माधवेंद्रपुरी, श्री बंगाल या उत्तरी भारत में लुप्त वैष्णव भक्ति धर्म के संस्थापन के आदि सूत्रधार, श्री चैतन्य के दादा गुरु तथा ईश्वरपुरी केशव भारती, अद्वैताचार्य और नित्यानंद के गुरु थे। श्री मध्वाचार्य की गुरुपरंपरा में यह १६वें आचार्य थे (बलदेव विद्याभूषण कृत प्रमेय रत्नावली)। यह परम कृष्णभक्त थे और इनक भावुकता उच्च कोटि की थी। संन्यासियों में इन्हीं ने पहले प्रेमभक्ति का प्रचार किया था। यह दाक्षिणात्य थे और दक्षिण में ही सं० १४६० के लगभग इनका जन्म हुआ। श्री लक्ष्मीपति से दीक्षा ग्रहण कर उडूपी (उदीपि) में प्रधान आचार्य हुए। सन् १५०७ में अद्वैताचार्य यात्रा करते हुए उडूपी आए और इनसे सत्संग कर आगे यात्रा कने चले गए। कुछ दिनों केश् अनंतर पुरी जी तीर्थाटन को निकले और भ्रमण करते हुए वृंदावन पहुँचे। इनकी अयाचित वृत्ति थी। यह एक वृक्ष के नीचे बैठे नामजप कर रहे थे कि एक सुंदर गोप बालक ने आकर इन्हें दूध से भरा एक लोटा दिया और फिर आने को कहकर चला गया। रात्रि में स्वप्न में उसी बालक ने इन्हें एक कुंज दिखलाकर कहा कि इसमें गोपाल का विग्रह है, उसे निकालकर सेवा का प्रबंध करो। पुरी जी ने उस विग्रह को निकलवाया, प्रतिष्ठापन किया तथा एक धनी ने मंदिर बनवा दिया। इन्हें पुन: स्वप्न हुआ कि नीलाचल से कपूर तथा चंदन लाकर सेवा करो। पुरी जी तत्काल यात्रा पर निकल पड़े। मार्ग में नित्यानंद जी से भेंट हुई और इसके अनंतर शांतिपुर में अद्वैताचार्य से मिलते तथा दीक्षा देते हुए यह रैमुना में श्रीगोपीनाथ जी के दर्शन करने पहुँचे। यहाँ से नीलाचल पहुँचकर तथा कपूर, चंदन लेकर पुन: रैमुना आए तथा स्वप्नादेश पाकर यहीं रह गए। सं० १५४८ के लगभग यहीं यह नित्यलीला में पधारे। (द्रष्टव्य ईशान नागर कृत अद्वैत प्रकाश, चैतन्य भागवत, चैतन्य चरित्र आदि)।
[(स्व.) ब्रजरत्नदास]