माइकेल आंजेलो बुआना रोत्ती (१४७५-१५३४) जन्मस्थान कास्तेल काप्रेसे, फ्लोरेंस के पास। रेनेसाँ युग का महान् मूर्तिशिल्पी और चित्रकार। माइकेल के पिता कास्तेलश् काप्रेसे गाँव के प्रमुख मैजिस्ट्रेट थे। वे चाहते थे कि उनका लड़का पढ़ लिखकर बुद्धिजीवी बने१ लेकिन माइकेल आंजेलों ने घिरलांदाइयो की तीन साल तक शागिर्दी कर मूर्तियाँ गढ़ना शुरू किया। कुछ ही दिनों में आस पास के धनवान् संग्राहकों से उसका परिचय हो गया। फलस्वरूप लोरेंजो द मेदिची ने माइकेल आंजेलो का अपने संरक्षण में ले लिया और उसे पाँच सौ द्यूकात वेतन देना तय हुआ। सन् १४९० में एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ होती गई कि माइकेल आंजेलो को फ्लोरेंस से भागना पड़ा। वह बोलोन्या के विद्वान साहित्यिकों के साथ काव्यालोचना करने और सुनने में कुछ महीने व्यस्त रहा। साथ ही वह अपने काम में भी रत रहा। उसकी एक मूर्ति क्यूपिड जब रोम में बेची गई तो ग्रीक पुरातत्व के बहाने उसका अधिक दाम वसूल हुआ। परंतु जब पता चला कि वह किसी समकालीन युवक कलाकर का काम है तो माइकेल आंजेलो की रोम में बड़ी सराहना हुई और वहाँ से उसको बुलावा आया यहीं से उसका रोम का रोमांटिक अध्याय शुरू हुआ।
सन् १५०५ में पोप द्वितीय जूलियस के बुलाने पर माइकेल आंजेलों फ्लोरेंस से रोम आ पहुँचा। पोप की इच्छा थी कि उसके अंतिम विश्राम के लिये एक मकबरा बनाया जाय और उसे आंजेलो की मूर्तियों से मंडित किया जाए। संगमर्मर का संग्रह किया जाने जगा। इसी बीच माइकेल आंजेलो के प्रतिस्पर्धी ब्रामांते ने पोप के कान भर दिए और कहा 'अपने जीते जी अपनी समाधि बनवाना अशुभ है।' बस पोप ने आंजेलो को प्रसाद से निकाल दिया। कुछ समय बाद पोप ने माइकेल आंजेलो को दुबारा रोम आने का आदेश दिया। अब मूर्तिकार माइकेल आंजेलो को सिस्टीन चैपल के गिर्जे में छत का चित्रण करने की कठोर आज्ञा हुई। इस बात में भी ब्रामांते की ही शरारत थी। ब्रामांते ने मन में सोच रखा था कि इस काम में माइकेल आंजोलो की पूरी बदनामी होगी और रोम राजधानी में उसका नामोनिशान तक नहीं रहेगा। आंजेलो ने इस महासंकट का उल्लेख अपनी डायरी मे किया है। ''१५ मार्च, १५०८, -आज मैं माइकेल आंजेलो, जो मूर्तिकार मात्र हैं, चर्च की छत चित्रित करने का कार्य कर रहा हूँ जो मेरी योग्यता के बाहर का काम है'' सिस्टीन चैपल की छत पर उसने अपना काम अकेले ही शुरू किया। चार साल तक अत्यंत मनोयोगपूर्वक उसने बायबल में उक्त मानव इतिहास की कथाओं को चित्रित करने का महान् प्रयास किया। इस काम में अनेक बाधाएँ सामने आईं। लेकिन आंजेलो की विदग्ध प्रतिभा और अटूट साहस ने इनपर विजय प्राप्त की। सन् १५१२ में यह विलक्षण चित्रशिल्प लोगों की दृष्टि में पहले पहल आया।
सिस्टीन चैपल की छत और दीवारों का चित्रण नौ हिस्सों में बाँटा जा सकता है
(१) मानव का निर्माण, (२) प्रकाश और अंधकार का भगवान् द्वारा विभक्तीकरण, (३) पृथ्वी को भगवान् आशीर्वाद देते हैं, (४) आदम का निर्माण, (५) ईव्ह का निर्माण, (६) मोह और पतन, (७) नूह का बलिदान, (८) प्रलय, (९) नूह का नशा।
इस महान् कार्य के समुचित मूल्यांकन के पहले ही पोप की मृत्यु हो गई और परवर्ती पोप माइकेल आंजेलो को उसका पारिश्रमिक दे नहीं सका। तब वह फ्लोरेंस लौट आया। उसके संरक्षकों ने उसकी उचित कद्र नहीं की। फलत: वह इन सबसे छुटकारा पाने के लिये फ्लोरेंस में प्रज्वलित क्रांति की आग में कूद पड़ा (सन् १५२७)। लेकिन शीघ्र ही पोप की सेनाओं ने विद्रोही सेना को पराजित किया। माइकेल आंजेलो इस मारकाट में सही सलामत रहा।
सन् १५३४ में फिर पोप तृतीय पाल ने उसे रोम बुलाया और आज्ञा दी कि सिस्टीन चैपल की प्रमुख दीवार पर शेष न्याय (last judgement) का चित्रण किया जाए। अब इकसठ साल की उसकी उम्र थी। वृद्धावस्था में जर्जरित शरीर लेकर उसने यह काम पाँच साल के अतिमानव आयास के बाद संपन्न किया। यह एक विशाल कल्पना का उदार चित्रण है। यह काम पूरा होते न होते पोप की दूसरी आज्ञा हुई कि वातिकन के संत पीतर के गुंबज का पुनर्गठन करने के लिये वह स्थापत्य अभिकल्पन करे। यह कार्य भी उसने बड़ी योग्यता और बड़े परिश्रम से किया।
अपने अंतिम दिनों में वह अत्यंत कष्टमय और एकाकी जीवन बिताता रहा। एक टुकड़ा रोटी और थोड़ी सी मदिरा ही उसकी खुराक थी। बसारी नामक इतालीय इतिहासकार जब उससे मिली माइकेल आंजेलो ८८ साल का वृद्ध था। फिर भी काम करन की असक आग बुझी नहीं थी। बसारी कहता है: माइकेल आंजेलो निद्राहीन रात्रियों के मध्य में हथौड़ा और छेनी उठाकर मूर्तियों की सौंदर्यवृद्धि करने में जुटा रहता था। प्रकाश के लिये अपनी टोपी में मोमबत्ती खोंस लेता था। इस तरह वह दोनो हाथों को काम में ला सकता था। सन् १५६३ में उसकी मृत्यु हुई।
[दिनकर कौशिक]