माइकेल्सन-मॉर्लि प्रयोग ए० ए० माइकेल्सन और ई० डब्ल्यू० मॉर्लि ने मिलकर ईथर में घूमती हुई पृथ्वी का वेग ज्ञात करने का प्रयास इस पूर्वानुमान पर किया कि पृथ्वी के वेग का प्रभाव प्रकाश के वेग पर पड़ता है। माइकेल्सन और मॉर्लि प्रकाश के वेग पर पृथ्वी के वेग का कोई भी प्रभाव ज्ञात करने में असफल रहें। इन दोनो वैज्ञानिकों की असफलता ही आइंस्टाइन के आपेक्षिकता सिद्धांत (देखें आपेक्षिकता) की जन्मदात्री है। आपेक्षिकता सिद्धांत के लिये महत्वपूर्ण होने के कारण यह प्रयोग बार बार दोहराया गया।
इस प्रयोग में माइकेल्सन ने स्वनिर्मित व्यतिकरणमापी (देखें व्यतिकरणमापी) का उपयोग किया था, जिसका रेखाचित्र आगे के स्तंभ में दिया गया है। दाहिनी ओर से एक प्रकाश किरण दर्पण पर आती है द१ दर्पण (अर्ध दर्पण) पर चाँदी का पतला स्तर होता है, जिससे केवल ५० प्रतिशत प्रकाश परावर्तित होकर द२ दर्पण की ओर जाता है और शेष ५० प्रतिशत प्रकाश पारगमित होकर सीधा द३ दर्पण पर आपतीत होता है। द२ तथा द३ दर्पण एक दूसरे पर लंब होते हैं। प्रकाश की ये दो किरणपुंजें क्रमश: द२ तथा द३ दर्पणों से परावर्तित होकर पुन: द१ दर्पण पर आपतित होती है और प्रेक्षक इन दोनों किरणों के द्वारा व्यतिकरण् की धारियों (fringes) को एक साथ देख सकता है। यदि द१ से द२ और द३ दर्पण समान दूरियों पर हों तो, इन धारियों में से केंद्रीय धारी चमकीली होती है। द२ और द३ दर्पणों के अंतरों में अत्यंत स्वल्प परिवर्तन भी हो, तो इन दो प्रकाशकिरणों में से एक को पहुँचने में समानुपाती स्वल्प विलंब होगा और केंद्रीय धारी स्वल्प मात्रा में विचलित होगी। केंद्रीय
माइकेल्सन-मॉर्लि प्रयोग की व्यवस्था
द१ अर्ध दर्पण तथा द२ और द३ पूर्ण दर्पण।
धारी के स्थान विचलन के मापन से इन दो किरणों के संचरण (propagation) के काल का अंतर ज्ञात हो सकता है। द१ से द२ और द३ के अंतर यद्यपि ठीक ठीक समान हों, किंतु किसी कण द१ द२ और द१ और द३ परस्पर अभिलंब दिशाओं में प्रकाश का वेग भिन्न होता हो, तो भी केंद्रीय धारी विस्थापित होगी और इस विस्थापन का मापन कर इन दो दिशाओं में प्रकाश के वेग ज्ञात किए जा सकते हैं।
ईथर की परिकल्पना के अनुसार प्रकाश का वेग इन दो अभिलंब दिशाओं में भिन्न होना स्वाभाविक तथा आवश्यक होना चाहिए। न्यूटनीय अंतरिक्ष एक स्वतंत्र सत्ता है और उसमें ईथर भरा हुआ है। यह ईथर स्थिर होता है। जब पृथ्वी इस स्थिर ईथर में सूर्य की परिक्रमा करती है, तब 'ईथरवात' (ether wind) उत्पन्न होगा। हम कल्पना करेंगे कि 'ईथरवात' द१ द३ दिशा में है (अर्थात द१ द३ पृथ्वी का तल है) और उसका वेग व (V) है। यह व वेग वस्तुत: केवल पृथ्वी की सौर परिक्रमा का हीं वेग नहीं रहेगा किंतु पृथ्वी की सौर परिक्रमा का वेग, सौर मंडल का वेग, आकाशगंगा (जिसमें सौर मंडल है) का वेग इत्यादि सर्वसंभाव्य वेगों का परिणामी वेग होगा। द१ द३ दिशा में प्रकाशकिरण का प्रथम संचरण स+व (C+V) वेग से और लौटते समय संचरण स-व (C-V) वेग से होगा, जहाँ स (c) प्रकाश का वेग है। द१ द२ दिशा 'ईथरवात' से अभिलंब है। सरल गणना से यह सिद्ध किया जा सकता है कि द१ द३ दिशा में प्रकाश किरण को
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द१ से द३ तक आकर पुन: द१ तक लौटने के लिये श् काल लगेगा, जहाँ ल१ (l१) द१ से द३ की दूरी है। किंतु द१ द२ दिशा में प्रकाशकिरण द१ द२ तक जाकर पुन:
द१ तक लौटने के लिये
काल लगेगा, जहाँ ल२ (l2), द१ से द२ की दूरी है। ये दोनों काल समान नहीं हैं, इसलिये केंद्रीय धारी विस्थापित होगी।
माइकेल्सन-मॉर्लि प्रयोग में केंद्रीय धारी का विस्थापन नहीं हुआ। यह संभव है कि 'ईथरवात' जैसा द१ द३ दिशा में समझा गया वैसा नहीं होगा, किंतु किसी अन्य दिशा में होगा। इस शंका का भी निरसन इस प्रयोग में हुआ। माइकेल्सन-मॉर्लि प्रयोग में व्यतिकरणमापी एक शिला पर दृढ़ता से स्थापित था, जिसका पृष्ठ १५०�१५० सेंमीo और मोटाई ३० सेमी० थी। लोहे के वृत्तीय हौदे में पारा भरकर उसमें यह शिला रखी गई थी और शिला व्यतिकरणमापी सहित पारे में तैर सकती थी। व्यतिकरणमापी को इस प्रकार तैरता रखने से दो लाभ थे : एक तो कंपनों से होने वाला उपद्रव नष्ट हो गया और दूसरा, प्रयोग करते समय व्यतिकरणमापी को पूर्णत: घुमाना संभव हुआ। इस प्रकार व्यतिकरण मापी के घुमाते समय किसी एक क्षण पर द१ द३ दिशा 'ईथरवात' की दिशा में और द१ द२ श्दिशा अभिलंब होगी। अत: प्रेक्षण करते समय व्यतिकरणमापी को घूर्णन दिया जाए तो केंद्रीय धारी का विस्थापन क्रमश: कम अथवा अधिक होता रहेगा, अथवा दूसरे शब्दों में केंद्रीय धारी का विशिष्ट अंतर में दोलन होता रहेगा। प्रयोग का अधिक संवेदी बनाने के लिए, प्रकाश के पथों की वृद्धि की गई थी, जिसके लिये व्यतिकरण के पूर्व दर्पणों से प्रकाशकिरणों का बार बार परावर्तन किया गया था। आवश्यक सुधार तथा सावधानियाँ रखने पर भी केंद्रीय धारी का विस्थापन नहीं हुआ और जो कुछ अत्यंत स्वल्प मात्रा का विचलन प्राप्त हुआ वह प्रायोगिक त्रुटि के अंतर्गत था। अत: 'ईथरवात' का अस्तित्व प्रामाणित नहीं हुआ।
माइकेल्सन-मॉर्लि प्रयोग की शृंखला के परिणामों को संक्षेप में इस तरह कह सकते है कि ईथर में घूमती हुई पृथ्वी का वेग प्रकाश के वेग पर कोई प्रभाव नहीं डालता है, अत: प्रकाश के वेग की सहायता से पृथ्वी का वेग नहीं ज्ञात किया जा सकता।
[देवीदास रघुनाथराव भवालकर]