महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के अंतर्गत दौलतपुर नामक छोटे से गाँव में १५ मई, सन् १८६४ ईo को हुआ था। आंरभिक शिक्षा ग्रामीण पाठशाला में उर्दू-फारसी में हुई। घर पर वे संस्कृत का भी अभ्यास किया करते थे। फिर अँगरेजी पढ़ने रायबरेली चले गए। निर्धनता ऐसी थी कि प्रति सप्ताह लगभग ३० मील पैदल चलकर घर आया करते और सप्ताह भर का आटा, दाल, चावल आदि लादकर पुन: रायबरेली लौट जाया करते थे। पर पाठशाला की फीस, जो मात्र कुछ आने थी, बड़ी कठिनाई से जुट पाती। बचपन की इस घोर दरिद्रता से युद्ध करने का बड़ा सुंदर प्रभाव द्विवेदी जी पर पड़ा। सहिष्णुता, स्वावलंबन और संकल्प की दृढ़ता आदि जिन उदात्त गुणों से उनका जीवन हम ओतप्रोत पाते हैं, उनका बीजारोपण उनमें बाल्यकाल में ही हुआ था।
उन दिनों इनके पिता जी जीविका के कारण बंबई में रहा करते थे। पढ़ाई का सिलसिला समाप्त होने पर वे अपने पिता के पास बंबई चले गए और वहाँ रेलवे में नौकर हो गए। नागपुर, अजमरे और बंबई में कार्य करते समय इन्होंने तार का अभ्यास कर लिया और जीo आईo पीo रेलवे में तारबाबू हो गए। इनकी प्रतिभा और योग्यता पुरस्कृत होती गई और अंत में ये झाँसी में टेलिग्राफ इंस्पेक्टर होकर आ गए। यहाँ नए अधिकारी से कुछ खटपट हो गई और दूसरे ही दिन उन्होंने अपना पदत्याग कर दिया।
द्विवेदी जी का निर्माण 'मोर्स कोड' के संसार के लिये नहीं हुआ था। भाषा और साहित्य ही उनके उपयुक्त क्षेत्र थे और इधर आकर उन्होंने जो जो कार्य किए, भाषा और साहित्य क्षेत्र की अव्यवस्थित अराजकता को क्रमश: अत्यंत धैर्यपूर्वक किंतु निश्चित गति से व्यवस्थित और परिमार्जित किया, उनसे साहित्य के अध्येता भली भाँति अवगत हैं। २०वीं शती के प्रारंभ के साथ ही हिंदी साहित्य के क्षेत्र में दो बड़े व्यापक और महत्वपूर्ण अनुष्ठान हुए और दोनो कार्यों के सूत्रपात का श्रेय काशी नागरीप्रचारिणी सभा को है। ये दो र्का थे : (१) 'सरस्वती' मासिक पत्रिका का प्रवर्तन और (२) हस्तलिखित हिंदी ग्रंथों की खोज।
ये दोनों अनुष्ठान अभी तक चल रहे हैं। 'सरस्वती' के सँपादन का प्रबंध आरंभ में सभा ही करती रही, पर दो तीन वर्षों बाद (सन् १९०४ से) पंo महावीरप्रसाद जी द्विवेदी जैसे युगप्रवर्त्तक, कर्मठ महापुरुष का सहयोग संपादक के रूप में उसे मिला। भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय तक आते आते यद्यपि गद्य और पद्य दोनों के लिये हिंदी की खड़ी बोली स्वीकृत हो चुकी थी, फिर भी कविता खड़ी बोली परपंरा से चली आती हुई ब्रजभाषा के प्रभाव से अपने को सर्वथा मुक्त नहीं कर सकी थी जिसके दर्शन आज सर्वसुलभ हैं। यह कार्य किया महावीरप्रसाद जी द्विवेदी ने। लगभग २० वर्षों के उनके संपादन काल में प्रकाशित 'सरस्वती' की संपादित प्रेस कापी नागरीप्रचारिणी सभा में सुरक्षित है। इनके दर्शन मात्र से यह पता चल जाता है कि 'सरस्वती' को वांछित रूप में प्रकाशित करने में उन्हें कितना परिश्रम करना पड़ता था। प्रत्येक रचना की प्रत्येक पंक्ति उनकी पैनी निगाहों से गुजरती थी और परिमार्जित होकर ही 'सरस्वती' में स्थान पाती थी। इस प्रकार निरंतर परिश्रम करके उन्होंने हिंदी में सैकड़ों लेखक तैयार किए जो उनके मार्गदर्शन के बिना शायद ही साहित्य क्षेत्र में आगे बढ़ पाते।
द्विवेदी जी के प्रति हिंदी साहित्य की प्रत्येक विधा ऋणी है। संस्कृत साहित्य से एक ओर कुमारसंभव और रघुवंश जैसे ग्रंथों के अनुवाद उन्होंने किए, दूसरी ओर महाभारत सदृश पौराणिक-आध्यात्मिक कृतियों के भी अनुवाद किए। अँगरेजी से बेकन के विचारात्मक निबंधों का हिंदी भाषांतर उन्होंने प्रस्तुत किया तो स्पेंसर सदृश आंग्ल दार्शनिक के विचारों को भी हिंदी में ले आए। हिंदी का काव्यक्षेत्र भी उनकी मौलिक एवं अनूदित रचनाओं से सुशोभित हुआ। उनके विविध विषयों के मौलिक निबंध भी हिंदी की स्थायी संपत्ति हैं। इस प्रकार द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य का कोई भी अंग अछूता नहीं छोड़ा, सभी क्षेत्रों को उन्होंने अपनी रचनाओं से परिपुष्ट किया। इन सबसे बढ़कर जो महत्वपूर्ण कार्य द्विवेदी जी ने किया वह है हिंदी गद्य को सुनिश्चित और परिनिष्ठित रूप देना जिसे 'सरस्वती' के संपादनकाल में वे निरंतर करते रहे। उन्हीं की प्रेरणा और सम्मति से नागरीप्रचारिणी सभा ने 'हिंदी व्याकरण' का निर्माण स्वo पंo कामताप्रसाद गुरु द्वारा कराया था जिसके परामर्शमंडल में द्विवेदी जी का भी सहयोग और निर्देशन था। यह व्याकरण आज भी हिंदी खड़ी बोली गद्य का सर्वमान्य व्याकरण है और प्रति वर्ष इसकी हजारों प्रतियाँ हिंदी के जिज्ञासुओं में खप जाती हैं।
सन् १९३३ ईo में स्वo द्विवेदी जी की सेवाओं के समादरार्थ काशी नागरीप्रचारिणी सभा ने एक अभिनंदन ग्रंथ भेट किया था, जिसके लेखकों में भारत की प्राय: सभी भाषाओं के चोटी के विद्वान् लेखकों का तो सहयोग था ही, अँगरेजी एवं अन्यान्य यूरोपीय भाषाओं के मान्य विद्वानों ने भी अपनी श्रद्धांजलियाँ अर्पित कीं।
हिंदी साहित्य की सेवा से उन्होंने जो कुछ अर्जित किया उसे वे हिंदी साहित्य के उन्नयन के लिये ही दान कर गए। कई सहस्र रुपयों की निधि उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय को दी जिसके ब्याज से छात्रवृत्ति दी जाती है। अपने पुस्तकसंग्रह और 'सरस्वती' की संपादित पांडुलिपियों के अतिरिक्त नागरीप्रचारिणी सभा को भी उन्होंने एक निधि प्रदान की जिसके ब्याज से प्रति वर्ष (अब प्रति दूसरे वर्ष) प्रकाशित हिंदी ग्रथों में से सर्वोत्तम ग्रंथ के रचयिता को स्वर्णपदक प्रदान करने की व्यवस्था है। यह 'द्विवेदी स्वर्णपदक' हिंदीजगत् में सर्वाधिक समादृत और स्पृहणीय पदक के रूप में विख्यात है।
द्विवेदी जी की मौलिक कृतियों में विशेष उल्लेखनीय हैं--नैषधचरित-चर्चा, (२) हिंदी कालिदास की समालोचना, (३) हिंदी वैज्ञानिक कोश की दार्शनिक परिभाषा; (४) विक्रमांकदेवचरितचर्चा, (५) हिंदी भाषा की उत्पत्ति, (६) संपत्तिशास्त्र, (७) कालिदास की निरकुंशता, (८) नाट्यशास्त्र, (९) प्राचीन पंडित और कवि, (१०) औद्योगिकी, (११) कोविदकीर्तन आदि। इनके अतिरिक्त 'सरस्वती' में प्रकाशित विभिन्न विषयों के लेख, जीवनचरित, आदि के २०-२५ संग्रह भी पुस्तकाकार निकले हैं। द्विवेदी जी की संपूर्ण कविताओं का संग्रह 'द्विवेदी-काव्य-माला' नाम से प्रकाशित हुआ है।
द्विवेदी जी का शरीरांत २१ दिसंबर, सन् १९३८ ईo को हुआ।
संo ग्रंo--उदयभानुसिंह : महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका युग; कुलवंत कोहली : युगनिर्माता द्विवेदी; प्रेमनारायण टंडन : द्विवेदी मीमांसा; 'सरस्वती' के द्विवेदी-स्मृति-अंक तथा हीरक-जयंती अंक; 'साहित्य संदेश' का द्विवेदी अंक; 'भाषा' का द्विवेदी-स्मृति-अंक। [ शंभुनाथ वाजपेयी]