मस्तिष्क (Brain) केंद्रीय तंत्रिकातंत्र (nervous system) का वह भाग है जो अस्थिनिर्मित कपाल (cranium) रूपी बक्स के अंदर स्थत है। शरीर के प्रत्येक भाग को यहाँ से तंत्रिकाएँ जाती और आती है। मस्तिष्क के मुख्यत: तीन भाग हैं: १. अग्र मस्तिष्क, जिसमें (क) चेतक (Thalmus), (ख) रेखी पिंड (Corpus striatum) तथा (ग) प्रमस्तिष्क (Cerebrum) सम्मिलित हैं; २. मध्यमस्तिष्क (Mid-brain), जिसके (क) चतुष्टय काय (Corpora quadrigemina) और (ख) प्रमस्तिष्क वृंत (Cerebral peduncles) भाग है, तथा ३. पश्च मस्तिष्क (Hind brain), जिसमें (क) मेरुशीर्ष (Medula oblongata), (ख) पौंस (Pons) (ग) अनुमस्तिष्क (Cerebllum) हैं।

मस्तिष्क आवरण (membranes) - मेरुरज्जु तथा मस्तिष्क को चारों ओर से आच्छादित करनेवाली मुख्यत: तीन कलाएँ हैं: १. दृढ़तानिका (piamater)

१. प्रमस्तिष्क, २. अनुमस्तिष्क तथा ३. मूरुशीर्ष।

दृढ़तानिका - यह मस्तिष्क का सबसे बाहरी तांतव आवरण या कला है। दृढ़ करोटि में इस तानिका का बाह्यपृष्ठ कुछ असम होता है और यह अस्थियों के भीतरी पृष्ठ के साथ चिपटी रहती है। महारध्रां (foramen magnum) पर इसका भीतरी भाग मेरुरज्जु (medulla spinalis) की बाह्य कला से लगा रहता है। यही स्तर करोटि तंत्रिकाओं (cranial nerves) का बाह्य आवरण बन जाता है। दृढ़तानिका के चार प्रवर्धित भाग होते हैं, जिनमें दो ऊर्ध्वाधर तथा दो क्षैतिज होते हैं। ऊर्ध्वाधर भाग, जो प्रमस्तिष्क दात्र (Falx cerebri) कहलाता है, प्रमस्तिष्क के दोनो गोलार्धों के बीच में सामने से लेकर पीछे तक फैला रहता है। दूसरा अनुमस्तिष्क दात्र (Falx cerelielli), जो अनुमस्तिष्क के गोलार्धों के बीच में त्रिकोणाकार रूप में स्थित है, क्षैतिज अनुमस्तिष्क छदि (tentorium cerebelli), अनुमस्तिष्क और प्रमस्तिष्क के पश्चिम भाग के बीच में, क्षैतिज स्थिति में रहता है। इस प्रकार इसका आकार तंबू के समान होता है। दृढ़तानिका का दूसरा क्षैतिज भाग पर्याणिका तनुपट (Diaphragma sollae) कहलाता है, जो पीयूष ग्रथि (pituitary gland) को आवृत कर देता है। दृढ़तानिका के स्तरों के बीच में कहीं कहीं शिरा द्वारा रक्त को लौटाने के लिए मार्ग बन गए हैं, जिन्हें शिरानाल (Sinus) कहते हैं।

जालतानिका - यह अत्यंत पतली तानिका मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों तथा मेरुरज्जु पर छाई रहती है। मस्तिष्क के आधार पर इन दोनों तानिकाओं के बीच में स्पष्ट अवकाश दिखाई देते हैं, जो अधोजालतानिका कुंड (Subarachnoid cisternae) बनाते हैं। दृढ़तानिका और उसके बीच केस्थान को अधोदृढ़तानिका अवकाश कहते हैं। इसमें लसिका सदृश द्रव प्रमस्तिष्क मेरुद्रव (cerebrospinal fluid) प्रवाहित होता रहता है। इन दोनों तानिकाओं के बीच सयोजक धातु के कुछ बंधक (trabeculae) तथा कणांकुर (granulations) पाए जाते हैं, जो उन्हें एक दूसरे से संबंधित रखते हैं।

मृदुतानिका - यह रक्त केशिकाओं से युक्त तानिका सबसे भीतर रहती है। इसके गहरे पृष्ठ से सूक्ष्म धमनियाँ निकलकर मस्तिष्क पदार्थ में प्रवेश करती है। दोनो मस्तिष्कों के विदर और परिखाओं (fissures and sulcus) में भीतर तक यह तानिका प्रवेश करती है।

पश्च मस्तिष्क

मेरुशीर्ष - यह लगभग १ १/४ इंच लंबी और १ इंच चौड़ी मुकुला-कार रचना है, जो ऊपर की ओर अधिक चौड़ी होती है। यह पौंस की ऊर्ध्वधारा से लेकर महारध्रं (foramen magnum) की ऊर्ध्वधारा के तल तक के स्थान के बीच में रहता है और उसके नीचे मेरुदंड से संबंधित हो जाता है। आकार में यह पिरामिड केश् समान है। अनुमस्तिष्क के गोलार्धों के बीच में स्थित खात में इसका पश्च भाग रहता है और यह चतुर्थ निलय के तल का नीचे का भाग बनाता है। मेरुदंड के अगमध्यम विदर (anterior median fissure) तथा पश्चमध्यम परिखा (posterior median sulcus) इस पर चले आते हैं, जिनके द्वारा मेरुशीर्ष दो बराबर समान भागों में विभक्त हो जाता है। प्रत्येक अर्ध भाग पुन: दो परिखाओं द्वारा तीन भागों में बँटा है: १. अग्रभाग - इसके दोनों ओर अग्रमध्यम और अग्रपार्श्विक (anterior lateral) परिखाएँ स्थित है; २. पार्शिक भाग - यह अग्रपार्श्विक और पश्चपार्श्विक परिखाओं के बीच में स्थित है, जहाँ से जिह्वाग्रसनी (glasso pharyngeal), वेगस (vagus) तंत्रिका और उपतंत्रिका (accessory nerve) निकलती है। इसके ऊपरी भाग में एक अंडाकार उत्सेध है, जिसे वर्तुलिका (Olivary body) कहते हैं, तथा ३. पश्चभाग - यह पश्चमध्यम तथा पश्चपार्श्विक परिखाओं के बीच में स्थित है, जिसे ऊर्ध्व और अधोभागों में विभक्त किया जा सकता है और इस प्रकार विभक्त होने पर इसके द्वारा चतुर्थ निलय (ventricle of brain) के निम्न अर्धभाग की सीमा बनती है। इसकी पश्चपार्श्विक परिखा पर से ९वीं, १०वीं तथा ११वीं कपाली तंत्रिकओं के सूत्र निकलते हैं। पश्चभाग के निचले हिस्से तनुपूलिका (fasciculus gracilis) तथा कीलक पूलिका (fasciulus cuneatus) ऊपर जाकर दो उत्सेधों में समाप्त हो जाती हैं, जिनको क्लावा (Clava) और कीलक गुलिका (Cuneate tubercle) कहते हैं। ये उभार उनके भीतर स्थित धूसर द्रव्यसमूह (grey matter) के कारण होते हैं, जो तनुकेंद्रक (nucleus gracilis) और कीलक केंद्रक कहलाते हैं। भस्माभ गुलिका (Tuberculum cinereum) नामक एक तीसरा उभार भी होता है। यहाँ पाँचवीं त्रिधारा तंत्रिका (trigeminal nerve) के संज्ञावह (sensory) सूत्र समाप्त होते हैं। पश्च भाग ऊर्ध्वांश में रेस्टिफार्म काय (restiform body) है, जो चतुर्थनिलय के तल तथा जिह्वाग्रसनी तंत्रिका और वेगस तंत्रिका के मूल के बीच में स्थित है। आगे चलकर यह अनुमस्तिष्क में प्रविष्ट हो जाती है और अनुमस्तिष्क का अधोवर्ती वृंत बनाती हे।

१. ऊर्ध्व ललाट परिखा (Superior frontal sulcus); २. निम्न ललाट परिखा; ३. रालैंडो का विदर (मध्य परिखा); ४. परा-अभिमध्य (para-medial) परिखा; ५. अधो-अनुप्रस्थ (lower transveruse) परिखा; ६. मध्यललाट परिखा; ७. सिल्वियस (Sylvius) परिखा; ८. ललाट पालि (lobe) का नेत्रगुहा (orbital) भाग; ९. ऊर्ध्व जानु (Superior genu); १०. अधो जानु; ११. नलीय भाग (Parabasalis); १२. त्रिकोणीय भाग (Pars triangularis); १३. पूर्व समतल भाग (Pars horizontalis); १४. अधोशंख (lower temporal) परिखा; १५. सिल्वियस विदर के समतल भाग की ऊर्ध्वगामी शाखा; १६. ऊर्ध्व शंख परिखा; १७. सिल्वियस विदर का समतल भाग तथा १८. पश्च परिखा का समतल भाग।

पौंस (Pons) -- यह पश्च मस्तिष्क का वह भाग है जो ऊपर की ओर प्रमस्तिष्क व नीचे की ओर मेरु शीर्ष तथा पीछे की ओर अनुमस्तिष्क को संयोजित करता है। इसके ऊपरी भाग पर प्रमस्तिष्क वृंत दिखाई देते हैं तथा नीचे का भग मेरुशीर्ष से लगा रहता है। इसका अग्रपृष्ठ (ventral surface) उन्नतोदर है और उसमें तंत्रिका सूत्र अनुप्रस्थ होते हैं। ये सूत्र दोनों ओर से मिलकर एक घना समुदाय (compact mass) बनाते हैं, जो अनुमस्तिष्क में प्रवेश करता है। ये गुच्छे अनुमस्तिष्क के मध्यवृंत कहलाते हैं। इनके द्वारा प्रमस्तिष्क के विभिन्न भागों की तंत्रिका से अनुमस्तिष्क में सूत्र आकर इसको प्रमस्तिष्क के नियंत्रण में रखते हैं। इनके अतिरिक्त पौंस के धूसर द्रव्य में निम्नलिखित कपाली तंत्रिकाओं के केंद्रक होते हैं :

(१) त्रिधारा तंत्रिका, (२) उपतंत्रिका, (३) आनन तंत्रिका, (४) श्रवण तंत्रिका (auditory nerve) की कर्णावर्त शाखा (cochleardivision) के केंद्रक और (५) श्रवण तंत्रिका की प्रघाण शाखा (vestibular division) के केंद्रक।

अनुमस्तिष्क -- यह पौंस और मेरुशीर्ष के पीछे प्रमस्तिष्क के पश्चकपाल खंड (occipital lobe) के नीचे स्थित केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की एक प्रमुख रचना है। इसके बाहर की ओर धूसर द्रव्य होता है, जो प्रमस्तिष्क के धूसर द्रव्य से अधिक धूसर वर्ण का होता है। श्वेत द्रव्य इसके भीतर रहता है। प्रमस्तिष्क के समान इसके तल या पृष्ठ पर बड़ी परिखाएँ नहीं होतीं, बल्कि इसमें बहुसंख्यक पतली स्तरिकाएँ (lamina) होती हैं, जो बहुत सी समांतर परिखाओं द्वारा एक दूसरे से पृथक् रहती हैं। इनको अनुमस्तिष्क की स्तरिकाएँ कहते हैं। अनुमस्तिष्क के मुख्यत: तीन भाग होते हैं, जिनमें दो पार्श्व भाग होते हैं और एक मध्य भाग। पार्श्व भाग अनुमस्तिष्क गोलार्ध कहलाते हैं और मध्यभाग वर्मिस (Vermis) कहलाता है। वर्मिस का एक भाग, जो अनुमस्तिष्क के ऊपरी तल पर स्थित है, ऊर्ध्व वर्मिस कहा जाता है तथा निचले तल पर निम्न वर्मिस स्थित है। इसका भीतरी भाग चतुर्थ निलय की छत बनाता है, वह मध्यवृंत है। इस प्रकार अनुमस्तिष्क ऊर्ध्व, मध्य तथा निम्न वृंत के द्वारा प्रमस्तिष्क, पौंस और मेरुशीर्ष से संबद्ध रहता है। इसकी सामान्य रचना प्रमस्तिष्क के समान है। इसमें निम्नलिखित तीन आंतरिक और एक पार्श्विक केंद्रक स्थित हैं : (१) कीलकल्प केंद्रक (Nucleus emboiliformi), (२) गोल केंद्रक (nucleus globosus), (३) बलभि केंद्रक (nucleus dentalus) उपर्युक्त तीनों केंद्रकों से बड़ा और आकार में मेरुशीर्ष की वर्तुलिका के समान है। इसके एकभाग में बाड़ीसूत्र प्रविष्ट होते हैं तथा बाहर निकलते हैं। केंद्रीय श्वेत द्रव्यसमूह के अतिरिक्त, श्वेत द्रव्य तंत्रिका सूत्रों (fibres) का बना होता है, जो तीनों वृंदों द्वरा बाहर से संबंधित होते हैं।

१. तृतीय तंत्रिका, २. दृष्टि (optic) तंत्रिका, ३. पीयूषिका ग्रंथि, ४. घ्राण कंद (Olfactory bulb), ५. पौंस, ६. चतुष्टयकाय (Corpora quadrigemina), ७. मध्यपिंड (Corpus), ८. मेरुशीर्ष, ९. अनुमस्तिष्क, १०. चतुर्थ निलय, ११. तृतीय निलय, १२. मुनरो का छिद्र, १३. पार्श्व निलय तथा १४. मस्तिष्क के चक्रांग (convolutions)।

प्रमस्तिष्क के समान इसके धूसर द्रव्य के (क) बाह्य, (ख) मध्य तथा (ग) आभ्यंतर स्तर होते हैं। विशेषता केवल इतनी है कि अनुमस्तिष्क के प्रत्येक क्षेत्र में ये समान रूप से होते हैं, किंतु प्रमस्तिष्क के विभिन्न भागों में इनके वितरण में विभिन्नता होती है।

(क) बाह्य स्तर -- इसमें निम्नलिखित रचनाएँ होती हैं : १. परकिंजे कोशिका के अक्षतंतु (Axon of Purkinje cells), २. कणमय कोशिकाओं के अक्षतंतु (Axon of granular cells), ३. आरोही सूत्र, ४. करंड कोशिकाएँ (Basket cells), ५. आण्विक स्तर की क्षुद्र कोशिकाएँ तथा (ख) मध्यस्तर में परकिंजे कोशिकाएँ एक स्तर में व्यवस्थित रहती हैं; (ग) अभ्यंतर स्तर में निम्नलिखित रचनाएँ होती हैं : १. कणमय कोशिकाएँ (Granular cells), २. गोल्जी (Golgi), कोशिकाएँ तथा ३. मॉस तंतु (Moss fibers)।

अनुमस्तिष्क के कार्य -- यदि कबूतर में अनुमस्तिष्क को निकाल दिया जाय, तो वह खड़ा नहीं रह सकता है। इसका कारण यह है कि शरीर के संतुलन से संबद्ध विभिन्न पेशियों का संकोच समुचित रूप से नहीं हो पाता। अत: अनुमस्तिष्क का संबंध शरीरसंतुलन से स्पष्टत: प्रतीत होता है। संक्षेप में इसके निम्नलिखित तीन मुख्य कार्य हैं : १. पेशोसंकोच को बनाए रखना (Tonic functions), २. कार्य के समय पेशी को दृढ़ रखना (Static functions), ३. कार्यकाल में पेशी को शक्तिशाली बनाए रखना (Sthenic functions), ४. शरीर की विभिन्न पेशियों की क्रियाओं में सहयोग उत्पन्न करना, जिससे शारीरिक उद्देश्यों की पूर्ति हो (Theory of synergic control)।

चतुर्थ निलय -- यह पश्च मस्तिष्क में स्थित एक ऐसी गुहा है जिसका आकार बर्फी जैसा (lozenge shaped) होता है।

१. उच्च ललाट कर्णक (Superior Frontal Gyrus); २. उच्च ललाट परिखा (Sulcus); ३. मध्य ललाट परिखा, ४. मध्यकर्णक का उच्च भाग; ५. अधो मध्यपूर्व परिखा; ६. मध्यपूर्व कर्णक; ७. निम्न मध्योत्तर परिखा; ८. पार्श्व विदर; ९. अंतर्पार्श्विका परिखा; ११. उच्च शंख पार्श्विका; १२. उच्च मध्योत्तर परिखा; १४. उच्च ललाट खंडक (lobule); १५. अंतपार्श्विका परिखा; १६. पार्श्विक पश्चकपाल परिखा; १७. पार्श्विका पश्चकपाल (Parieto-occipital) परिखा; १८. अनुप्रस्थ पश्चकपाल परिखा; २०. अंत: पार्श्विक (intra parietal) परिखा; २१. पार्श्विकांतर (Intraparietal) परिखा; २२. उच्च मध्योत्तर (Superior post central) परिखा; २३. ऊर्ध्व पार्श्व कर्णक; २४. निम्न मध्योत्तर परिखा; २५. मध्योत्तर कर्णक; २६. मध्यपरिखा; २७. कर्णक; २९. निम्न मध्यपूर्व (inferior pre-central) परिखा; ३०. मध्य ललाट परिखा; ३१. ऊर्ध्व ललाट परिखा तथा ३२. उच्च ललाट कर्णक की एक परिखा।

यह अनुमस्तिष्क के सामने, पौंस तथा मेरुशीर्ष के ऊपरी अर्ध भाग के पीछे स्थित है। इसकी पार्श्वसीमा का ऊपरी भाग ऊर्ध्व अनुमस्तिष्क वृंत को बनाता है तथा निचला भाग तनुगुलिका, कीलक पूलिका, और अध: अनुमस्तिष्क वृंत का बना होता है। चतुर्थ निलय की छत का ऊपरी भाग ऊर्ध्व अनुमस्तिष्क वृंत तथा ऊर्ध्व अंतस्थाच्छादन (superior medullary velum) का बना होता है और निचला भाग निम्न अंतस्थाच्छदन, निलय अंतरीयक (ependyma), निलय की टीनिया (taenia of the ventricle) इत्यादि से निर्मित है। चतुर्थ निलय का तल समप्रतिभुज (rhomboid) के समान होता है तथा पौंस और मेरुशीर्ष के पश्चिम भाग से बना हुआ होता है। यह धूसर द्रव्य के पतले स्तर से घिरा रहता है, जो नीचे मेरुशीर्ष एवं मेरुरज्जु की मध्य नलिका (central canal) से संबंधित है। इस तल के तीन भाग होते हैं, जिनमें ऊर्ध्वभाग त्रिकोणाकार होता है। इसकी दोनों भुजाएँ ऊर्ध्व अनुमस्तिष्क वृंत की बनी हैं। शिखर (apex) मध्य मस्तिष्क कुल्या (aqueduct of the mid-brain) से संबंधित है तथा आधार एक कल्पित रेखा से, जो दो छोटे गड्ढों को जोड़ती है। इस कल्पित रेखा से लेकर निलय की टीनिया तक मध्य भाग रहता है। इसका अधोभाग की त्रिकोणाकार है।

मध्य मस्तिष्क

मध्य मस्तिष्क अग्र तथा पश्च मस्तिष्क को मिलानेवाला सबसे छोटा भाग है, जिसके दोनों पार्श्वों से तीसरी, चौथी, पाँचवीं और छठी तंत्रिकाएँ निकलती हैं। यह दो सेंटीमीटर लंबा होता है। इसके तीन मुख्य भाग हैं : १. अधर (ventral) भाग, जिसमें दोनों प्रमस्तिष्क वृंत होते हैं; २. पश्च भाग, जिसमें चतुष्टयकाय की गणना है तथा ३. आभ्यंतर (internal) भाग, जिसमें सिल्वियस की कुल्या होती है।

प्रमस्तिष्क वृंत -- यह मध्य मस्तिष्क बनानेवाली प्रधान रचना है। यह दो मोटी रस्सी के सदृश, पौंस के ऊपरी तल से निकलकर, एक दूसरे से अलग होकर, प्रमस्तिष्क गोलार्धों के अधोतल में प्रवेश करता है। इसके तीन भाग होते हैं : १. अग्रिमांश, जो श्वेत सूत्रों के समूहों से बना होता है; २. मध्यमांश, जो श्याम वर्ण का होता है, कृष्ण द्रव्य कहलाता है तथा ऊपर की ओर चेतक के मूल तक फैला हुआ होता है तथा ३. पश्चमांश, जिसमें जालक वस्तु की अधिकता होती है। इसे छादिका (tegmentum) कहते हैं। इसमें दो मुख्य केंद्रक तथा तीन तंत्रिकाएँ होती हैं। उपर्युक्त दोनों वृंतों के बीच के रिक्त स्थान को वृंतांतर खात (inter-peduncular fossa) कहते हैं।

केंद्रक -- ये निम्नलिखित हैं :

१. अरुण केंद्रक (Red nucleus) -- यह छादिका के ऊपरी भाग में चेतक के नीचे स्थित रहता है। इससे अरुण मेरुपथ (rubro-spinal tract) और छादक के मेरुपथ (tecto-spinal tract) की तंत्रिकाएँ प्रारंभ होती हैं और ऊर्ध्व नेत्रप्रेरक तंत्रिका (occulomotor nerve) इस केंद्रक का उल्लंघन कर जाती है। अरुण केंद्रक के कार्य हैं : (क) अनुमस्तिष्क और मेरु के सूत्रों के मार्ग में एक सम्मेलन स्टेशन का कार्य करना, जिससे अनुमस्तिष्क का नियंत्रण ऐच्छिक पेशियों पर हो तथा जिसकी उत्तेजना से भ्रमण आदि चेष्टाएँ होती हैं; (ख) उन सूत्रों के मार्ग में भी सहायक का कार्य करना, जिससे परतंत्र पेशियों का स्वत:जात संयुक्त नियंत्रण हो; (ग) शरीर की सामान्य स्थिति बनाए रखने के लिये आवश्यक प्रतिवर्ती क्रियाओं (reflex actions) का यह केंद्र है तथा (घ) शरीर की सामान्य स्थिति नष्ट होने पर पुन: पूर्ववत् स्थिति में लाने का प्रयास यहीं से होता है।

२. वृंतांतर गुच्छिका (Interpeduncular ganglion) -- यह दोनों वृंतों के बीच अग्रिम भाग में स्थित है तथा इसके तंतु चेतक (thalamus) से मिलते हैं। यह पट्टिका (habenular) गुच्छिका के ऊपर एक तंतुसमूह के द्वारा संबंधित रहती है। इसे मेनर्ट की प्रत्यावक्र पूलिका (fasciculus retro flexus of Meynert) कहते हैं।

१. पार्श्व निलय का अग्र शृंग, २. पुच्छ केंद्रक (Caudate nucleus); ३. आभ्यंतर संपुट (capsule) का अग्रभाग; ४. माँडुर पिंड (Globus palidus); ५. पुटेमिन (Putamen); ६. द्वीपिका (Insula); ७. अंत: संपुट का प्रत्यंग भाग (Recto-lenticular part); ८. पुच्छ केंद्रक का अंतर्भाग; ९. अक्षिविकिरण; ११. टैपिटम (Tapetum); १२. कोरॉइड जालिका (Choroid plexus); १३. निम्न अनुदैर्ध्य गुच्छक (Lower longitudinal ganglion); १४. वृहत् हिप्पोकैंपस (Major hippocampus); १५. स्प्लीनियम (Splenium); १६. थैलेमस (Thalamus); १७. अंत:संपुट का पश्चभाग ; १८. फोर्निक्स (Fornix) का अग्रस्तंभय १९. निलय वाल्व; २०. अंत:संपुट का जानु (genu) तथा २१. मध्य संयोजक (corpus callosum) का जानु।

सिल्वियस की कुल्या -- यह एक संकीर्ण मार्ग है, जो छादिका से मस्तिष्क के तृतीय निलय (ventricle) तक जाता है। इसके चारो ओर धूसर द्रव्य होता है और आगे नेत्रप्रेरक तंत्रिका का केंद्रक (nucleus of occulomotor nerve) स्थित है।

चतुष्टय काय -- ये मध्य मस्तिष्क के पश्चिम भाग में स्थित हैं। ये छोटे और वर्तुलाकार होते हैं तथा एक परिखा द्वारा एक दूसरे से पृथक् रहते हैं। इनके बाहर की ओर से तंत्रिकासूत्रों के गुच्छे अधोबाहुक (inferior brachium) कहते हैं। इनके प्रांत भाग में दो उत्संध होते हैं, जिन्हें बाह्य जानुनत पिंड (external geniculate body) तथा आभ्यंतरिक जानुनत पिंड (internal geniculate body) कहा जाता है।

पट्टबंध (Fillet or lemniscus) -- यह अनुदीर्घ सूत्रों की एक तंत्रिका है, जो छादिका के अग्रिम भाग से होकर जाती है। इसके दो भाग होते हैं : १. अभिमध्य (medial) पट्टबंध, जिसमें संज्ञासूत्र दूसरी ओर के मेरुशीर्ष के तनुकेंद्रक (nucleus gracilis) और कीलक केंद्रक (nucleus cuneatus) से आते हैं तथा २. पार्श्व पट्टबंध (lateral lemniscus), जो अभिमध्य पट्टबंध के पीछे की ओर झुका रहता है।

अग्र मस्तिष्क

चेतक -- ये धूसर द्रव्य द्वारा निर्मित आधार गुच्छिकाओं (basal ganglia) से बने हुए हैं, जो संख्या में दो हैं और मस्तिष्क के तृतीय निलय के दोनों ओर स्थित हैं। विकास की दृष्टि से ये मस्तिष्क के परिसरीय भाग से अति प्राचीन हैं तथा निम्नवर्ग के प्राणियों में उच्च संज्ञाधिष्ठान केंद्रकों के रूप में कार्य करते हैं। चेतक के मुख्यत: दो भाग होते हैं :

(१) पार्श्विक भाग -- यह भाग पीछे की ओर निकला रहता है। इसमें दो केंद्रक होते हैं : (क) पुलविनार (Pulvinar) -- यह पिंड चेतक के पिछले अंतिम सिरे पर स्थित है। यहाँ दृष्टिनाड़ी के सूत्र आते हैं और यहाँ से प्रमस्तिष्क के पश्चकपाल खंड (occipital lobe of cerebrum) में जाते हैं। इसके नीचे एक मटर के आकार का उभार होता है, जिसे अभिमध्य वक्र पिंड (medial geniculate body) कहते हैं और जो अधोबाहुक के द्वारा अधोकौलिकस (inferior collicus) से संबंधित रहता है। पुलविनार के नीचे और पार्श्व की ओर एक दूसरा उभार है, जिसे पार्श्व (lateral) जानुनत पिंड कहते हैं और यह ऊर्ध्वबाहुक के द्वारा ऊर्ध्व कोलिकस से संबंधित है। (ख) पार्श्व केंद्रक -- यह पट्टबंध के सूत्रों से संबद्ध रहता है तथा त्वचा की गंभीर संवेदनाओं को ग्रहण करता है।

(२) अग्र अभिमध्य भाग (Anterior medial part) -- इसमें भी निम्नलिखित दो केंद्रक होते हैं : (क) अग्र केंद्रक (Anterior nucleus) -- यह अग्र गुलिका में स्थित रहता है और इसके अक्षतंतु रेखीपिंड (corpus striatum) के पुच्छकेंद्रक के भाग में जाते हैं। (ख) अभिमध्य केंद्रक--घ्राण नाड़ी के सूत्रों को ग्रहण करता है और इसके अक्षतंतु पुच्छकेंद्रक के भाग में जाते हैं।

चेतक के कार्य : (१) चेतक का पार्श्वकेंद्रक शरीर के विभिन्न सूत्रों के मार्ग में स्टेशन का कार्य करता है और पुलविनार दृष्टिनाड़ी के मार्ग में सहायक का कार्य करता है। सभी संवेदनाएँ प्रमस्तिष्क के परिसरीय भाग में अपने अपने केंद्रकों तक पहुँचने के पूर्व व्यवस्थित हो जाती हैं। (२) चेतक प्राथमिक संवेदक केंद्रों का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिये प्रमस्तिष्क के परिसरीय भाग में स्थित संवेदक केंद्रों में विकार होने पर भी ये संवेदनाएँ पूर्णत: नष्ट नहीं होतीं, किंतु चेतक में विकार होने पर ये संवेदनाएँ पूर्णतया नष्ट हो जाती हैं। (३) संवेदनाओं में सुख दु:ख की प्रतीति चेतक से होती है। (४) यह भावावेशों की अभिव्यंजना का प्राथमिक केंद्र है। (५) यह एक ओर के अनुमस्तिष्क को दूसरी ओर के प्रमस्तिष्क ऐच्छिक क्रियाओं का इसके द्वारा नियंत्रण होता है।

पिनियल पिंड (Pineal body)--यह कोण के आकार की रक्तवर्ण, छोटी ग्रंथि है, जो चतुष्टय काय के बीच के दबे हुए क्षेत्र पर स्थित है। इसका शीर्ष पीछे की ओर होता है और इसका आधार, जो आगे की ओर स्थित है, एक डंठल द्वारा स्थिर है। यह डंठल अग्र भाग और पश्च भाग में बँटा हुआ है। इन दोनों भागों से श्वेतसूत्रों के समूह निकलते हैं, जिन्हें अग्र और पश्र्च संयोजिकाएँ (commissures) कहते हैं।

यह ग्रंथि यौन ग्रंथियों से संबंधित होती है और उनके प्राक्पक्व (premature) विकास को रोकती है। इस ग्रंथि की वृद्धि होने से यौन अंगों का समय से पूर्व ही विकास हो जाता है, शरीर बढ़ जाता है और विशिष्ट मानसिक भावों का उदय होता है। युवावस्था के बाद इसका क्षय होने लगता है और अंत में यह केवल सौत्रिक तंतुओं के समूह के रूप में रह जाती है।

रेखी पिंड--यह भी आधार गुच्छिका का ही एक भाग है, जो धूसर वस्तु से निर्मित चेतक के पार्श्व में और सामने स्थित रहता है। इसकी कोशिकाएँ प्रमस्तिष्क के परिसरीय भाग की कोशिकाओं के समान होती हैं। इस प्रकार विकास और कार्य की दृष्टि से यह प्रमस्तिष्क गोलार्धों का भाग है। इसके अंदर धूसर द्रव्य के दो समूह पाए जाते हैं : (१) भीतर की ओर पुच्छ केंद्रक और (२) बाहर की और मसूरक (lenticular) केंद्रक। ये दोनों भाग श्वेत सूत्रों के एक गुच्छे से विभक्त रहते हैं, जिसे आंतर संपुट (capsule) कहते हैं और प्रमस्तिष्क के एक पार्श्व को शरीर के विपरीत पार्श्व से संबंधित करता है।

१. पुच्छकेंद्रक एक मोटी धूसर वस्तु से निर्मित रचना है। इसका आगे एक सिरा चौड़ा होता है, जिसे शिर कहते हैं। यह तृतीय निलय में उभरा रहता है। इसका पिछला सिरा क्रमश: पतला होता जाता है तथा पुच्छ कहलाता है और चेतक के पार्श्व में स्थित रहकर, बादामाकार (amygdaloid) केंद्रक में समाप्त हो जाता है। २. मसूरक केंद्रक धूसर द्रव्य से निर्मित उभयोत्तल (biconvex) रचना होती है। यह नीचे की अपेक्षा ऊपर अधिक चौड़ी है। इसके दो भाग होते हैं। इसका बड़ा भाग पुटेमिन (Putamen) कहलाता है, जो गहरे रंग का होता है और छोटा भाग पांडुर पिंड (Globus pallidus) कहा जाता है।

रेखी पिंड के कार्य : १. यह प्रमस्तिष्क के परिसरीय प्रेरक क्षेत्रों से मिलकर ऐच्छिक पेशियों की गति नियंत्रित करता है; २. यह पेशियों को सहयोगिता के कार्य करने के लिये प्रस्तुत रखता है; ३. यह मसूरक केंद्रक के संवेगों को ऐच्छिक पेशियों तक पहुँचाता है, जिससे स्वचालित क्रियाएँ, जैसे घूमना, दौड़ना इत्यादि होती हैं, तथा ४. यह ताप का नियंत्रण करता है।

आंतर संपुट--यह मेदावृत तंत्रिका (medullated nerve) सूत्रों का एक गुच्छा है, जो मसूरक केंद्रक के बाहर की ओर और पुच्छकेंद्रक तथा चेतक के भीतर की ओर स्थित रहता है। इसका आकार अर्धचंद्र के समान होता है, जिसका नतोदर भाग मसूरक केंद्रक के सामने होता है। इसमें निम्नलिखित तीन भाग हैं : १. ललाट भाग (Frontal part), २. जानु भाग (Genu), तथा ३. पश्चकपाल भाग (Occipital part) धमनी काठिन्य (arteriosclerosis) आदि के कारण अति रक्तदाब (high blood pressure) होने पर, यहीं की धमनियाँ प्राय: फटती हैं, जिससे सन्नयास, पक्षाघात आदि रोग होते हैं तथा विपरीत पार्श्वपेशियों का पक्षाघात (paralysis) होता है। वामभाग में रक्तस्राव होने पर वाक्शक्ति का लोप हो जाता है।

बाह्य संपुट--यह श्वेत द्रव्यों से बने सूत्रों का गुच्छा है, जो मसूरक केंद्रक के बाह्य पार्श्व में रहता है और प्रमस्तिष्क के मसूरक केंद्रक और रोधपट (claustrum) के बीच स्थित रहता है। मसूरक केंद्रक के पीछे की ओर यह आंतर संपुट से मिल जाता है। इसके सूत्र प्राय: चेतक के उत्पन्न होते हैं।

मस्तिष्क का तृतीय निलय (Third Ventricle of the Brain)--दोनों चेतकों के बीच में स्थित यह पतला गहरा अंतराल है, जो नीचे प्रमस्तिष्क के आधार पर चला जाता है। इसकी छत एक पतली कला (thin efritherial layer) से बनती हैं, जो एक से दूसरे चेतक तक फैली रहती है। पीछे यह चतुर्थ निलय से मध्य मस्तिष्क की कुल्या से संबंधित रहता है तथा सामने की ओर पार्श्व निलय से निलयांतर रध्रं (interventricular foramen) से मिल जाता है। इसका तल सामने और नीचे की दिशा में ढालवाँ होता है, जिसमें सामने से पीछे की ओर अक्षिस्वस्तिक (optic chiasma), कीप (infundibulum), भस्माभ गुलिका (tuberculum cinereum) और चुचुकाभ काय (corpora mamillaria) रहते हैं। इसके पीछे पश्चबिद्ध द्रव्य (posterior perforated substance) रहता है। इसकी अग्रसीमा (anterior boundry) अंत्यफलक (lamina terminalis) के नीचे स्थित है और अक्षिस्वस्तिक से लेकर महासंयोजक के चंचु (rostrum of the Corpus Callosum) ऊर्ध्वपृष्ठ तक विस्तृत हैं। तृतीय निलय की पश्चिम सीमा पिनियल पिंड, पश्च संयोजिका तथा मध्य मस्तिष्ककुल्या से बनती है। पार्श्वसीमाएँ संख्या में दो होती हैं। ये क्रमश: चेतक के अग्रिम दो तिहाई भाग तथा अधश्चेतक (hypothalamus) से बनती हैं। उपर्युक्त दोनों भाग अधश्चेतक परिखा (sulcus) से विभाजित हैं।

प्रमस्तिष्क

यह मस्तिष्क का सबसे बृहद् भाग है, जो संपूर्ण शरीर की क्रियाओं तथा ज्ञान उत्पादनस्थल है। इसका ऊपरी एवं बाह्य भाग धूसर द्रव्य का बना होता है और आंतरिक भाग श्वेत द्रव्य का। इसका संपूर्ण बाह्य स्थल ऊँचा नीचा असमतल होता है। इसके भिन्न भिन्न भाग शरीर के भिन्न भिन्न भागों की क्रियाओं से संबंध रखते हैं। प्रमस्तिष्क गहरे अनुदैर्ध्य विदर (fissure) द्वारा बीचोबीच से मध्यम समतल (median plane) में दो गोलार्धों में विभक्त होता है, जिनको प्रमस्तिक गोलार्ध कहते हैं।

प्रमस्तिष्क गोलार्ध--प्रमस्तिष्क में दाहिने और बाएँ दो गोलार्ध होते हैं, जो ऊपर से देखने पर अंडाकार दिखाई देते हैं। इनका पिछला भाग अगले भाग से अधिक चौड़ा होता है। दोनों गोलार्ध वाम अनुदैर्ध्य प्रमस्तिष्क विदर द्वारा पृथक् रहते हैं और वे महासंयोजक नामक अनुप्रस्थ तंतुओं के गुच्छों द्वारा परस्पर संबद्ध रहते हैं। प्रत्येक गोलार्ध के भीतर एक बड़ा रिक्त स्थान होता है, जिसे पार्श्व निलय कहते हैं। ये रिक्त स्थान पीछे की ओर तृतीय निलय में खुलते हैं। प्रत्येक गोलार्ध पर बाहर धूसर द्रव्य छाया रहता है, जो कोशिकाओं का बना होता है। इसको प्रांतस्था (cortex) कहते हैं। प्रमस्तिष्क के विभिन्न पृष्ठों में प्रांतस्था के परिमाण में अंतर होता है। मस्तिष्क के आधार में तीन महत्वपूर्ण धूसर द्रव्य के समूह होते हैं, जिन्हें चेतक तथा चतुष्टय काय कहते हैं। धूसर द्रव्य के नीचे प्रमस्तिष्क के भीतरी भाग में श्वेत सूत्रों के समूह होते हैं। यही श्वेत द्रव्य कहलाता है।

प्रमस्तिष्क का बहिर्भाग तीन गहरी परिखाओं द्वारा चार खंडों में विभक्त है, जिनको ललाट (frontal), पार्श्विक (parietal), शंख (temporal) और पश्च कपाल (occipital) खंड कहते हैं। प्रमस्तिष्क का पृष्ठ समतल न होकर ऊँचा नीचा, टेढ़ा मेढ़ा होता है जिससे प्रांतस्था का धूसर द्रव्य अधिक परिमाण में करोटिगुहा में आ सके। निम्नवर्ग के प्राणियों में यह बिलकुल सपाट होता है, तथा इसकी रचना नितांत साधारण होती है, किंतु ज्यों ज्यों विकास बढ़ता गया है, इसकी रचना जटिल होती गई है। मनुष्य में भी गर्भावस्था के समय प्रमस्तिष्क की रचना साधारण ही रहती हैं, किंतु विकासक्रम में उसमें परिखाएँ प्रकट होने लगती हैं। प्रमस्तिष्क और उसका पृष्ठ जटिल होने लगता है। युवावस्था में पहुँचने पर वह पूर्ण विकसित हो जाता है। निम्न श्रेणियों के बंदरों और नवजात मानव शिशुश् का प्रमस्तिष्क प्राय: समान होता है। प्रमस्तिष्क के प्रत्येक खंड का पृष्ठ विदरों और परिखाओं नामक गहरी रेखाओं द्वारा अनेक भागों में विभक्त होता है। इन छोटे छोटे उपविभागों का कर्णिका या लहरिकाएँ (gyrus or convolutions) कहते हैं। प्रमस्तिष्क के गोलार्धों में निम्नलिखित तीन पृष्ठ होते हैं : (क) बाह्य पार्श्व (supero latera), पृष्ठ, (ख) अभिमध्य (medial) पृष्ठ, (ग) अधो (inferior) पृष्ठ।

(क) बाह्य पार्श्व पृष्ठ--यह आकार में उत्तल (convex) होता है, जो कपाल के अवतल भाग (concave part of cranium) में भरा रहता है। पृष्ठ पर क्रमश: निम्नलिखित तीन विदर या मुख्य परिखाएँ होती हैं : (१) पार्श्व परिखा (lateral sulcus or fissure of Sytvius), (२) केंद्रीय परिखा (central sulcus or fissure of Rolands) तथा (३) बाह्य पूर्वपश्चकपाल परिखा (external parieto occipital sulucus)।

(ख) अभिमध्य पृष्ठ--इसमें निम्नलिखित मुख्य परिखाएँ होती हैं : (१) महासंयोजिका (collosal) परिखा, (२) शूक (calcarine) परिखा, (३) अवपार्श्विका (subparietal) परिखा, (४) समपार्श्वी (collateral) परिखा तथा (५) आंतरिक पार्श्विक पश्र्चकपाल परिखा (internal parieto occipital sulcus)।

(ग) अधोपृष्ठ--इसमें मुख्य वृत्ताकार परिखा (circular sulcus) होती हैं।

उपर्युक्त तीनों पृष्ठों की परिखाओं के द्वारा प्रमस्तिष्क निम्नलिखित खंडों में विभक्त होता है : (१) ललाट खंड--यह खंड प्रमस्तिष्क की केंद्रीय परिखा के सामने स्थित है। (१) ललाट खंड--यह खंड प्रमस्तिष्क की केंद्रीय परिखा के सामने स्थित है। (२) पार्श्विका खंड यह खंड केंद्रीय परिखा और बाह्य पार्श्विका पश्र्चकपाल परिखा के बीच में स्थित रहता है। (३) पश्र्चकपाल खंड--यह खंड आंतरिक पार्श्विका पश्र्चकपाल परिखा के पीछे स्थित रहता है। (४) शंख खंड--यह खंड पार्श्वपरिखा के नीचे स्थित रहता है। (५) राइल की द्वीपिका (Island of Reil or Insula)-- यह भाग प्रमस्तिष्क के भीतर वृत्ताकार परिखा (circular sulucus) से संवेष्टित रहता है, जो ललाट खंड, पार्श्विक खंड और शंख खंड की कर्णिकाओं को हटाने से दिखाई देता है। (६) पाद खंड (Limbic lobes)--ये प्रमस्तिष्क के महासंयोजक भाग को आवेष्टित करनेवाले दो खंड (lobes) हैं, जो ऊपर की ओर ऊर्ध्व जलाश्व संयोजिका कर्णिका (hippocampal gyrus) से बनते हैं। ये कुत्ते आदि तीक्ष्ण गंधशक्तियुक्त प्राणियों में अधिक विकसित होते हैं।

प्रमस्तिष्क प्रांतस्था की सूक्ष्म रचना तथा कार्य निम्नलिखित हैं :

(क) धूसर द्रव्य--प्रमस्तिष्क का प्रांतस्था भाग आयु के अनुसार दो से लेकर चार मिलिमीटर तक मोटा होता है। प्रांतस्था की गहराई कर्णिका के खुले भाग में परिखा की अपेक्षा अधिक होती है। धूसर द्रव्य में पाँच स्तर होते हैं, जो बाहर से भीतर की निम्नलिखित प्रकार से स्थित रहते हैं : १. बाह्य तंतु स्तर (Outer fibre layer) में तंतुजाल की बहुलता होती है। इसका विशेष कार्य स्मृति है। इस स्तर का बुद्धि से विशेष संबंध है। व्यक्ति जितना बुद्धिमान् होता है उसमें यह स्तर उतना ही अधिक होता है। बुद्धिमांद्य, बुद्धिवैषम्य आदि मानस रोग इसी स्तर के विकार के परिणाम होते हैं। २. बाह्य कोशिका स्तर (outer cell layer), मानस भावों के संयोजन से संबंध रखता हैं। ३. मध्य कोशिकास्तर (Middle cell layer) संवेदना क्षेत्रों में विशेष स्पष्ट होता है। अत: इसका संबंध संवेदना से होता है। ४. आभ्यंतर तंतु स्वर (Inner fibre layer), भी प्रेरक क्षेत्रों में विशेष स्पष्ट होता है। अत: इसका संबंध प्रेरण से होता है। ५. आभ्यंतर कोशिकास्तर (Inner cell layer) का संबंध शारीरिक क्रियाओं तथा अंतर्जात क्रियाओं से है।

(ख) श्वेत द्रव्य--श्वेत द्रव्य तंत्रिकातंतुओं का बना होता है। ये तंतु क्रिया के अनुसार निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किए जाते हैं :

१. संयोजिका तंतु, जो प्रमस्तिष्क गोलार्धों को परस्पर मिलाते है, जैसे (अ) महासंयोजक, (ब) शंखखंड को मिलानेवाली अग्रिम संयोजिका तथा (स) जलाश्व संयाजिका।

२. संयोजन तंतु (Association fibres), जो एक पार्श्व के विभिन्न भागों को मिलाते हैं। ये लघु और दीर्घ दो प्रकार के होते हैं। लघु तंतु निकटवर्ती कर्णिकाओं को मिलाते हैं और दीर्घ तंतु दूरस्थ कर्णिकाओं को। दीर्घतंतु निम्नलिखित हैं : (अ) ऊर्ध्व अनुदैर्ध्य पूलिका (Superior longitudinal bundle), ये तंतु ललाट, शंख तथा पश्चकपाल खंडों को मिलाते हैं; (ब) अधो अनुदैर्ध्य पूलिका (Inferior longitudinal bundle), ये तंतु शंख और पश्चकपाल खंडों को मिलाते हैं, (स) पश्र्चकपाल पूलिका (Occipital bundle), (द) अंकुश पूलिका (Uncinate bundle) तथा (ई) मेखला (Cingulum)।

३. प्रक्षेपण तंतु (Projection fibres)--ये तंतु प्रमस्तिष्क प्रांतस्था, अनुमस्तिष्क, मस्तिष्क के दूसरे भागों तथा मेरुरज्जु (spinal cord) के भिन्न भिन्न भागों का आपस में संबंध स्थापित करते हैं। दिशा के अनुसार ये तंतु निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं : (अ) आरोहीश् तंतु (Ascending fibres) तथा (ब) अवरोही तंतु (Descending fibres)।

(अ) आरोही तंतु प्राय: संवेदी (sensory) होते हैं और इनमें से अधिकांश चेतक में पहुँचकर समाप्त हो जाते है। इनमें निम्नलिखित तंतु होते हैं : (य) ऊर्ध्व पट्टबंध (lemniscus), (र) पार्श्व पट्टबंध अथवा श्रवण विकिरण तंतु (radiation Auditory fibres) (ल) अक्षि विकिरण तंतु तथा (व) अनुमस्तिष्क-प्रमस्तिष्क तंतु।

(ब) अवरोही तंतु प्राय: प्रेरक (motor) होते हैं, जैसे (१) ललाट पूलिका तंतु, (२) शंखपूलिका तंतु तथा (३) पश्र्चकपाल पूलिका तंतु।

(ग) पार्श्र्व निलय--प्रमस्तिष्क गोलार्धों के अंदर स्थित ये दो टेढ़ी गुहाएँ हैं, जो मध्यम तल (median plane) में दोनों ओर प्रमस्तिष्क गोलार्धों के अधर और मध्यस्थ भाग में स्थित रहती हैं। दोनों गौलार्धों के पार्श्र्वनिलय एक दूसरे से अग्र शृंगांतरपट (septum lucidum) द्वारा अलग रहते हैं पर ये तृतीय निलय से निलयांतर रध्रं द्वारा संबंधित होते हैं। ये पार्श्व निलय रोमक उपकला (ciliated epithelium) से आच्छादित होते हैं। इनमें प्रमस्तिष्क मेरुद्रव्य (cerebro spinal fluid) रहता है। प्रत्येक पार्श्वनिलय में एक केंद्रीय भाग और तीन शृंग (cornue or horns) होते हैं, जो क्रमश: अग्रशृंग (Anterior horn), पश्चशृंग (Posterior horn) तथा अधोशृंग (Inferior horn) कहलाते हैं।

प्रमस्तिष्क के कार्य--इसके कार्यों के निरूपण के लिये अनेक विधियाँ काम में लाई गई हैं, जिनमें एक विधि यह है कि प्रमस्तिष्क को निकालकर ऐसा करने के परिणामों का निरीक्षण किया जाता है। प्रमस्तिष्क के अभाव में जिन क्रियाओं का लोप हो जाता है, या जिन क्रियाओं में विकार आ जाता है उनका संबंध अनुमान के द्वारा प्रमस्तिष्क से स्थापित किया जाता है। इसे निकाल देने से विभिन्न प्राणियों में विभिन्न परिणाम होते हैं। मनुष्य में इसके कारण

चित्र ६. के मस्तिष्क के अधोपृष्ठ से निकलनेवाली तंत्रिकाएँ

१. घ्राणकंद (Olfactory blub); २. घ्राणपथ; ३. ब्रोका का (Broca's) क्षेत्र; ४. घ्राण अमेधिका (tubercle); ५. दृष्टि (optic) तंत्रिका; ६. दृष्टि स्वस्तिक (Chiasma); ७. नेत्रचालनी (ocuiomotor) तीसरी तंत्रिका; ८. चक्रक (Trochlear) चौथी तंत्रिका; ९. त्रिमूलिका (trigeminal) पाँचवी तंत्रिका; १०. उद्विवर्तनी (abducent) छठी तंत्रिका; ११. आनन (facial) सातवीं तंत्रिका; १२. मध्यक भाग (Pars Media); १३. श्रवण (auditory) आठवीं तंत्रिका; २४. अधोजिह्विकी (sublingual) बारहवीं तंत्रिका; १५. जिह्विका ग्रसनी (Glosso-pharyngeal) नवीं तंत्रिका; १६. अधोजिह्विकी (Sublingual) बारहवीं तंत्रिका; १७. वेगस (Vagus), दसवीं तंत्रिका, १८. मेरु सहायिका ग्यारहवीं तंत्रिका, सहायिका भाग (spinal accersory part) १९. मेरु सहायिका ग्यारहवीं तंत्रिका, मेरुभाग (Spinal acce. nerve, spinal part); २०. मेरुरज्जु (Spinal cord); २१. पश्र्चकपाल खंड (Occipital lobe) कटा हुआ; २२. अनुमस्तिष्कश् का वर्मिस (Vermis ot cerebellum) कटा हुआ; २३. घ्राणतंत्रिका का अभिमध्यमूल (medial Vermis ot root); २४. दृष्टि स्वस्तिक; २५. पार्श्वमूल (Lateral root); २६. पूर्व सुषिरबिंदु (Anterior spongy point); २७. शंखखंड (Temporal lobe) कटा हुआ; २८. दृष्टिपथ (Optic tract); २९. चक्रक (Trochlear) तंत्रिका; ३०. वृत्ताकार वेणी, टीनिया (Tinea circularis); ३१. त्रिमूलिका (trigeminal) तंत्रिका; ३२. उद्विवर्तनी तंत्रिका; ३३. बहि:वक्रपिंड (Exterior geniculate body); ३४. अंत: वक्रपिंड, जेनिकुलेट; ३५. पुल्विनार (Pulvinar); ३६. आननी (facial) तंत्रिका; ३७. अभिमध्य भाग (Pons medialis); ३८. श्रवण (auditory) तंत्रिका; ३९. मध्य अनुमस्तिष्क वृंत (Medial cerebellar Peduncle); ४०. पार्श्व निलय (Lateral Ventricle); ४१. जिह्वग्रसनी (Glossopharyngeal) तंत्रिका; ४२. वेगस तंत्रिका; ४३. मेरुसहायक (spinal accessory) तंत्रिका तथा ४४. मेरुसहायक तंत्रिका (लघु)।

पक्षाघात आदि गंभीर लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, जिनका शांत होना कठिन हो जाता है। प्रेरक क्षेत्रों (motor areas) के नाश से अनेक प्रेरणागत विकास उत्पन्न हो जाते हैं। जिन शिशुओं में प्रमस्तिष्क अनुपस्थित रहता है, उनमें बुद्धि का कोई चिन्ह नहीं होता और न स्मृति आदि ही होती है। भूख प्यास नहीं लगती तथा अंगों में स्वाभाविक गति नहीं होती। प्रमस्तिष्क प्रांतस्था के अभाव या विकार में जब पेशियाँ क्रियाहीन हो जाती हैं, तब प्रमस्तिष्क प्रांतस्था का निरोधक प्रभाव नष्ट हो जाता है। इससे अनुमस्तिष्क का संकोचक प्रभाव बने रहने के कारण चेष्टाहीन पेशियों का संकोच बढ़ जाता है। इसे अपकुंचन (contracture) कहते हैं। प्रमस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों के निम्नलिखित तीन कार्य होते हैं :

१. उत्तेजनाओं को ग्रहण करना; (संज्ञाक्षेत्रों का कार्य) २. ज्ञान संचय और वर्तमान उत्तेजनाओं का उससे संबंधस्थापन, फलत: स्मृति, प्रत्यभिक्षा और विचार करना; (संयुक्त क्षेत्रों का कार्य) तथा ३. प्रेरणा का उत्पादन (प्रेरक क्षेंत्रों का कार्य)।

इस प्रकार से प्रमस्तिष्क बाह्य वातावरण से उत्पन्न संज्ञाओं को ग्रहण कर तदनुकूल चेष्टाओं को उत्पन्न करता है, जिससे मनुष्य अपने अतीत अनुभवों से लाभ उठाकर जीवनयात्रा में सफलतापूर्वक आगे बढ़ सके। प्रमस्तिष्क बुद्धि तथा जाग्रत संवेदनाओं का स्थान है, क्योंकि सभी केंद्रों तथा उनके मिलानेवाली सूत्रों की क्रिया का परिणाम बुद्धि कहलाता है। प्रमस्तिष्क प्रांतस्था का धूसर द्रव्य इच्छा, स्मृति बुद्धि, भावना आदि उच्च मानसिक प्रतिक्रियाओं का अधिष्ठान है। इसके अतिरिक्त वह ज्ञानेंद्रियों (sensory organs) का भी चरम अधिष्ठान है तथा उच्च मानस प्रतिक्रियाओं के क्रम में होनेवाली जटिल नाड़ीक्रियाओं का स्थान भी प्रमस्तिष्क प्रांतस्था का धूसर द्रव्य ही है। अत: मनुष्य के जीवन में इसका अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

प्रमस्तिष्क के क्षेत्र--अनेक विधियों के द्वारा प्रमस्तिष्क के निम्नलिखित तीन प्रकार के क्षेत्र निश्चित किए गए हैं : १. प्रेरक या उत्तेजक क्षेत्र (Motor or excitable areas), जहाँ से ऐच्छिक वेगों का आरंभ होता है; २. संवेदक या ग्राहक क्षेत्र (Sensory or receptive areas) जिनका कार्य संज्ञाओं को ग्रहण करना है, तथा ३. संयोजक क्षेत्र (Association areas), जो उच्च मानसिक प्रतिक्रियाओं के अधिष्ठान हैं। रचना के अनुसार एक अन्य विद्वान् ने प्रमस्तिष्क प्रांतस्था को निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया है : क. कणिकामय प्रकार (granulose type), जो संवेदन क्षेत्रों में पाए जाते हैं तथा ख. कोणीय प्रकार (angular type), जो प्रेरक तथा संयोजक क्षेत्रों में पाए जाते हैं।

१. प्रेरक क्षेत्र (Motor areas)--प्रमस्तिष्क के निम्नलिखित तीन प्रेरक क्षेत्र निर्धारित किए गए हैं : (क) प्राक्केंद्र कर्णक (Precentral gyrus), (ख) ललाटदृष्टि क्षेत्र (Frontal eye areas) तथा (ग) उच्चारित वाणी क्षेत्र (Motor speech areas)।

(क) प्राक्केंद्र कर्णक--यह कर्णक पूर्णत: प्रेरणा का अधिष्ठान है। कुछ प्रेरक क्षेत्र इसके अंत: पुष्ट में भी हैं। इस कर्णिका में ऊर्ध्वशाखाओं (upper limbs), मध्यकाय (trunk) तथा ग्रीवा (neck) के लिये पृथक् पृथक् केंद्र होते हैं। अधोशाखा (lower limbs) का केंद्र सबसे ऊपर स्थित है, इसके नीचे मध्यकाय का केंद्र है। मध्यकाय के केंद्र के नीचे ऊर्ध्वशाखा का केंद्र होता है। इन केंद्रों में पुन: सभी उपभोगों के लिये केंद्र होते हैं यथा अधोशाखा केंद्र में पैर की अंगुली, पिंडली, जाँघ और नितंब आदि के उपकेंद्र विद्यमान होते हैं।

इन क्षेत्रों का विस्तार पेशियों की संख्या के अनुसार नहीं, बल्कि उनकी गति की जटिलता के अनुसार होता है। जिन अंगों में गति जटिल होती है, उनके क्षेत्र विस्तृत होते हैं। यह क्षेत्र अभ्यासजन्य क्रियाओं का भी संचालन करता है। साथ ही इसके द्वारा पेशियों के स्वाभाविक संकोच पर निरोधक प्रभाव पड़ता है। अन्य संज्ञाक्षेत्रों की संयुक्त क्रिया से अभ्यासजन्य कार्यों के प्रेरक (motor fibres) निर्मित होते हैं, जो वामपार्श्व में प्राक्केंद्र कर्णक में संचित रहते हैं। और समय पर प्ररेक क्षेत्र से संचालित होते हैं। इसकी विकृति होने पर मनुष्य अभ्यासजन्य क्रियाओं का संपादन नहीं कर सकता। इस विकार को चेष्टा अक्षमता (apraxia) कहते हैं।

(ख) ललाटदृष्टि क्षेत्र--यह नेत्रगोलकों की गति का केंद्र है और इसका अधिष्ठान मध्य ललाटकर्णक (middle frontal gyrus) है। यह तृतीय, चतुर्थ तथा छठी कपालतंत्रिकाओं (cranial nerves) के केंद्रकों में उत्तेजना पहुँचाता है, जिससे सहयोगिता के आधार पर कार्य होकर नेत्रगालर्कों में समुचित गति होती है।

(ग) चालक वाक्केंद्र--यह अधोललाट कर्णक (inferior frontal gyrus) के पश्चिम प्रांत में पार्श्व परिखा की अग्रिम शाखा के पास स्थित है। यह क्षेत्र केवल वाम भाग में होता है और वाणी की स्पष्टता के लिये विभिन्न अंगों, यथा जिह्वा, ओंठ, स्वरयंत्र आदि की विविध गतियों का नियंत्रण एवं सहयोगमूलक संचालन करता है। इस क्षेत्र के विकार से वाचघात (aphasia) नामक रोग हो जाता है, जिससे रोगी बोल नहीं सकता।

२. संवेदक क्षेत्र--इन क्षेत्रों को निरूपण उत्तेजना या पृथक्करण के द्वारा होता है। इन क्षेत्रों को उत्तेजित करने पर यद्यपि कोई गति नहीं होती, तथापि उस विषय की अनुभूति तथा तज्जन्य प्रतिवर्ती क्रिया होती है तथा सनसनाहट होने लगती है। संवेदी क्षेत्र को अलग कर देने से संवेदन का नाश हो जाता है। पाँचों इंद्रियों के लिये पृथक् पृथक् क्षेत्र निर्धारित हैं, जिसमें प्राय: शरीर के विपरीत पार्श्व से संवेदनाएँ आती हैं१ इन निम्नलिखित विभिन्न संवेदी क्षेत्रों में से प्रत्येक के पुन: दो भाग हैं : (अ) संवेदी संग्रहणशील (sensory receptive) क्षेत्र तथा (ब) संवेदी मानसिक (sensory psychic) क्षेत्र।

विभिन्न संवेदी क्षेत्र में निम्न प्रकार हैं :

(क) स्पर्शसंवेदी क्षेत्र (Tactile area) यह पश्र्चकेंद्र कर्णिका में स्थित हैं, जो पीछे की ओर ऊर्ध्वपार्श्विक कर्णिका के पूर्वार्ध में ग्रहण करनेवाला क्षेत्र है तथा पश्चिमार्ध में विवेक क्षेत्र है, जहाँ शीतोष्ण, रूक्ष, स्निग्ध आदि स्पर्श के विशिष्ट प्रकारों का ज्ञान होता है। इसमें भी ऊपर से नीचे की ओर अधोशाखा (lower extremity), मध्यकाय, ऊर्ध्वशाखा (upper extremity) तथा ग्रीवा और शिर के संवेदी क्षेत्र हैं।

(ख) श्रवण क्षेत्र (Auditory area)--यह ऊर्ध्वशंख कर्णिका (superior temporal gyrus) तथा अनुप्रस्थ शंख कर्णिका (transverse temporal gyrus) में स्थित है। ऊर्ध्वशंख कर्णिका के मध्य भाग में ग्रहणक्षेत्र तथा अधिपरिसरीय कर्णिका (supramarginal gyrus) में मानस श्रवण क्षेत्र (audito psychic area) है। यहाँ पर सुने और बोले गए शब्दों के स्मृतिचिन्ह संचित रहते हैं। इस मानव श्रवण क्षेत्र की विकृति होने से मानसिक बहरापन (psychic deafness) नामक रोग उत्पन्न होता है। इसमें सामान्य श्रवणसंवेदना का ग्रहण होता है, किंतु उसके विशिष्ट प्रकारों को पहचानने की शक्ति नष्ट हो जाती है। ऊर्ध्वशंख कर्णिका के मध्य में एक और विकसित क्षेत्र है, जिसे श्रवण शब्द (audito words) क्षेत्र कहते हैं। यहाँ उच्चारित शब्दों तथा वर्णों की स्मृति, जिसे ध्वनिचित्र (scund picture) कहते हैं, संचित रहती है। इस क्षेत्र के आघात से श्रवण वाचाघात (auditory aphasia) नामक रोग हो जाता है, जिसमें शब्दों का श्रवण तो होता है, किंतु उसके अर्थ को रोगी नहीं समझता।

(ग-घ) स्वाद और गंध क्षेत्र -- यह जलाश्व कर्णक (hippocampal gyrsus) विशेषत: अंकुश (uncus) में स्थित रहता है। वह कुत्ते आदि तीक्ष्ण गंधयुक्त प्राणियों में अधिक विकसित होता है। इसके ठीक पीछे क्षुधा और पिपासासंवेदी क्षेत्र होते हैं, जिनके विकृत होने से क्षुधा और पिपासा संबंधी विकार होते हैं।

(ङ) दृष्टिक्षेत्र (Visual area) -- यह प्रमस्तिष्क के पश्चकपाल खंड में कीलक (cuneus) पर स्थित रहता है। यह दृष्टि संवेदी क्षेत है। इसी के पार्श्व में, मुख्यत: पश्चकपाल खंड के बाह्यपृष्ठ पर, मानस दृष्टिक्षेत्र (visuo-psychic area) स्थित है। इसी के विकृत हो जाने पर मानसिक अंधापन (psychic blindness) उत्पन्न होता है, जिससे मनुष्य वस्तुओं को देखता है, परंतु पहचान नहीं सकता। पश्चकाल खंड के एक भाग में शब्द-दर्शन-क्षेत्र (visuo-word centre) होता है, जिसमें लिखित या मुद्रित वर्णों के स्मृति चित्र अंकित रहते हैं। इस केंद्र के विकृत होने से लिखित या मुद्रित वर्णों को पहचानने की शक्ति नष्ट हो जाती है। इसे दृष्टिवाचाघात (visual aphasia) कहते हैं।

३. संयोजक क्षेत्र -- उपर्युक्त संवेदक क्षेत्र तथा प्रेरक क्षेत्र प्रमस्तिष्क प्रांतस्था के बहुत थोड़े भाग में सीमित है। इनके चारों ओर ऐसे बड़े बड़े क्षेत्र हैं जिनकी उत्तेजना से कोई विशिष्ट प्रतिक्रिया नहीं होती, किंतु उनके विकार से शरीर की क्रियाओं में जटिल से जटिल विकार उत्पन्न हो जाते हैं। ये क्षेत्र सूत्रों और तंत्रिका कोशिकाओं के समूह से बने हैं। सूत्रों को संयोजक सूत्र (Association fibres) तथा कोशिकाओं के समूह को संयोजक केंद्र (Association centres) कहते हैं। सूत्रों का कार्य विभिन्न केंद्रों को मिलाना तथा केंद्रों का कार्य अनुभूत विषयों की स्मृति के रूप में संचित करना है। इन क्षेत्रों में ध्यान, आलोचन, स्मरण आदि उच्चतर मानसिक क्रियाएँ होती हैं। प्राणियों में बुद्धि का विकास ज्यों ज्यों होता है त्यों त्यों इन क्षेत्रों का भी विकास होता जाता है। मनुष्य के प्रमस्तिष्क में ये क्षेत्र अधिक विकसित होते हैं। इन्हें निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त किया गया है : (क) अग्रसंयोजक क्षेत्र (Anterior association area) ललाट खंड में पूर्व भाग से होता है; (ख) मध्यम संयोजक क्षेत्र (Middie association area) राइल द्वीपिका में स्थित है; (ग) पश्चसंयोजक क्षेत्र (Posterior association area) पार्श्विक खंड (parietal lobe) और पश्चकपाल खंड के पिछले भाग में स्थित है। इन क्षेत्रों के विकृत हो जाने पर संवेदन और प्रेरक (sensory and motor) क्रियाओं में कोई विशेष विकार नहीं आता, परंतु व्यक्ति की मानसिक स्थिति तथा उसके व्यवहार में बहुत अंतर आ जाता है।

अक्षिपथ (Optic tract) -- इसका अंत अक्षिखंड के केंद्रों में होता है, जिसे आसानी से देखा जा सकता है। अतिपथ अक्षि स्वस्तिक (optic chiasma) के पीछे से निकलकर प्रमस्तिष्क वृंत के पार्श्वतल पर पश्च पृष्ठ (posterior surface) में पहुँचकर अभिमध्य (medial) और पार्श्व (lateral) में विभक्त हो जाता है। अभिमध्य भाग छोटा है और दृष्टितंत्रिका (optic nerve) के सूत्रों का इससे कोई संबंध नहीं है। इसका अंत अभिमध्य वक्र पिंड (medial geniculate body) में होता है। इसमें अभिमध्य वक्र पिंड को जोड़नेवाले सूत्र होते हैं, जिन्हें गुडन संयोजिका (Commissure of gudden) कहते हैं। पार्श्व भाग के मूल सूत्र (lateral roof fibres) दो ओर से होते हैं। एक तो उसी ओर के नेत्र के दृष्टिपटल (retina) के पार्श्विक अधोभाग से। ये सूत्र मिलकर पार्श्वमूल (lateral root) बनाते हैं। इसके पुन: तीन भाग हो जाते हैं। एक भाग पुलविनार में जाता है, दूसरा पार्श्व वक्र पिंड में तथा तीसरा ऊर्ध्व चतुष्टय काय में पहुँचकर समाप्त हो जाता है।

कपाली तंत्रिकाएँ -- ये निम्नलिखित १२ तंत्रिकाएँ होती हैं, जिनमें कुछ प्रेरक, कुछ संवेदक तथा कुछ मिश्रित प्रकार की होती हैं : १. घ्राण (olfactory) तंत्रिका, २. दृष्टि (optic) तंत्रिका, ३. नेत्रप्रेरक (occulomotor) तंत्रिका, ४. चक्रक (trochlear) तंत्रिका, ५. त्रिधारा (trigeminal) तंत्रिका, ६. उद्विवर्तनी (abducent) तंत्रिका, ७. आनन (facial) तंत्रिका, ८. श्रवण तंत्रिका (auditory), ९. जिह्वाग्रसनी (glossopharyngeal) तंत्रिका, १०. वेगस (vagus) तंत्रिका, ११. उप (accessory) तंत्रिका तथा, १२. अघोजिह्वा (hypoglossal) तंत्रिका।

मस्तिष्क का वजन (Weight of brain) -- अत्यधिक अनुसंधान के उपरांत मस्तिष्क का भार पुरुषों में १,४०९ ग्राम और स्त्रियों में १,२६३ ग्राम पाया गया है। सबसे अधिक भार २५ से ३५ वर्ष की अवस्था में रहता है। जन्म के समय मस्तिष्क का भार शरीर के भार के १:६ अनुपात में रहता है। दस वर्ष की अवस्था में शरीर तथा मस्तिष्क के भार में अनुपात १:१४ रहता है। २० वर्ष की अवस्था में शरीर तथा मस्तिष्क के भार में अनुपात १:३० होता है तथा उसके बाद की सभी अवस्थाओं में यह अनुपात १:३६.५ होता है। अत्यधिक बुद्धिमान् व्यक्तियों में मस्तिष्क का भार अधिक पाया गया है। १,७०१ ग्राम से ऊपर के वजन का मस्तिष्क या तो अत्यधिक बुद्धिमान् व्यक्ति में पाया गया है अथवा मूर्ख में। जितना व्यक्ति लंबा होता है उतना ही उसके मस्तिष्क का वजन भी अधिक होता है। अनुमस्तिष्क का भार संपूर्ण मस्तिष्क के भार का १/८ भाग होता है। अब मस्तिष्क के धूसर द्रव्य के भार को मालूम करने का प्रयत्न किया जा रहा है। [प्रियकुमार चौबे]