महमूद गावाँ बहमनी राज्य के महान् सचिव थे। इनका जन्म १४११ ईo में कैस्पियन सागर के तट पर जिलान राज्यांतर्गत कावाँ अथवा गावाँ नामक स्थान में हुआ था। राज्य के कुछ उच्च्चाधिकारियों से विवाद के फलस्वरूप इन्हें अपना जन्मस्थान त्यागना पड़ा और १४५३ ईo में भारत के पश्चिमी समुद्री तट पर बहमनी राज्य के अंतर्गत दाबल नामक बंदरगाह पर शरण लेनी पड़ी। वहाँ से वे बीदर चले गए। विस्तृत अनुभव और गुणीजन से संपर्क होने के कारण वे अलाउद्दीन का पुत्र हुमायूँशाह १४५८ में अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ। नए राजा ने महमूद को अपना मुख्य मंत्री नियुक्त किया। तीन वर्ष के अनंतर हुमायूँ की मृत्यु पर उसका अष्टवर्षीय पुत्र निजामुद्दीन अहमद तृतीय उसका उत्तराधिकारी हुआ। एक राज-संरक्षण परिषद् की भी स्थापना हुई, जिसके सदस्य विधवा राजमाता महारानी मखदूमए जहान नरगिस बेगम, महमूद गावाँ और ख्वाजए जहाँ तुर्क नियुक्त हुए। यह त्रिसदस्यीय शासन परिषद्, अहमद के दो वर्षों के लघु शासनकाल में तथा उसके भाई शमशुद्दीन मुहम्मद तृतीय, जो इतिहास में मुहम्मदशाह लशकरी (१४६३-८२) के नाम से प्रसिद्ध है, के शासन के आरंभ में कुछ वर्षों तक बनी रही। ख्वाजए जहाँ तुर्क के बध और महारानी के सक्रिय राजनीति से पृथक् होने के फलस्वरूप महमूद गावाँ राज्य के सर्वोच्च अधिकारी हो गए और उन्हें ख्वाजए जहाँ की उपाधि दी गई।
ख्वाजा द्वारा अपनी ओर से तथा युवक मुहम्मद शाह की ओर से गुजरात के महमूद बेगढ़ को लिखे गए अनेक पत्र उन्हें एक उच्च कोटि का कूटनीतिज्ञ प्रदर्शित करते हैं। जब मालवा के महमूद खल्जी ने दक्षिण पर आक्रमण करके बीदर पर वास्तविक आधिपत्य स्थापित कर लिया तब ख्वाजा गुजरात के सुल्तान की सहायता से मालवा की ओर से हुए आक्रमण को विफल करने में सफल हुए। हमें मालवा के राजदूत और महमूद गावाँ के बीच हुआ पत्राचार भी उपलब्ध है जिससे उनकी उस कूटनीतिक मेधा पर प्रकाश पड़ता है जिससे द्वारा मालवा और दक्षिण का संघर्ष अंतिम रूप से समाप्त किया गया। एक सेनाध्यक्ष के रूप में महमूद गावाँ मराठा देश के उस भाग को नियंत्रित करने में सफल हुए जो भौगोलिक दृष्टि से दक्षिणवर्ती पठार से संबद्ध था। १४६९ और १४७२ के बीच किए गए अनेक ज्वलंत सैनिक अभियानों द्वारा उन्होंने व्यावहारिक रूप से संपूर्ण कोंकण समुद्रतट को अपने अधीन कर लिया तथा अंत में १ फरवरी १४७२ को बिना किसी रक्तपात के गोआ नगर पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। अब राज्य एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक फैल गया। प्रसिद्ध राजा टोडरमल की भाँति उन्होंने बहमनी राज्य के विस्तृत भूभाग की नाप करवाई और उचित स्वामित्व का शुद्ध लेखा रखा। राज्य को आठ अतराफ या प्रदेशों में पुनर्विभाजित करना आवश्यक हो गया जिनके केंद्र गबिल, महर, दौलताबाद, जुनैर, बीजापुर, गुलबर्ग, वारंगल और राजामुंद्री थे। प्रत्येक देश में कुछ भूभाग राजा के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखे गए जिससे राज्यपालों के अधिकारों पर प्रभावशाली अंकुश रखा जा सके। इसी प्रकार दुर्ग शासकों को प्रदेशीय राज्यपालों की अपेक्षा सीधे राजा के प्रति उत्तरदायी बनाया गया। जागीरदारों और क्षेत्रपतियों को उस धनराशि का विवरण प्रस्तुत करना पड़ता था जिसे वे अपनी जागीरों से वसूल करते थे। इस प्रकार जहाँ महमूद गावाँ ने सामंतवाद के दोषों को कम करने का प्रयास किया, वहीं जागीदारों और उच्चाधिकारियों को अपना जानी दुश्मन बना लिया। शासकीय कुलीनतंत्र के दो बड़े दलों के संबंधों में सौहार्द लाने का प्रयत्न भी किया गया। ये दोनों दल थे दक्खिनी या उत्तर से आए प्रवासियों के वंशज और अफ्रीकी या समुद्र पार से आए नवागत लोग। लेकिन यहाँ भी वे असफल रहे। कला और साहित्य जगत् में भी ख्वाजा ने अपना चिह्न अंकित कर दिया है। बीदर में उसके महान् मदरसा की भव्य अट्टालिका पर आज भी उनका नाम अंकित है। यद्यपि औरंगजेब के शासनकाल में इस भव्य भवन का एक भाग बारूद से विनष्ट कर दिया गया था तथापि भवन के बहिर्भाग पर सुंदर नक्काशी इसके भव्य कक्ष, इसकी एकमात्र अवशिष्ट मीनार, इसके बड़े कमरे, जिनमें कभी पुस्तकालय था और वहाँ का संपूर्ण सौम्य वातावरण आज भी हमें महमूद गावाँ की ज्ञानप्रियता का स्मरण दिलाता है। अपने सुधारों और विरोधियों के द्वेष के कारण इन्हें अपनी जान तक दे देनी पड़ी। जब १४८१ ईo में राजा एक युद्ध अभियान पर जिंजी चला गया था तब कोंडापल्ली के (जो आजकल कृष्णा जिले में स्थित है) राजकीय शिविर में एक षड्यंत्र रचा गया था। ख्वाजा की ओर से एक जाली पत्र तैयार किया गया था जिसमें उड़ीसा के गजपति को राज्य पर आक्रमण करने के लिये आमंत्रित किया गया था। जब शाह जिंजी से लौटा तब उसे यह पत्र दिखाया गया। ख्वाजा को राजदरबार में बुलाया गया और उनका सर १४ अप्रैल, १४८१ को धड़ से पृथक् कर दिया गया। उसे अपना पक्ष प्रस्तुत करने का भी अवसर नहीं दिया गया।
ख्वाजा के वध के एक वर्ष पश्चात् मुहम्मद शाह का स्वर्गवास हो गया। उसके कुछ नि:शक्त उत्तराधिकारी हुए और अंत में साम्राज्य पाँच भागों में विभक्त हो गया। अहमदनगर में निजामशाही, बीजापुर मं आदिलशाही, बीदर में बरीदशाही, बरार में इमादशाही और गोलकुंडा में कुतुबशाही की स्थापना हुई। [एच. के. शेरवानी]