मानसरोग या उन्माद (Insanity) मस्तिष्क की उस गंभीर स्थिति को कहते हैं जिसमें मानसिक और संवेदनात्मक क्रियाओं के बिल्कुल अस्तव्यस्त हो जाने के कारण व्यक्ति अपनी देखरेख करने की शक्ति तथा समाजिक सामंजस्य सर्वथा खो बैठता है। इन्हीं रोगियो को साधारणतया विक्षिप्त या पागल कहते हैं। चेतन और अचेतन मन के द्वंद से मानस रोग उत्पन्न होता है। मनुष्य के व्यक्तित्व में जब अराजकता का साम्राज्य हो तब उसे हम विक्षिप्त कहते हैं। मानसरोग कई प्रकार के होते हैं। इनमें कुछ जटिल होते हैं एवं कुछ साधारण। कुछ रोगों को मानस चिकित्सकों ने साध्य माना है और कुछ को असाध्य। रोगों का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से दो वर्गों ओर उनके उपवर्गों में किया जाता सकता है : १. आधि (Neurosis) : (क) मन श्रांति (Neurasthenia), (ख) चिंता (Anxiety), (ग) उन्मादी की आधि (Neurosis of insane), (घ) बाध्यता आधि (Compulsion neurosis), (ड.) भीति (Phobia) तथा हिस्टीरिया (Hysteria)।

२. मनोविक्षिप्ति (Psychosis) : (क) उन्माद (Mania), (ख) संविषाद (Depression), (ग) अंतराबंध (Schizo phrenia), (घ) विषाद रोग (Melancholia), (ङ) संविभ्रम विक्षिप्ति (Paranoia)।

मानस रोग के कारण दो प्रकार के होते हैं, एक जन्मजात ओर दूसरे अर्जित। कुछ मानसिक रोग माता पिता से संतान में चले आते हैं और कुछ जीवन में होनेवाली अनेक प्रकार की वेदनाओं की अनुभूतियों के कारण उत्पन्न होते हैं। दुस्साध्य मानसरोग का प्रधान कारण प्राय: वंशपरंपरागत ही होता है। साध्य मानसरोग बचपन के अवांछनीय संस्कारों, वातावरणों अथवा जीवन में घटनेवाली विशेष प्रकार की भावात्मक घटनाओं के कारण उत्पन्न होते हैं। डेडफील्ड ने इन रोगों के कारण दो प्रकार के बताए हैं : एक दूरस्थ और दूसरे समीपस्थ।

आधि और मनोविक्षिप्ति में भेद - फिशर ने आधि और मनोविक्षिप्ति में निम्नलिखित भेद बतलाए हैं :

१. दूसरों के प्रति मनोविक्षिप्त व्यक्ति का व्यवहार, आधिग्रस्त व्यक्ति की अपेक्षा अधिक असाधारण रहता है। उदाहरणार्थ आधिपीड़ित व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति को देखकर उसके ऊपर थूकने की प्रबल इच्छा हो सकती है, परंतु वह थूक नहीं सकता, किंतु मनोविक्षिप्त व्यक्ति जिस समय ऐसी प्रेरणा का अनुभव करता है वह उसी समय थूक देता है। २. मनोविक्षिप्त व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसके मस्तिष्क में कोई खराबी है, किंतु आधिग्रस्त व्यक्ति इसे जानता है अधिग्रस्त व्यक्ति में विवेक रहता है, किंतु मनोविक्षिप्त व्यक्ति विवेकहीन होता है। ३. आधिग्रस्त व्यक्ति देश, काल और व्यक्तित्व के विषय में ज्ञान रखता है। यदि उसका ज्ञान थोड़े समय के लिये चला भी जाए तो वह फिर लौट आता है। मनोविक्षिप्त व्यक्ति यह जानता ही नहीं कि वह कौन है, क्या है और किस समय में हैं, जैसे कोई आधिग्रस्त भिखारी अपने आप को किसी देश का राजा मान ले सकता है। ४. आधि पीड़ित व्यक्ति को भ्रामक और अनुपस्थित वस्तुएँ नहीं दिखाई देती, परंतु मनोविक्षिप्त व्यक्ति को मरे हुए और दूर के लोग भी दिखाई देते हैं। ५. आधिग्रस्त व्यक्तियों की विचारशक्ति उतनी विकृत नहीं होती जितनी मनोविक्षिप्त व्यक्तियों की होती है। आधिग्रस्त व्यक्ति अपनी किसी भी धारणा के लिये कोई ऐसा कारण खोजने की चेष्टा करते हैं, जो सामान्य लोगों में प्रचलित है, परंतु मनोविक्षिप्त व्यक्ति किसी चुड़ैल को घटना का कारण बताने लगते हैं। उन्हें यह विचार आता है कि कोई भूत उनके हाथ से उलटा सीधा लिखा लेता है, अथवा उनके किए कराए काम को चौपट कर देता है। ६. वास्तविक दुनिया से मनोविक्षिप्त व्यक्तियों का संबंध आधिग्रस्त व्यक्ति के अपेक्षा बहुत कम रहता है और घटनाओं के प्रति उसकी सतर्कता भी बहुत कम रहती है। ७. कारणों के अनुसार आधिग्रस्त व्यक्ति में मनोजन्य तत्व और वंशानुक्रम अधिक महत्वपूर्ण हैं एवं तंत्रिका (neurological) तत्व और रासायनिक तत्व प्राय: महत्वहीन है, परंतु मनोविक्षिप्त व्यक्तियों में वंशानुक्रम, विषज, और तंत्रिका तत्व ही प्रमुख कारण होते हैं। मनोजन्य तत्वों का महत्व हो भी सकता है और नहीं भी। ८. साधारण व्यवहार के अंतर्गत आधिग्रस्त व्यक्ति में भाषा और विचार पर्याप्त सीमा तक संगत और विवेकपूर्ण होते हैं तथा व्यामोह, अवस्तुबोध अैर मानसिक अस्तव्यस्तता का अभाव रहता है परंतु मनोविक्षिप्ति में भाषा और विचार असंगत, विचित्र तथा तर्कहीन हो जाते हैं। मानसिक अस्तव्यस्तता, व्यामोह और अवस्तुबोध इत्यादि पर्याप्त होते हैं। ९. आधिग्रस्त व्यक्ति का समाज और वास्तविकता के साथ संबंध बना रहता है। साधारणतया व्यवहार समाजविहित नियमों के अनुकूल होता है। मनोविक्षिप्त अवस्था में सामूहिक प्रवृत्ति और सामाजिक आदतें नष्ट हो जाती हैं। व्यवहार समाजविहित नियम के प्रतिकूल और असंबद्ध होता है। १०. आधिपीड़ित रोगियों में आत्मव्यवस्था की क्षमता होती है। वे पूर्णतया अथवा आंशिक रूप से आत्मनिर्भर होते हैं तथा उनमें कदाचित् ही कभी आत्महत्या की प्रवृत्ति रहती है। मनोविक्षिप्त रोगियों में आत्मव्यवस्था की क्षमता नहीं होती। ये प्राय: आत्महत्या के लिये प्रवृत्त रहते हैं, अत: चिकित्सालय में भर्ती करना अथवा घर पर इनकी देखरेख करना आवश्यक है। ११. आधि के रोगियों का व्यक्तित्व प्राय: सामान्य ही रहता है, परंतु मनोविक्षिप्त रोगियों के व्यक्तित्व में पर्याप्त अंतर होता है, व्यवहार और क्रियाओं की दृष्टि से ये सामान्य से भिन्न प्रतीत होते हैं।

आधि के विशेषताएँ - १. बाल्यकल से लेकर जरावस्था तक के बीच प्राय: सभी अवस्था के लोग इससे आक्रांत हो सकते हैं औसतन ४० वर्ष की उम्र में इसका प्रसार अधिक पाया गया है। २. पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ इससे अधिक आक्रांत होती है। ३. मंद बुद्धि वालों की अपेक्षा प्रखर बुद्धि वालों में यह रोग अधिक होता देखा गया है।

मनोविक्षिप्त संबंधी सामान्य तत्व - प्राय: देखा गया है कि मानसिक व्याधियाँ छिटपुट, या अनिश्चित रूप से, जीवनकाल की प्रत्येक अवस्था में उत्पन्न नहीं होतीं, वरन् प्रत्येक व्याधि का किसी न किसी विशेष अवस्था में ही आक्रमण होता है। अंतराबंध मुख्यत: युवा और पूर्वप्रौढ़ावस्था की व्याधि है। संविषाद विक्षिप्त एवं मद्यज मनोविक्षिप्ति प्राय: मध्यावस्था में होती है तथा रजोनिवृत्तिकाल का (climacteric) अवसाद प्राय: जीवन में उत्तरार्ध में अधिक होेते हैं। यह व्याधि स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों में अधिक होती है।

उपचार -- आधि का एकमात्र उपचार मनश्चिकित्सा (psychotherapy) है। इसके अंतर्गत व्यक्तित्व संबंधी व्यतिक्रमों की मनोवैज्ञानिक पद्धति द्वारा चिकित्सा करते हैं। सुझाव, सदुपदेश, सम्मोहन इत्यादि मनश्चिकित्सा की प्रारंभिक विधियाँ हैं, जिनके द्वारा आधि का उपचार किया जाता है। आधुनिक मनश्चिकित्सा में शास्त्रीय पद्धतियों के अंतर्गत रोगीश् के विश्लेषण और उपचार की कठिनाइयों में रोगी का ही सक्रिय सहयोग होता है तथा चिकित्सक का स्थान गौण अथवा निष्क्रिय हो जाता है। इन पद्धतियों में रोगी को मुक्त रूप से अभिव्यक्ति और विचार के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। इस प्रकार आधुनिक पद्धतियों द्वारा रोगी के प्रकट लक्षणों के लिये उत्तरदायी अंतर्द्वद्वों का ज्ञान प्राप्त कर उन्हें ही समाप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इन नवीन पद्धतियों में मानसिक विरेचन (Mental catharsis), मनोश्लेिषण (Psycho analysis) तथा अनिर्देशात्क मनश्चिकित्सा (Nondirective psychotherapy) विधियाँ मुख्य हैं।

मनोविक्षिप्ति के उपचार के अंतर्गत निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं: १. अस्पताल में भरती करना- जिन रोगियों की घर पर देखरेख नहीं हो सकती उनको अस्पताल में भर्ती करना उत्तम है, क्योंकि मनोविक्षिप्त रोगियों में आत्महत्या की प्रवृति रहती है और समाज एवं परिवार के लिये भी ये घातक हो सकते हैं। २. ओषधीय उपचार-- मानस रोगों के अतिरिक्त यदि किसी अन्य शारीरिक कष्ट से रोगी पीड़ित हो, तो उसका पूर्ण शारीरिक परीक्षण करके तदनुकूल उपचार आवश्यक होता है। ३. मनश्चिकित्सा -- इसके द्वारा आधि के रोगियों में लाभ होता है। चिकित्सक रोगी तथा उसके सगे संबंधियों से बातचीत कर रोग की आधारभूत समस्याओं का पता लगाने की चेष्टा करता है। इस विधि द्वारा चिकित्सा का उद्देश्य रोगी के व्यक्तित्व को पुन: संगठित करना होता है, जिससे अपने बारे में पर्याप्त जानकारी तथा आत्मविश्वास प्राप्त कर, रोगी स्थायी नहीं तो अस्थायी रूप से अपने को सुरक्षित अनुभव करने लगे। ४. आक्षोभ चिकित्सा (Shock therapy)-- इधर हाल में कुछ वर्षों से विविध प्रकार की आक्षोभ चिकित्साओं का प्रयोग किया गया है जैसे : (क) इंसुलिन आक्षोभ चिकित्सा (Insulin shock therapy), जिसमें सुई से रोगी को पर्याप इंसुलिन देकर रोगी में प्रगाढ़ बेहोशी उत्पन्न की जाती है। इस अवस्था में रोगी को अत्यधिक पसीना आता है। बेहोशी दूर करने के लिये शिरा से ग्लूकोज चढ़ाते हैं। इस विधि से प्रति सप्ताह तीन से पाँच बार तक तथा कुल लगभग दस सप्ताह तक चिकित्सा कार्यक्रम चलता रहता है। इस विधि का उपयोग अंतराबंध में करते हैं। (ख) कॉर्डियाजोल चिकित्सा, जिसमें रोगी की मांशपेशी में कॉर्डियाज़ोल की सुई देते हैं। सुई लगने पर रोगी अचेत हो जाता है और उसमें दौरे आते हैं। प्रति दिन कई सप्ताह तक इसके प्रयोगों से अंतराबंध तथा विषादरोग में पर्याप्त लाभ मिलता है। (ग) विद्युदाक्षोभ चिकित्सा, उपर्युक्त दोनो पद्धतियों से अधिक सफल सिद्ध हुई है और अधिकतर मनोविक्षिप्तावस्था में इसका उपयोग होता है। (घ) शामकश् ओषधि चिकित्सा (Sedative drug therapy) में रोगी को शामक ओषधियों का सेवन कराते हैं। उत्साह-विषाद के दौरों तथा स्थायी मनोविक्षिप्ति के आवेगों का नियंत्रण करने में इस पद्धति द्वारा अधिक सफलता मिलती है। (च) जलचिकित्सा (Hydro therapy); (छ) भौतिक चिकित्सा (Physiotherapy) तथा (ज) व्यावसायिक चिकित्सा (Occupational therapy) से भी मनोविक्षिप्त के रोगी की चिकित्सा में पर्याप्त लाभ होता है।

[प्रियकुमार चौबे]