मणिक्कबाचगर प्रसिद्ध नालवारों में एक; माणिक्कवाचगर का जन्म तीसरी शती में तिरुवत्तवूर के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पांड्य राजा ने उनकी विशद विद्वत्ता से प्रभावित होकर उन्हें 'तेन्नवन ब्रह्मार्यन' की उपाधि से विभूषित कर मंत्री नियुक्त किया। कहते हैं तिरुपेरुंतुरै में माणिक्कवाचगर को भगवान का दर्शन हुआ जो कुरुंथ वृक्ष के नीचे आसीन थे तथा वेद उन्हें शिष्यों के रूप में घेरे हुए थे। यह घटना उस समय हुई जब माणिक्कवाचगर राजा के लिये घोड़ा खरीदने जा रहे थे। माणिक्कवाचगर राजकीय धन से मंदिर का निर्माण कर वहीं रह गए।
घोड़ो के न आने पर राजा ने उन्हें कारागार में बंद कर दिया। बाद में जब घोड़े पहुँच गए, राजा ने माणिक्कवाचगर से क्षमा माँगी।
अंत में माणिक्कवाचगर राजपद का त्याग कर तिरुपेरुंतुरै चले गए। अनेक तीर्थस्थानों से होते हुए वे चिदंबरम् पहुँचे। यहाँ लंकाधिपति अपनी मूक पुत्री अैर कट्टर बौद्ध धर्मगुरु के साथ पधारे हुए थे। चुनौती पाकर माणिक्कवाचगर ने धर्मगुरु को मूक कर राजकुमारी की वाक्शक्ति पुन: ला दी। आभार मानकर लंका के पर्यटकों ने शैव मत ग्रहण कर लिया।
माणिक्कवाचगर की कृतियों पर मर्मलै अदिगल, का० सुब्रह्मण्य पिल्लै, और सी० के० सुब्रह्मण्य मुदालियर ने शोधग्रंथ लिखें हैं। डॉक्टर जी० सी० पोप ने माणिक्कवाचगर को 'असीसी के संत फ्रांसिस' और संत पाल की सदवृत्तियों के संयुक्त रूप में देखा है।
[एन. वी. रामसुब्रह्यण्यम]