महादेव शाब्दिक अर्थ 'महान् देवता' या 'महान् राजा' किंतु प्रचलित अर्थ में केवल हिंदू देवता शिव का एक नाम या विशेषण। यह कहना कठिन है कि शिव को सर्वप्रथम महादेव के रूप में मान्यता किस कालविशेष में मिली, किंतु उत्तर वैदिक काल में आर्यजन निश्चित रूप से महादेव के रूप में शिव की उपासना करने लगे थे। इनके अतिरिक्त भी शिव के कितने ही अन्य पर्याय हैं पर उनमे प्रमुख कहे जा सकते हैं -- ईश, ईशान, उमापति, भूतेश, खंडपरशु, शंकर, सर्वज्ञ, धूर्जटि, व्योमकेश, स्थाणु, रुद्र, त््रयंबक, महाकाल, नीललोहित, गंगाधर, मृत्युंजय, त्रिलोचन इत्यादि। महादेव के ये सब नाम तथा इस प्रकार के दूसरे पर्याय कितने ही गुण तथा प्रतीकों को व्यक्त करते हैं। इससे स्पष्ट है कि शिव या महादेव का मान्य स्वरूप किसी एक काल, संप्रदाय या विश्वास की उपज न होकर कई संस्कृतियों, विश्वासों, प्राकृतिक तथा लौकिक प्रतीकों का सम्मिलित या विकसित रूप है। प्रागैतिहासिक तथा ऐतिहासिक परंपराओं में जैसे हिंदू धर्म ढला उसी प्रकार और क्रम से 'एकं सद्विप्रा: बहुधा वदंति' वाली आस्था स्वीकार कर महादेव की सर्वव्यापी कल्पना और रूप स्थापित हुए। किंतु शिव की उपासना विभिन्न भावों और रूपों में चलती रही जिसे आज भी भारत के विभिन्न भागों में देखा जा सकता है।
स्थूल रूप से हिंदू धर्म में महादेव को संहार से संबद्ध किया जाता है, किंतु शिवोपासक अपने इष्टदेव को सृष्टि, स्थिति (पालन) और विनाश का कर्ता मानता है। यही नहीं, वह भगवान् शिव को अनुग्रह तथा तिरोभाव (मुक्ति) का कारण मानता है -- अतएव महादेव के कार्यों को 'पंचकृत्य' भी कहा गया है। मध्ययुगीन ग्रंथों में महादेव का वर्णन सर्वश्रेष्ठ शास्त्रव्याख्यात, अद्वितीय योगी, गान, नृत्य और दूसरी कलाओं के जनक तथा श्रेष्ठतम ज्ञाता के रूप में है। अधिकांशत: शिव का सर्वमान्य प्रतीक लिंग है और मूलत: इसका संबंध प्रजनन के आदिम भाव से है, और इस देवता की अर्धनारीश्वर, उमापति तथा विश्वपिता के रूप में उपासना इसी भावना की पुष्टि करती है। सगुण उपासना में महादेव का बहुप्रचलित स्वरूप इस प्रकार बतलाया जाता है कि वे रजतगिरि के समान श्वेत (और विशाल), बालेंदु युक्त जटामुकुट, व्यालालंकार शोभित, भस्मांकित शरीर धारण किए हैं। उनके हाथों में डमरू, त्रिशूल (परशु) तथा कपाल और एक हाथ अभय मुद्रा में है। मस्तक से गंगा बह रही है। व्याघ्रांबर परिधान, सौम्य मुखाकृति और वाहन वृषभ नंदी है। पार्श्व में पार्वती (गणेश और कार्तिकेय) विराजमान हैं।
ऐतिहासिक संदर्भ में अर्चनात्मक दृष्टि से महादेव की प्राचीनता निर्विवाद है, यद्यपि यह कहना कठिन है कि सर्वप्रथम किस रूप में और किस स्थान पर इसका आविर्भाव हुआ। परंतु ईसा पूर्व तृतीय सहस्राब्दी की हड़प्पा या सिंधु संस्कृति के अवशेषों में शिव पूजापरक तत्व विद्वानों ने खोजे हैं। इस विषय में विशेष उल्लेखनीय योगासन में स्थित, पशुओं से घिरी हुई, मुद्रांकित मानवाकृति है जिसे पशुपति -- शिव प्रचीन स्वरूप माना गया है। कुछ पुराविदों ने लिंग पूजा का अस्तित्व भी सिंधु सभ्यता के धार्मिक विश्वासों के अंतर्गत माना है।
ऋग्वैदिक युग का एक प्रमुख कार्य देवता रुद्र था, और कालांतर में इसका समन्वय शिव या महादेव की विशालतर कल्पना में हो जाता है। किंतु आज के हिंदू धर्म द्वारा अंगीकृत पौराणिक महादेव के स्वरूप में कितने ही तत्व रुद्र परंपरा से जुड़े हैं। किसी अंश तक शिव और रुद्र की एकात्मकता ऋग्वेद में (१०।९६।६) ही स्वीकार कर ली गई थी, पर आर्यजन लिंगार्चना हो हेय समझते थे। उन्होंने अनार्यों का अनास, मृद्धवाक् के साथ शिश्नदेवा: कहकर उपहास किया हे। संभवत: महादेव का क्रतुध्वंसी (यज्ञविनाशक) स्वरूप शिश्नोपासकों की ही कल्पना की देन था और योगेश्वर रूप में वे मूलत: आर्यों के रुद्र प्रतीत होते हैं।
यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के कुछ मंत्रों में महादेव का एक महान् तथा पराक्रमी देवता के रूप में चित्रण किया गया है। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि (ईo पूo ५००) ने भी शिवाराधकों का उल्लेख अष्टाध्यायी में किया है, पर इतिहास और पुरातत्व के प्रमाणों के अनुसार शिव की स्वतंत्र और विकसित आराधना प्रणाली का अस्तित्व हमें ईo पूo दूसरी शती के आसपास ही ज्ञात होता है। महाभाष्यकार पतंजलि (ईo पूo दूसरी शती) शिव और रुद्र दोनों का ही उल्लेख करते हैं। उन्होंने शिव भागवतों के विशेषण बताए हैं 'दंडाजिनिक' (दंड और अजिनधारी) और 'अय: शूलिक' (लोहे का शूल उठाकर चलनेवाले)। रामायण में सूदूर दक्षिण भारत में शिवपूजा की चर्चा है और महाभारत महादेवपरक विश्वासों तथा कथानकों का कितनी ही बार उल्लेख करता और शैवाराधन पद्धतियों का भी उसमें यत्र तत्र विवरण है। ्ख्राीस्ताब्द की प्रारंभिक शतियों के लगभग महादेव की उपासना अधिक लोकप्रिय हो गई थी। कुषाण, कुणिंद तथा दूसरी मुद्राओं में शिव के मानवीय रूप का अंकन होने लगा था। औदुंबर सिक्कों में त्रिशूलध्वज से युक्त शिवमंदिर भी दिखाया गया है। इसके अतिरिक्त प्रतीक पूजा के रूप में लिंग की महत्ता बढ़ी। इस संबंध में गुडिमल्लम् का शिवलिंग तथा भरतपुर संग्रहालय स्थित एकमुख लिंग उल्लेखनीय हैं। प्रसिद्ध शैवाचार्य लकुलीश ने इसी बीच (प्रथम शती ईo) शैव धर्म का पुनरुद्धार किया और लकुलीश पाशुपत संप्रदाय की नींव डाली जिसका प्रसार उनके चार प्रमुख शिष्यों ने भारत के विभिन्न भागों में किया। कालांतर में लिंग की और भी महत्ता बढ़ी और वह केवल प्रजनन चिह्न न रहकर अनादि, अव्यक्त, अनंत तथा ज्योतिकूट परमात्मा का प्रतीक मान लिया गया। शिवपुराण का लेखक कहता है।
ज्योतिर्लिंग तदोत्पन्नभावयोर्मध्य अद्भुतम्।ज्वालामाल सहस्राट्यं कालानल चयोपमं।।क्षयवृद्धिविनिर्मुक्तमादिमध्यांतवर्जितम्।अनौपम्यमनिर्दिष्टमव्यक्तं विश्वसंभवत्।। (१।२।६३-६४)
संभवत: महादेव का शिवलिंगिन् भाव, जिसमें शिव स्वयं अपने लिंग को वहन करते दिखाए गए हैं, इसी काल में गढ़ा गया, क्योंकि यह लिंग की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता हे। इसी परंपरा का निर्वहन करने के कारण प्राचीन भारत में एक बलशाली राजवंश ने भारशिव संज्ञा पाई।
इसके उपरांत गुप्त-वाकाटक-युग में अन्य ब्राह्मण देवी देवताओं के साथ महादेव की विविध रूपों में उपासना फली फूली और कितने ही शिवमंदिर बने। विष्णु के अवतारों की तरह महादेव के अवतारों की परंपरा प्रकाश में आई। भारत के अतिरिक्त द्वीपांतरों में शैव धर्म पल्लवित हुआ। शिवोपासन विशेषज्ञों में सभस्म द्विर्जों के एक नए वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ। स्मार्त परंपरा भी महादेव पूजा के अनुकूल ही रही।
पर मध्ययुगीन शिल्प में शिव और उनके अनुचरों के विविध रूप अंकित हुए। और 'ॐ नम: शिवाय' ऐसे मंत्रों को सर्वोपरि प्रतिष्ठा मिली। इस काल में लकुलीश पाशुपतों के अतिरिक्त विशेष उल्लेखनीय संप्रदाय थे : कापालिक, कालमुख, सोमसिद्धांतिक आगमिक शैव (दक्षिण भारत), प्रत्यभिज्ञ शैव (कश्मीर), लिंगायत (वीर शैव), नाथसंप्रदाय इत्यादि। इनमें आचार भेद के साथ दर्शनात्मक भेद भी थे। कट्टर शैवों और दूसरे संप्रदायों के बीच कटुता के प्रमाण भी मध्ययुगीन ग्रंथों से मिलते हैं पर ब्राह्मण धर्म की स्मार्त परंपरा द्वारा आपस में इस कटुता को संभवत: कम करने का यत्न किया गया। हरिहर, शिवलोकेश्वर तथा पंचायतन लिंग की उपलब्ध प्रतिमाओं से यही अनुमान लगाया जा सकता है। दक्षिण भारत के नायनारों ने शैव धर्म और दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योग दिया।
मुस्लिम तथा आधुनिक युग में यद्यपि महादेव के मंदिर बहुत अधिक न बन सके तथापि पूजा कम नहीं हुई। फिर भी, शैव दर्शन के क्षेत्र में कोई विशेष उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पाई जबकि उसके अधिकांश मध्ययुगीन संप्रदाय किसी न किसी रूप में जीवित रहे। महादेव की पूजापरंपरा आज भी सशक्त और जीवंत है। इसमें धीरे धीरे कितने ही लोक और ग्रामदेवताओं के तत्वों का समावेश होता रहता है।
महादेव की प्रतिमाएँ -- भारतीय और भारत से प्रभावित शिल्प में महादेव का चित्रण विविध रूपों में किया गया है। उनको प्रधानत: दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है (१) लिंग (अव्यक्त) रूप में, (२) मानवीय (सगुण) रूप में।
प्रथम वर्ग में प्राकृतिक (स्वयंभू) लिंगों के अतिरिक्त, साधारण लिंग एकमुख और चतुर्मख लिंगों का उल्लेख किया जा सकता है। चतुर्मुख लिंग में महादेव चारमुख, उनके सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष और अधोर रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वर्ग में शिव का अनेक रूपों में चित्रण हुआ है, जिनमें निहित भावना मूल रूप में मनुष्य के अपने ही कार्यकलापों का प्रतिरूप है। ऐसी कृतियों में महत्वपूर्ण अधोलिखित प्रकार की प्रतिमाएँ हैं : अर्धनारीश्वर, नृत्यमूर्ति, आलिंगन मूर्ति, उमासहित मूर्ति, रावणानुग्रहमूर्ति, कालारिमूर्ति, संहारमूर्ति, कल्याण सुंदर (शिवविवाह) मूर्ति, दक्षिणामूर्ति (योगी), गंगाधर मूर्ति और लिंगोद्भव मूर्ति। लिंगोद्भव मूर्ति में महादेव के व्यक्त और अव्यक्त स्वरूपों का सुंदर समन्वय मिलता है।
[मुनीशचंद्र जोशी]