मस्तिष्कशोथ (Encephalitis) केंद्रीय तंत्रिकातंत्र की ऐसी शोथयुक्त अवस्था है जिसमें मस्तिष्क एवं केंद्रीय तंत्रिकातंत्र के अन्य अवयवों का धूसर द्रव्य (grey matter) मुख्य रूप से आक्रांत होता है।

कारण -- इस रोग का प्रसार मुख्यत: एक विशेष प्रकार के निस्यंदनीय वाइरस (filterable virus) द्वारा नाक और गले से मस्तिष्क के अधोजालतानिक अवकाश (subarchnoid space) में होता है। यह रोग सभी अवस्था एवं लिंग के व्यक्तियों में समान रूप से होता है। शीत ऋतु के प्रारंभ में इसका प्रकोप अधिक होता है। देहातों की अपेक्षा शहरों में यह रोग अधिक होता है।

लक्षण तथा विकृति विज्ञान (Pathology) -- इस रोग में मस्तिष्क के धूसर द्रव्य के संपूर्ण भाग में काफी परिवर्तन होता है, जिसके फलस्वरूप केंद्रीय तंत्रिकाओं के केंद्र (nuclei) तथा सुषुम्ना की अग्र शृंग कोशिकाएँ (anterior horn cells) मुख्यत: आक्रांत होती हैं। ये सभी स्थान शोथयुक्त (oedematous) तथा रक्ताधिक्ययुक्त (hyperaemic) हो जाते हैं। इस रोग के लक्षण ६० प्रति शत एकाएक प्रकट होते हैं तथा ४० प्रति शत शनै: शनै: प्रकट होते हैं।

एकाएक प्रकट होने वाले लक्षणों में ज्वर १०४ या १०५ डिग्री से १०६ या १०७ डिग्री तक हो जाता है। इसके साथ साथ वमन, तीव्र शिर:शूल, अतिसार, आक्षेप इत्यादि लक्षण प्रकट हो जाते हैं। रोगी को हाथ पैर में दर्द, कमजोरी, हाथ पैर में शक्तिहीनता तथा अवसाद एवं सुस्ती का अनुभव होता है। अंत में रोगी बेहोश हो जाता है।

इस रोग के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं : ज्वर ७५.४ प्रति शत, बेहोशी ५२.६ प्रतिशत, आक्षेप ४२.९ प्रतिशत, वमन २८.७ प्रतिशत, शिर:शूल १६.५ प्रति शत, बेचैनी १३.१ प्रतिशत, वाक्शक्ति हीनता ७.८ प्रतिशत, मूत्रावरोध ६ प्रतिशत, पीठ और गर्दन में दर्द ५.१२ प्रतिशत और हिचकी १.७ प्रतिशत।

निदान -- जब कभी रोगी तीव्र ज्वर, आक्षेप, बेहोशी की अवस्था, वमन, अतिसार इत्यादि लक्षण बताता है तो समझ लेना चाहिए कि कोई मस्तिष्कगत उपद्रव चल रहा है। ऐसी अवस्था में रोग के निदान के हेतु इसी प्रकार के लक्षणों से युक्त अल्प रोगों का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है, जैसे प्रमस्तिष्कीय मलेरिया (cerebral malaria), टाइफाइड, गर्दनतोड़ बुखार (cerebrospinal fever), गुलिकार्ति, मस्तिष्क-आवरण-शोथ (tubercular meningitis) इत्यादि।

ऐसी अवस्था में रक्तपरीक्षा करके मलेरिया के कीटाणुओं को देखने की कोशिश करनी चाहिए। साथ ही श्वेत रक्तकणों की संयुक्त संख्या भी देख लेनी चाहिए, जो इस रोग में अत्यधिक बढ़ जाती है। यदि श्वेत रक्तकणों की संख्या अत्यधिक मिले और रक्त में मलेरिया के कीटाणु न दिखाई दें, तो तत्काल उपर्युक्त लक्षण के आधार पर चिकित्सक को रीढ़ की हड्डी में सूचीवेध करके मस्तिष्क के तरल पदार्थ को निकालकर परीक्षा करनी चाहिए। इस विधि को कटिवेधन (lumbar puncture) कहते हैं। इसी से रोग का स्पष्ट निदान होता है।

उपद्रव एवं साध्यासाध्यता -- इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति या तो शीघ्र ही मर जाता है अथवा कुछ सप्ताह में ठीक होकर आंशिक पक्षाघात से ग्रस्त हो जाता है। इसकी साध्यासाध्यता रोग की उग्रता तथा रोगी की अवस्था पर निर्भर करती है।

उपचार -- रोगी को तत्काल लेटाकर उनका बुखार उतारने के लिये शीतोपचार (hydrotherapy) करना चाहिए। अन्य लाक्षणिक उपचार के साथ साथ इस रोग की विशिष्ट चिकित्सा के अंतर्गत ब्रॉड स्पेक्ट्रम ऐंटिबायोटिक, जैसे टेरामाइसिटीन, ऐक्रोमाइसिटीन, क्लोरोमाइसिटीन आदि का उपयोग किया जाता है। रोग की उग्रता तथा रोगी की अवस्था के अनुसार मात्रा निर्धारित करते हैं। औषधि का उपयोग भी मुख तथा सूचीवेध द्वारा आवश्यकतानुसार करते हैं। चूँकि मस्तिष्क पर प्रमस्तिष्क मेरुद्रव के दबाव से रोगी को असह्य पीड़ा, संज्ञानाश तथा अनेक उपद्रवों का अनुभव होता है, अत: कटि-वेधन-विधि से द्रव निकालने से आशातीत लाभ होता है। इससे यह देखा गया कि द्रव काफी गति से निकलता है तथा स्वच्छ होता है। उसमें स्थित शर्करा और क्लोराइड साम्यावस्था में होते हैं, परंतु प्रोटीन काफी बढ़ा रहता है। कभी कभी अन्य मार्गों से औषधि प्रवेश से लाभ न होने पर कटिवेधन द्वारा औषधि प्रविष्ट कराने से तत्काल लाभ मिलता है। [प्रियकुमार चौबे]