मशीनगन थल सेना और वायु सेना का आधुनिक हथियार है, जिससे लगातार या एक एक करके, जैसी आवश्कता हो, दोनों तरह से फायर हो सकता है। संसार के विभिन्न देशों में कई तरह की मशीनगनें प्रयुक्त हो रही है, जिनमें थोड़ा बहुत अंतर है और उनके अपने अलग अलग नाम हैं। लेकिन मूल रूप से मशीनगनों के अंतर दो तीन ही हैं।
साधारणतया इस हथियार के चार प्रकार हैं : हलकी या लाइट मशीनगन, मझोली या मीडियम मशीनगन, भारी या हैवी मशीनगन और सबसे छोटी सब मशीनगन, या मशीन कार्बाइन। हलकी और मझोली, और किसी किसी भारी मशीनगन में भी, आम तौर से वही कारतूस प्रयुक्त होते हैं, जो इस देश की रायफल में। इस हथियार में फायर की दर इतनी ऊँची होती है कि कारतूसों की पूर्ति की समस्या हर देश के सामने रहती है। दो तीन हथियारों में एक ही तरह का कारतूस प्रयुक्त करने से, यह समस्या और कारतूसों के उत्पादन की समस्या बहुत कुछ सरल हो जाती है। मशीन कार्बाइन में आम तौर से स्वचालित पिस्तौल का कारतूस काम में लाया जाता है। भारी मशीनगनों की नाल का छेद (bore) प्राय: रायफल की नाल के छेद से बड़ा होता है और उसमें कारतूस भी रायफल के कारतूस से बड़ा लगता है।
मशीनगनों में पहला अंतर उनकी नाल को ठंढा रखने की विधि में होता है। लगातार फायर करने से मशीनगन की नाल बहुत गरम हो जाती है। लगातार फायर करने से मशीनगन की नाल बहुत गरम हो जाती है। अगर बहुत गरम होने के बाद भी उससे फायर किया जाए, तो नाल की धातु के मुलायम हो जाने से और उसमें बराबर गोली की रगड़ लगने से नाल के बंदर बना हुआ खाँचा नष्ट, हो जाता है और नाल बेकार हो जाती है। इसलिये अधिकतर मशीनगनों के साथ फालतू नालें रहती हैं। अधिक समय तक लगातार फायर करने की आवश्यकता होने पर नाल बहुत गरम होने के पहले ही बदली जा सकती है और फायर जारी रखा जा सकता है।
नाल को ठंढा रखने के लिये दो वस्तुएँ काम में लाई जाती हैं : पानी या हवा। पानी से ठंढी होनेवाली मशीनगनों में बेलन के आकार की एक टंकी होती है, बीच में से होकर गन नाल फिट की जाती है। इन टंकियों में पानी भरा रहता है। ५०० गोलियाँ लगातार फायर होने के बाद यह पानी खौलने लगता है और २,००० गोलियाँ फायर होने के बाद टंकी को फिर भरने की जरूरत पड़ती है। भारतीय सेना में प्रयुक्त होनेवाली विकर्स (Vickers) मझोली मशीनगन और अमरीकी सेना में प्रयुक्त होनेवाली ब्राउनिंग मशीनगन इसी प्रकार की हैं।
हवा में ठंढी होनेवाली मशीनगनों की नाल के ऊपर बहुत सी नलियाँ उसी प्रकार बनी रहती हैं जिस प्रकार मोटर साइकिल के चारों और बनी रहती हैं। किसी किसी मशीनगन में बहुत से सूराखों का बेलन नाल के चारों ओर लगाया जाता है। नाल के गरम होने से इसके चारों ओर की हवा गरम होकर हलकी हो जाती और ऊपर उठ जाती है तथा चारों ओर की हवा आकर उसकी जगह ले लेती है। इस प्रकार लगातार हवा का बहाव स्थापित हो जाता है। बराबर ठंढी हवा लगने से नली बहुत कुछ ठंढी रहती है। पर यह विधि तभी सफल हो सकती है, जब लगातार फायर अधिक देर तक न किया जाए। इस प्रकार की मशीनगनें थोड़ी थोड़ी गोलियों के फायर करने के अधिक उपयुक्त हैं। भारतीय सेना की हलकी ब्रेन मशीनगन, या टैकों में लगनेवाली ७.९२ बीज़ा (Besa) मशीनगन, इसी प्रकार की होती है। मशीन कार्बाइन भी हवा में ठंढी होनेवाली बनाई जाती है।
मशीनगनों का दूसरा बड़ा अंतर उनकी लगातार फायर करने की विधि में होता है। इसमें मुख्यत: दो ही वर्ग हैं : (१) गैस से चलनेवाली और (२) विस्फोट के धक्के से चलनेवाली। पर ऐसी कई मशीनगनें भी आजकल उपयोग में हैं जिनमें इन दोनों सिद्धांतों को मिलाकर प्रयुक्त किया जाता है।
गैस के जोर से चलनेवाली मशीनगनों में नाल के दल में एक छेद होता है, जो नाल के नीचे लगे हुए एक बेलन से संबंधित होता है। नीचे के बेलन में एक पिस्टन आगे पीछे हरकत करता है। पिस्टन के ऊपर ब्रीचब्लॉक (breech block) जुड़ा रहता है। पिस्टन के तने में एक स्प्रिंग लगी होत है, जो पिस्टन को आगे ठेलती रहती है। कारतूस के चलने पर नाल में गैस भर जाती है, जो गोली को बहुत जोर से आगे को ढकेलती है। जब गोली नाल में सूराख के आगे पहुँच जाती है, तो कुछ गैस सूराख में होकर नीचे वाले बेलन में पहुँच जाती है और पिस्टन के सिर पर ठोकर मारती है। इससे पिस्टन ब्रीचब्लॉक को साथ में लेकर पीछे चला जाता है और साथ ही में चला हुआ कारतूस भी खिंच आता है। चला हुआ कारतूस एक सूराख से बाहर गिर पड़ता है और पीछे की स्प्रिंग पिस्टन और ब्रीचब्लॉक को आगे 'ढकेल देती है। ब्रीचब्लॉक में लगा हुआ फीड पीस (feed piece) मैगजीन से एक नया कारतूस लेकर, नली के चैंबर तक पहुँच जाता है। कारतूस चैंबर के भीतर चला जाता है और ब्रीचब्लॉक में लगा हुआ फायरिंग पिन (firing pin) कारतूस से टकराकर फायर कर देता है। भारतीय सेना की ब्रेनगन इसी सिद्धांत पर काम करती है।
विस्फोट के धक्के से चलनेवाली मशीनगनों में फायर के धक्के से ब्रीचब्लॉक पीछे आ जाता है। एक स्प्रिंग ब्रीचब्लॉक को फिर आगे ढकेल देती है। ब्रीचब्लॉक में लगा हुआ कर्षक (extractor) कारतूस को पकड़ लेता है और कारतूस चैंबर में बैठ जाता है। ब्रीचब्लॉक में लगा हुआ फायर पिन कारतूस को फायर कर देता है और फिर ब्रीचब्लॉक चले हुए कारतूस को लेकर पीछे चला जाता है। इस तरह ब्रीचब्लॉक आगे पीछे हरकत करता रहता है। भारतीय सेना की स्टेन मशीन कार्बाइन इसी तरह से फायर करती है।
कुछ ऐसी भी मशीनगनें होती हैं जिनमें विस्फोट और गैस दोनों को गन चालू रखने में काम में लाया जाता है। विकर्स मझोली मशीनगन इसी तरह से काम करती है।
मशीनगनों में कारतूस लगाने का काम कई तरह से होता है। कुछ मशीनगनों में मोटे कपड़े की पेटियाँ होती हैं, जिनमें कारतूस लगाने के लिये जगहें बनी होती हैं। एक पेटी में साधारणत: २५० कारतूस लगे होते हैं। पहले कारतूस को हाथ से चैंबर में लगा देते हैं और इसके बाद जैसे जैसे फायर होता जाता है, पेटी आगे बढ़ती जाती है। विकर्स मशीनगन में इसी प्रकार कारतूस पहुँचाने का प्रबंध है।
कुछ मशीनगनों में पेटी की जगह धातु की एक पट्टी होती है, जिसमें कारतूस लगा दिए जाते हैं। पट्टी को हाथ से ठीक जगह पर रख दिया जाता है, जिससे पहला कारतूस चैंबर में आ जाता है। फायर शुरू होने पर पहले की तरह पट्टी आगे बढ़ती जाती है। यह तरीका अब लुप्तप्राय है।
अधिकतर मशीनगनों में कारतूस पहुँचाने के लिये एक मैगजीन लगाई जाती है। यह धातु का एक बॉक्स होता है, जिसकी पेंदी के नीचे एक स्प्रिंग लगी होती है। यह एक प्लेट को ऊपर की ओर ठेलती है। स्प्रिंग के जोर से कारतूस ऊपर की ओर उठे रहते हैं और उन्हें आगे की ओर से बक्स का बाहर की ओर निकला हुआ किनारा रोके रहता है। कारतूस सीधा बाहर की ओर नहीं निकल सकता, पर सरकाकर आगे किया जा सकता है। गन के ब्रीचब्लॉक में एक फीड पीस लगा रहता है, जिसका काम मैगज़ीन से कारतूस को सरकाकर चैंबर में ले जाना है। इन मैगज़ीनों में २० से लेकर ३० कारतूस भरे जाते हैं। अलग अलग देशों में भिन्न भिन्न क्षमता के मैगज़ीन बनते हैं। मशीन कार्बाइन का मैगज़ीन अधिक कारतूस के लिये बनाया जाता है और कुछ देशों के मशीन कार्बाइन के मैगज़ीनों में ४० कारतूस तक आ जाते हैं।
भारत की सेना में ब्रेन और स्टेन दोनों में बॉक्स मैगज़ीन काम में लाया जाता हे।
बॉक्स मैगज़ीन के अतिरिक्त कुछ गनों में ड्रम मैगज़ीन भी प्रयुक्त होते हैं। इनमें कारतूस भी बहुत आ जाते हैं; पर इनका काम बहुत संतोषजनक नहीं होता, इसलिए ये भी अब लुप्तप्राय हैं।
मशीनगन के लगातार फायर से जो कंपन होता है, उससे ठीक निशाना लगाना बहुत कठिन होता है। मशीन कार्बाइन में तो बहुत छोटा कारतूस प्रयुक्त होता है। इसलिये वह आदमी जो इसको चला रहा हो, अपनी मजबूत पकड़ से उसको काबू में रखकर बहुत कुछ ठीक निशाने पर पहुँचाना आदमी की ताकत के बाहर की बात है। मझोली और भारी मशीनगनें इतनी भारी भी होती हैं कि एक आदमी कंधे से लगाकर रायफल की तरह उनको चला भी नहीं सकता। इसलिये सब मशीनगनों में स्थिर रखने के लिये कई तरह की स्थापना व्यवस्था (माउंटिंग) होती है। हलकी मशीनगनों में तो दो पैरवाली दुपाई (bipod) से ही काम चल जाता है। दुपाई नाल के लगभग बीच में लगी होती है और जमीन पर ठीक तरह जमाने के बाद फायर के समय नाल को स्थिर रखने में बहुत मदद देती है।
भारी और मझोली मशीनगनों में तीन पैरवाली तिपाई (tripod) लगती है। फायर करनेवाला मशीनगन के पीछे बैठता है और आवश्यकतानुसार मशीन को घुमा सकता है। कुछ मशीनगनें चारों ओर घूम सकती हैं, पर कुछ मशीनगनें निश्चित सीमा के अंदर ही घुमाई जा सकती हैं। जो मशीनगनें टैंक में प्रयुक्त होती हैं, उनमें उचित माउंटिंग लगा होता है, जिससे टैंक से उनका ठीक ठीक उपयोग हो सके।
भारत में ब्रेनगन दुपाई पर लगती है और विकर्स मशीनगन तिपाई के ऊपर लगाई जाती है।
लड़ाई में मशीन कार्बाइन और हलकी मशीनगन को लेकर आदमी चलते हैं। अलग अलग देशों की मशीन कार्बाइनों और हलकी मशीनगनों का वजन अलग अलग होता है, पर मशीन कार्बाइन का औसत वजन आठ से सौ पाउंड और हलकी मशीनगन का औसत वजन २० से २४ पाउंड तक होता है। मझोली मशीनगनों का वजन ४० से ५६ पाउंड तक होता है। मझोली मशीनगनों को कुछ दूर तक तो आदमी लेकर चल सकते हैं, पर अधिकतर इनको ट्रक में ले जाते हैं। अलग अलग देशों की भारी मशीनगनों के वजन में बहुत अधिक अंतर होता है। इसलिये उनका औसत वजन नहीं बताया जा सकता। अधिकतर यह टैंकों, आरमर्ड कारों, या हवाई जहाज में लगी होती है।
मशीन कार्बाइन समीप की लड़ाई का हथियार है। इससे कूल्हे के सहारे, बिना निशाना लिए बहुत जल्दी, या कंधे से निशाना साधकर, फायर हो सकता है। पहली तरह से इसकी मार आम तौर से ५० गज तक और दूसरी तरह से करीब २०० गज तक होती है।
हलकी मशीनगन का हर मौके पर, और सबसे ज्यादा, उपयोग होता है। इसकी ठीक मार ५०० गज है, यद्यपि १,००० गज तक इसका फायर कारगर हो सकता है।
मझोली मशीनगन का अधिकतर उपयोग आगे के अपने सैनिकों के ऊपर से, या बगल से बचाव से बचाव का फायर करने, बचाव में सामने की जमीन में दुश्मन को न आने देने, या टैंकों से दुश्मन के ऊपर फायर करने में होता है। इसकी कारगर मार २,५०० से ४,००० गज तक है। भारी मशीनगन का उपयोग टैंकों और हवाई जहाजों में होता है और इसकी मार ७,२०० गज तक है।
सब मशीनगनों और मशीन कार्बाइन के लगातार फायर की तेजी एक मिनट में ४०० से ६०० गोलियाँ तक है। हवाई जहाज पर लगीकुछ मशीनगनें एक मिनट में १,२०० गोलियाँ तक फायर कर सकती हैं। इससे यह न समझना चाहिए कि मशीनगनें आमतौर से इतना तेज फायर करती हैं। इतना तेज फायर तभी हो सकता है जब बराबर कारतूस गन में पहुँचते रहें। पर बॉक्स मैगज़ीनवाली मशीनगनों में मैगज़ीन के खाली होने पर दूसरी मैगज़ीन चढ़ानी पड़ती है। उसमें काफी समय निकल जाता है, जिससे फायर की तेजी बहुत कम हो जाती है। बेल्ट से कारतूस पहुँचानेवाली मशीनगनों में भी एक बेल्ट के खतम होने पर दूसरा बेल्ट लगाने की, या उसी में दूसरा बेल्ट जोड़ने की जरूरत होती है और इस तरह उनका फायर भी धीमा पड़ जाता है।
अधिकतर मशीनगनों और मशीन कार्बाइनों में, जहाँ तक हो सके, एक एक करके ही फायर करने की कोशिश की जाती है। लगातार फायर बहुत जरूरत पड़ने पर ही किया जाता है, क्योंकि ऐसा करने से दुश्मन को मशीनगन की उपस्थिति का पता चल जाता है।
इतिहास -- सन् १८६० में अमरीका में सबसे पहले डॉo गेटलिंग ने एक मशीनगन बनाई। इसमें एक धुरी के चारों ओर कई नालें लगाई गई थीं। नालों की संख्या अलग अलग मशीनगनों में घटती बढ़ती रहती थी। इन नलियों को एक हैंडिल से घुमाया जाता था, जिससे एक एक करके सब नालों में लगे हुए कारतूस फायर हो जाते थे। कारतूसों की पूर्ति के लिये गन के ऊपर कारतूसों के लिये एक बॉक्स बना रहता था और गन में घूमने के साथ साथ, एक एक करके, ऊपर से कारतूस खाली चैंबरों में गिरते रहते थे। यह पहला आविष्कार था, जिसमें लगातार फायर करने में सफलता मिली। इस हथियार का उपयोग अमरीकन गृहयुद्ध में हुआ, पर इस हथियार को अच्छी तरह से न समझ पाने से इसका उपयोग अधिक कारगर न हुआ। इसका उपयोग बजाय पैदल सेना का एक अंग बनाकर करने के, तोपखाने की तरह किया गया। यह हथियार तोपों से बिलकुल भिन्न था और दोनों की विशेषताएँ बिलकुल अलग अलग थीं। इस हथियार का पूरा फायदा न होने पर, इतना तो हुआ ही कि और देशों ने इसकी नकल करना शुरू किया। तरह तरह की ग़्टौलिंग गनें बनीं और १८७० ईo में फ्रांस में मीट्रेज (mitrailleuse) बनाई गई, जिसमें नालें एक खोल के अंदर बंद की हुई थीं, लेकिन फायर इसमें भी गैटलिंग गन की तरह एक हैंडिल घुमाने से ही होता था। इस गन का उपयोग फ्रांस और प्रशा के युद्ध में सन् १८७० में हुआ, पर यह गन भी अधिक सफल सिद्ध न हुई।
कुछ दिनों तक हाथ में हैंडिल घुमाकर चलानेवाली मशीनगनें बनती रहीं। इनमें मुख्य गार्डनर (Gardner) और नॉर्डेनफील्ड (Nordenfield) हैं।
सन् १८८४ में पहली बार विस्फोट के धक्के का उपयोग करके अमरीका में हीरम एसo मैक्सिम (Hiram S. Maxim) ने लगातार फायर करनेवाली मशीनगन बनाई। इस तरह की मशीनगनों में बहुत उन्नति हुई और सन् १९१४-१८ की लड़ाई में बहुत तरह की मशीनगनों का उपयोग हुआ। अब तक इस हथियार की विशेषताएँ समझने और इसका उपयोग करने की विधि पर काफी विचार हो चुका था, इसलिये इस हथियार ने लड़ाई की शक्ल ही बदल दी। घुड़सवार, जो अभी तक सेना के बहुत जरूरी और कारगर अंग समझे जाते थे, अब बिल्कुल बेकार हो गए। फायर की दुरूस्ती और तेजी से सैनिकों का इकट्ठा होना, या सामने आकर लड़ना, असंभव हो गया। सैनिकों के बचाव के लिये खाइयाँ खोदकर और बिखरकर लड़ने की आवश्यकता पड़ी। मशीनगन फौज का प्रधान शास्त्र हो गई और युद्ध करने की रीति उसी पर आधारित हो गई।
लड़ाई के बाद भी मशीनगनों की बनावट में बहुत उन्नति हुई, जिससे उनकी मजबूती और विश्वसनीयता बहुत बढ़ गई। धक्के से चलनेवाली मशीनगनों में ब्रिटिश विकर्स और अमरीकी ब्राउनिंग बनीं, जो अभी तक अपने बहुत प्रारंभिक रूप में हैं। इसी काल में मशीनगन चलाने के लिये गैस का उपयोग आरंभ हुआ और लूइस मशीनगन इसी सिद्धांत पर बनाई गई। कुछ रायफलें भी इसी आधार पर बनीं, जो दूसरे महायुद्ध में बहुत काम आईं।
इसी काल में मशीन कार्बाइन का जन्म हुआ, जिसमें टामसन सब-मशीनगन, या टॉमी गन, बहुत प्रसिद्ध है। अमरीकन डाकुओं ने इसको प्रसिद्धि दी और बाद में अनेक देशों की सरकारों ने यह हथियार सेना के लिय अपनाया। दूसरे महायुद्ध में इस हथियार के अनेक रूप बने तथा उनका लड़ाई में खूब उपयोग हुआ।
दूसरे महायुद्ध में टैंकों के आने से मशीनगन की पूर्ववाली स्थिति तो न रही, तब भी मशीनगन बनाने में बहुत उन्नति हो गई थी। मशीनगनों के लिये तरह तरह के माउंटिंग बने, जिनसे अनेक प्रकार से मशीनगनों का उपयोग किया जा सका। दूसरे महायुद्ध में ही पहली बार भारी मशीनगनों का उपयोग हुआ, यद्यपि उनका आविष्कार लड़ाई के पहले ही हो गया था। आवश्यकतानुसार उनका आकार बराबर बढ़ता ही रहा और भारी मशीनगन २० मिलीमीटर हिस्पानो और ओंलिंकन तोपों में बदल गई।
दूसरे महायुद्ध में ही स्वचालित रायफलों का भी विस्तृत रूप से उपयोग हुआ। इस हथियार से सिर्फ एक एक कर ही फायर हो सकता था और इसकी मैगज़ीन में पाँच से लेकर १५ कारतूस भरे जाते थे। इस हथियार को चलाने के लिये अधिकतर गैस का ही उपयोग होता था, यद्यपि कुछ देशों ने धक्के से चलनेवाली स्वचालित रायफलें भी बनाईं। इन रायफलों में अमरीकी गैरैंड (Garand) और जर्मन जी४१ (G41) अधिक प्रसिद्ध हैं। ये रायफलें इतनी सफल सिद्ध हुईं कि लड़ाई के बाद अधिकतर देश पुराने चाल की सिटकनीदार रायफलों को छोड़कर, इसी तरह की रायफलों को उपयोग में लाते हैं। [एन. सी. चतुर्वेदी]