तकीय शिक्षण में प्रयत्नशील रहते थे। प्रमाणत: मारूफ़ कर्ख़ी स्वयं 'तरीकत' और 'हकीकत' की सूफीश् पद्धति के इमाम कहलाए। आपने मारूफ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। पुस्तकीय शिक्षण में आप हज़रत अबू हनीफ़ तथा सूफ़ीवाद में हज़़रत हबीब राई के शिष्य थे जो हज़़रत सल्मान फ़ारसी के शिष्य थे। अंत में आपके माता पिता ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया। आपके शिष्यों में सरी अल सकती एक महान सूफ़ी हुए हैं जो जुनैन बगदादी के अध्यात्म गुरु थे। मारूफ कर्ख़ी की कुछ शिक्षाएँ ये हैं-- 'प्रेम सांसारिक व्यक्तियों से नहीं सीखा जाता। यह ईश्वरीय पुरस्कार है और उसी की कृपा से मनुष्य के हृदय में उत्पन्न होता है। सूफ़ियों में तीन गुण आवश्यक हैं, उनकी चिंता ईश्वर के लिये होती है, वे ईश्वर के ध्यान में मग्न रहते हैं और उनका पलायन ईश्वर की ही ओर होता है, अध्यात्मवाद का तात्पर्य हकीकत की पहचान और उन वस्तुओं का बहिष्कार है जो मानव के अधिकार में हों।' आपकी मृत्यु २०० हिं० (८१५-८१६ ई०) में हुई। उस समय ईसाई इस कार्य में असफल रहे तथा मसलमानों ने आपके जनाजे को दफन किया। बगदाद निवास आपपर बड़ी श्रद्धा रखते थे तथा समाधि पर दर्शनार्थ जाया करते थे। आप तर्याक अकबर (प्रमाणित ओषधि) कहलाते ये। कुशैरी ने लिखा है कि लोग आपकी समाधि पर वर्षा के लिये सहायता प्राप्त करने जाते थे।
सं० ग्रं० -- शेख अली हज्वेरी : कश्फुल महजूब, लाहोर; इमाम कुशैरी: रिसाला कुशैरी (मिस्त्र, १३१८); ख्वाजा फरीदुद्दीन अत्तार : तजकिरातुल औलिया (निकल्सन द्वारा संपादित), १,२६९-२७४;) मौलाना अब्दुर्रहमान जामी: नफहातुल उंस (नवलकिशोर, १३२३) ३६-४०; दाराशिकोह: सफीनतुल औलिया (उर्दू अनुवाद, करांची १९६१) ५७-५८; मौलाना गुलाम सर्वर : खजीनतुल आस्फिया (नवलकिशोर), १,७६-७८; निकल्सन : द ओरिजिन ऐंड डेवलपमेंट आफ सूफीज्म (जे० ए० आर० एस०, १९०६) ३०६; एनसाइक्लोपीडिया आफ इस्लाम (लंदन, १९३६) ३, ३०७)।
[मुहम्मद उमर]