महाराज नंदकुमार बंगाल का एक संभ्रांत ब्राहमण था। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के समय में वह हुगली का फौजदार था। मार्च, सन् १७५७ में अंग्रेजों ने जब फ्रांसीसियों की बस्ती चंद्रनगर पर हमले की तैयारी की, तो नवाब सिराजुदृौला ने नंदकुमार को एक बड़ी सेना के साथ फ्रांसीसियों और वहाँ की भारतीय प्रजा की रक्षा के लिये तुरंत चंद्रनगर भेज दिया था। लेकिन अंग्रेजों से रिश्वत पाकर नंदकुमार अंग्रेजी सेना के चंद्रनगर पहुँचते ही वहाँ से हट गया। उसके हट जाने से फ्रांसीसी कमजोर पड़ गए और चंद्रनगर पर अंग्रेजों का सरलता से अधिकार हो गया (२३ मार्च, १७५७)। जून, १७५७ में रिश्वत ओर धोखे का सहारा लेकर क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजों ने प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला को हराकर गद्दार मीर जाफर को बंगाल का नवाब बना दिया। बाद में अंग्रेजों ने उसे भी गद्दी से उतारकर उसके दामाद और मीर कासिम को, बहुत सा धन पाने के वादे पर, नवाब बना दिया। कुछ समय बाद अंग्रेजों की लूट-खसोट की नीति के कारण मीर कासिम को अंग्रेजों से युद्ध करने को विवश होना पड़ा किंतु लड़ाई में वह हार गया।
जब १७६३ ईo में मीर जाफर दुबारा नवाब बना तो उसने महाराज नंदकुमार को अपना दीवान बनाया। नंदकुमार अब अंग्रेजों की चालों को समझ गया था। इसलिये उसने बंगाल की नवाबी को पुष्ट करने के लिये मीर जाफर को यह सलाह दी कि वह बंगाल की सूबेदारी के लिये सम्राट् शाह आलम और वजीर शुजाउद्दौला को प्रसन्न करके शाही फरमान हासिल कर ले। ऐसा होने से नवाब अंग्रेजों के चंगुल से छूटकर स्वाधीन हो सकता था। इसपर अंग्रेज नंदकुमार से चिढ़ गए। फरवरी, १७६५ में मीर जाफर के मरने पर उसका लड़का नवाब नजमुद्दौला गद्दी पर बैठा। उसने नंदकुमार को अपना दीवान रखना चाहा, लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा नहीं होने दिया। फलत: नवाब का एक योग्य एवं स्वामिभक्त सेवक उसके हाथ से जाता रहा। अंग्रेज गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने अब महाराज नंदकुमार को हमेशा के लिये खत्म कर देने की योजना बनाई। नवाब नजमुद्दौला ने मुहम्मद रज़ा खाँ नाम के व्यक्ति को अपना नायब नियुक्त किया था। हेस्टिंग्स ने नंदकुमार को बंगाल का नायब बनाने का लालच देकर उसे मुहम्मद रजा खाँ के खिलाफ कर दिया था। इस लालच में नंदकुमार ने रजा खाँ पर गबन का इलजाम साबित करने में मदद की थी। लेकिन काम निकलने के बाद हेस्टिंग्स नंदकुमार को पुरस्कृत करने बजाय उसका विरोधी हो गया। नंदकुमार ने भी अब हेस्टिंग्स के खिलाफ कलकत्ते की कौंसिल को एक अर्जी पेश की जिसमें हेस्टिंग्स पर रिश्वत लेने और जबरदस्ती धन वसूल करने तथा मुर्शिदाबाद के नवाब की माँ मुन्नी बेगम से बहुत सा धन वसूल करने आदि के इलजाम लगाए थे। ये इलजाम कौंसिल के मेंबरों ने यद्यपि सही समझे, तथापि हेस्टिंग्स को कोई दंड नही दिया गया। अपितु हेस्टिंग्स ने उलटे नंदकुमार पर यह जुर्म लगाया कि पाँच साल पहले सन् १७७० में नंदकुमार ने किसी दीवानी के मामले में एक जाली दस्तावेज बनाया था। जालसाजी का यह मुकदृमा मोहनप्रसाद नाम के एक व्यक्ति द्वारा कलकत्ते की अँग्रेजी `सुप्रीम कोर्ट` में चलाया गया। कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश सर एलिजाह इंपी वारेन हेस्टिंग्स का बचपन का मित्र था। नंदकुमार पर जालसाजी का इलजाम बिलकुल झूठा था, जिसको सिद्ध करने के लिये फर्जी गवाह खड़े किए गए थे। वस्तुत: अंग्रेज और विशेषतया हेस्टिंग्स नंदकुमार से चिढ़ते थे और उसे खत्म करने के लिये ही यह मुकदमा चलाया गया था। सात दिन इस मुकदमे की सुनवाई हुई और अंत में अँग्रेजी अदालत ने नंदकुमार को अपराधी करार देकर उसे फाँसी की सजा दे दी। ५ अगस्त, सन् १७७६ को महाराज नंदकुमार को कलकत्ते में फाँसी पर लटका दिया गया। नंदकुमार ने शांति और अदम्य धैर्य के साथ मृत्यु का आलिंगन किया। [भगवती प्रसाद पांथरी]